भारत में आधुनिक औद्योगिक विकास
भारत में आधुनिक औद्योगिक विकास का प्रारंभ मुंबई में प्रथम सूती कपड़े की मिल की स्थापना (1854) से हुआ। इस कारखाने की स्थापना में भारतीय पूँजी तथा भारतीय प्रबंधन ही मुख्य था। जूट उद्योग का प्रारंभ 1855 में कोलकाता के समीप हुगली घाटी में जूट मिल की स्थापना से हुआ जिसमें पूँजी एवं प्रबंध-नियन्त्रण दोनो विदेशी थे। कोयला खनन उद्योग सर्वप्रथम रानीगंज (पश्चिम बंगाल) में 1772 में शुरू हुआ। प्रथम रेलगाड़ी का प्रारंभ 1854 में हुआ। टाटा लौह-इस्पात कारखाना जमशेदपुर (झारखण्ड राज्य) में सन् 1907 में स्थापित किया गया। इनके बाद कई मझले तथा छोटी औद्योगिक इकाइयों जैसे सीमेन्ट, कांच, साबुन, रसायन, जूट, चीनी तथा कागज इत्यादि की स्थापना की गई। स्वतंत्रता पूर्व औद्योगिक उत्पादन न तो पर्याप्त थे और न ही उनमें विभिन्नता थी।
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत की अर्थव्यवस्था अविकसित थी, जिसमें कृषि का योगदान भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 60: से अधिक था तथा देश की अधिकांश निर्यात से आय कृषि से ही थी। स्वतंत्रता के 60 वर्षो के बाद भारत ने अब अग्रणी आर्थिक शक्ति बनने के संकेत दिए हैं।
भारत में औद्योगिक विकास को दो चरणो में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम चरण (1947.80) के दौरान सरकार ने क्रमिक रूप से अपना नियन्त्रण विभिन्न आर्थिक क्षेत्रों पर बढ़ाया। द्वितीय चरण (1980.97) में विभिन्न उपायों द्वारा (1980.1992 के बीच) अर्थव्यवस्था में उदारीकरण लाया गया। इन उपायों द्वारा उदारीकरण तात्कालिक एवं अस्थाई रूप से किया गया था। अत: 1992 के पश्चात उदारीकरण की प्रक्रिया पर जोर दिया गया तथा उपागमों की प्रकृति में मौलिक भिन्नता भी लाई गई।
स्वतंत्रता के पश्चात भारत में व्यवस्थित रूप से विभिन्न पंचवष्र्ाीय योजनाओं के अन्तर्गत औद्योगिक योजनाओं को समाहित करते हुए कार्यान्वित किया गया और परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में भारी और मध्यम प्रकार की औद्योगिक इकाइयों की स्थापना की गई। देश की औद्योगिक विकास नीति में अधिक ध्यान देश में व्याप्त क्षेत्राीय असमानता एवं असंतुलन को हटाने में केन्द्रित किया गया था और विविधता को भी स्थान दिया गया। औद्योगिक विकास में आत्मनिर्भरता को प्राप्त करने के लिए भारतीय लोगों की क्षमता को प्रोत्साहित कर विकसित किया गया। इन्हीं सब प्रयासों के कारण भारत आज विनिर्माण के क्षेत्र में विकास कर पाया है। आज हम बहुत सी औद्योगिक वस्तुओं का निर्यात विभिन्न देशों को करते हैं।
विभिन्न लक्षणों के आधार पर उद्योगों को कई वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। उद्योगों को इन प्रमुख आधारों पर वर्गीकृत किया गया है-
कृषि आधारित उद्योग
वस्त्रा, चीनी, कागज एवं वनस्पति तेल उद्योग इत्यादि कृषि उपज पर आधारित उद्योग हैं। ये उद्योग कृषि उत्पादों को अपने कच्चे माल के रूप में प्रयोग करते हैं। संगठित औद्योगिक क्षेत्र में वस्त्र उद्योग सबसे बड़ा उद्योग है। इसके अन्तर्गत
- सूती वस्त्र
- ऊनी वस्त्र
- रेशमी वस्त्र
- कृत्रिम रेशे वाले वस्त्र
- जूट उद्योग आते हैं।
कपड़ा उद्योग औद्योगिक क्षेत्रा का सबसे बड़ा घटक है। कुल औद्योगिक उत्पाद का पांचवा हिस्सा वस्त्रा उद्योग उत्पादन का है तथा विदेशी मुद्रा अर्जन में इसका एक तिहाई योगदान है। रोजगार उपलब्ध कराने में कृषि क्षेत्र के बाद इसी का स्थान है।
सूती कपड़ा उद्योग
भारत में औद्योगिक विकास का प्रारंभ 1854 में मुम्बई में आधुनिक सूती वस्त्रा कारखाने की स्थापना से हुआ। और तब से यह उद्योग उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त कर रहा है। वर्ष 1952 में इसकी कुल 378 औद्योगिक इकाइयाँ थीं जो मार्च 1998 में बढ़कर 1998 हो गई।
भारत की अर्थव्यवस्था में कपड़ा उद्योग का योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। यह बहुत बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार उपलब्ध कराता है। देश की कुल औद्योगिक श्रमिक संख्या का 1/5 वाँ हिस्सा कपड़ा उद्योग क्षेत्र में लगा हुआ है।
चीनी उद्योग
भारत के कृषि आधारित उद्योगों में चीनी उद्योग का दूसरा स्थान है। अगर हम गुड़, खांडसारी और चीनी तीनों के उत्पादन को जोड़कर देखें तो भारत विश्व में चीनी उत्पादों का सबसे बड़ा उत्पादक बन जाएगा। सन् 2003 में हमारे देश में लगभग 453 चीनी के कारखाने थे। इस उद्योग में लगभग 2.5 लाख लोग लगे हुए हैं।
लोहा एवं इस्पात उद्योग
यह एक आधारभूत उद्योग हैं क्योंकि इस के उत्पाद बहुत से उद्योगों के लिए आवश्यक कच्चे माल के रूप में प्रयुक्त होते हैं।
भारत में यद्यपि लौह इस्पात के निर्माण की औद्योगिक क्रियाएँ बहुत पुराने समय से चली आ रही हैं किन्तु आधुनिक लौह इस्पात उद्योग की शुरूवात 1817 में बंगाल के कुल्टी नामक स्थान पर बंगाल लोहा एवं इस्पात कारखाने की स्थापना से हुई। टाटा लोहा एवं इस्पात कम्पनी की स्थापना जमशेदपुर में 1907 में हुई। इसके पश्चात् भारतीय लोहा एवं इस्पात सयंत्रा की स्थापना 1919 में बर्नपुर में हुई। इन तीनो संयत्रों की स्थापना निजी क्षेत्रा के अंतर्गत हुई थी। सार्वजनिक क्षेत्रा के अंतर्गत प्रथम लोहा तथा इस्पात का संयत्रा जिसे अब ‘‘विश्वेसरैया लोहा एवं इस्पात कम्पनी’’ के नाम से जाना जाता है, की स्थापना भद्रावती में सन् 1923 में हुई थी।
स्वतंत्राता के पश्चात् लोहा एवं इस्पात उद्योग में तीव्रता से प्रगति हुई। सभी वर्तमान इकाइयों की उत्पादन क्षमता में वृद्धि हुई। तीन नए एकीकृत संयत्रों की स्थापना क्रमश: राउरकेला (उड़ीसा), भिलाई (छत्तीसगढ़) तथा दुर्गापुर (पश्चिम बंगाल) में की गई। बोकारो इस्पात संयन्त्रा की स्थापना सार्वजनिक क्षेत्रा के अनतर्गत सन 1964 में की गई। बोकारो तथा भिलाई स्थित सयंन्त्रो की स्थापना भूतपूर्व सोवियत संघ के सहयोग से की गई। इसी प्रकार दुर्गापुर लोहा एवं इस्पात संयन्त्रा की स्थापना यूनाइटेड किंगडम के सहयोग से तथा राऊरकेला सयंत्रा जर्मनी के सहयोग से स्थापित किए गए। इसके पश्चात विशाखापट्टनम और सलेम संयंत्रो की स्थापना हुई। स्वतंत्राता के समय भारत सीमित मात्रा में कच्चे लोहे तथा इस्पात का निर्माण करता था। सन् 1950.51 में भारत में इस्पात का उत्पादन केवल 10 लाख टन था जो 1998–99 में बढ़ते-बढ़ते 238 लाख टन तक पहुँच गया।
भारत के प्रमुख लौह तथा इस्पात सयंन्त्रा झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक तथा तमिलनाडु राज्यो में अवस्थित हैं। इसके अलावा भारत में 200 लघु इस्पात सयंत्रा हैं जिनकी क्षमता 62 लाख टन प्रति वर्ष है। लघु इस्पात संयन्त्रों में इस्पात बनाने के लिए स्क्रेप या स्पॉन्ज लोहे का प्रयोग किया जाता है। ये सारी छोटी इकाइयाँ देश में लोहा तथा इस्पात उद्योग के महत्वपूर्ण घटक हैं।
लोहा तथा इस्पात उद्योग के अधिकांश सयंन्त्रा भारत के छोटा नागपुर पठार पर अथवा उसके आसपास इसलिए स्थापित हुए हैं, क्योंकि इसी क्षेत्रा में लौह अयस्क, कोयला, मेंगनीज, चूने का पत्थर, डोलोमाइट जैसे महत्वपूर्ण खनिजों के विपुल निक्षेप मिलते हैं।
पेट्रो-रसायन उद्योग
भारत में पेट्रोरसायन उद्योग तेजी से वृद्धि करता हुआ उद्योग है। इस उद्योग ने देश के पूरे उद्योग जगत में एक क्राँति ला दी है क्योंकि इसके उत्पाद परम्परागत कच्चे माल जैसे लकड़ी, काँच एवं धातु को प्रतिस्थापित करने में अधिक सस्ते और उपयोगी पाए जाते हैं। लोगों की विभिन्न आवश्यकताओं की पूख्रत करने वाले इस पेट्रो-रसायन के उत्पाद लोगों को सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। पेट्रो-रसायन को पेट्रोलियम या प्राकृतिक गैस से प्राप्त किया जाता है। हम पेट्रो-रसायन से निर्मित विभिन्न वस्तुओं का प्रयोग सुबह से शाम तक करते हैं। टूथ-ब्रश, टूथ-पेस्ट, कंघी, बालो में लगाने वाले हेयर पिन, साबुन रखने के डिब्बे, प्लास्टिक मग, सिंथेटिक कपड़े, रेडियो और टी.वी. कवर, बाल पॉइन्टपेन, इलेक्ट्रिक स्विच, डिटर्जेंट पाउडर, लिपस्टिक, कीड़े मारने की दवाइयाँ, प्लास्टिक थैलियाँ, फोम के गद्दे तथा चादरें इत्यादि असंख्य वस्तुएँ पेट्रो-रसायन से ही बनती हैं।
भारतीय पेट्रो-रसायन निगम ने वड़ोदरा (गुजरात) के समीप एक वृहद पेट्रोकेमिकल काम्पलेक्स को स्थापित किया है जिसमे विभिन्न प्रकार के पदार्थ बनाए जाते हैं। वड़ोदरा के अलावा गुजरात राज्य में गन्धार एवं हजीरा केन्द्र भी स्थापित किए गए हैं। अन्य राज्यो में महाराष्ट्र (नागाथोन केन्द्र) में पेट्रो रसायन उद्योग स्थापित है। भारत पेट्रो रसायन पदार्थो के निर्माण मे पूर्णत: आत्म निर्भर है।
कच्चे तेल को परिष्कृत किए बगैर कोई खास महत्व नहीं है। परन्तु जब उसे परिष्कृत किया जाता है तब वह खनिज तेल पेट्रोल के रूप में बहुत मूल्यवान बन जाता है। तेल के परिष्करण करते समय हजारों किस्म के पदार्थ मिलते हैं- जैसे मिट्टी का तेल, पेट्रोल, डीजल, लुब्रीकेन्टस और वे पदार्थ जो पेट्रो-रसायन उद्योग में कच्चे माल के रूप में उपयोग में आते हैं।
भारत में इस समय 18 तेल परिष्करण शालाएँ है। इन तेल परिष्करण शालाओं की अवस्थिति इस प्रकार हैं- डिगबोई, बोंगइगांव, नूना माटी (तीनो असम राज्य में), मुम्बई (महाराष्ट्र) में दो इकाइयाँ हैं, विशाखापट्टनम (आन्ध्र प्रदेश), बरौनी (बिहार राज्य), कोयाली (गुजरात), मथुरा (उत्तर प्रदेश), पानीपत (हरियाणा), कोच्चि (केरल), मँगलोर (कर्नाटक) और चेन्नई (तमिलनाडु)। जामनगर (गुजरात) में स्थित परिष्करणशाला एकमात्रा संयंत्रा है जो निजी क्षेत्रा के अन्तर्गत आता है तथा यह रिलायन्स उद्योग लि. द्वारा लगाया गया है।