राजकोषीय नीति का अर्थ

राजकोषीय नीति सरकार की आय, व्यय तथा ऋण से सम्बन्धित नीतियों से लगाया जाता है। अर्थव्यवस्था में सर्वोच्च उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए राजकोषीय नीति व्यय, ऋण, कर, आय, हीनार्थ प्रबन्धन आदि की समुचित व्यवस्था बनाये रखती है, जैसे-आर्थिक विकास, कीमत में स्थिरता, रोजगार, करारोपण, सार्वजनिक आय-व्यय, सार्वजनिक ऋण आदि। इन सबकी व्यवस्था राजकोषीय नीति में की जाती है। 

 

राजकोषीय नीति के आधार पर सरकार करारोपण करती है। वह यह देखती है कि देश में लोगों की करदान क्षमता बढ़ रही है अथवा घट रही है। इन सब बातों का अनुमान लगाकर ही सरकार करों का निर्धारण करती है। व्यय नीति में भी वे निर्णय शामिल किये जाते हैं जिनका अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ता है। ऋण नीति का सम्बन्ध व्यक्तियों के ऋणों के माध्यम से क्रय शक्ति को प्राप्त करने से होता है। सरकारी ऋण-प्रबन्ध नीति का सम्बन्ध ब्याज चुकाने तथा ऋणों का भुगतान करने से होता है। 

 

राजकोषीय नीति आय, व्यय व ऋण के द्वारा सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति करती है। स्मरण रहे, राजकोषीय नीति और वित्तीय नीति में अन्तर होता है। राजकोषीय नीति के अन्तर्गत मुख्य रूप से चार बातों को सम्मिलित किया जाता है:

  1. सरकार की करारोपण नीति (Taxation Policy), 
  2. सरकार की व्यय नीति (Expenditure Policy), 
  3. सरकार की ऋण नीति (Public Debt Policy), 
  4. सरकार की बजट नीति (Budgetary Policy), 

 

राजकोषीय नीति के उद्देश्य

आर्थिक विकास के लिए आवश्यक एवं पर्याप्त मात्रा में धन की व्यवस्था करना राजकोषीय नीति का मुख्य कार्य है। राजकोषीय नीति के उद्देश्य किसी राष्ट्र विकास के लिए उसकी परिस्थितियों, विकास सम्बन्धी आवश्यकताओं और विकास की अवस्था के आधार पर निर्धारित किये जाते है राजकोषीय नीति के प्रमुख उद्देश्य कहे जा सकते हैं :

  1. पूंजी का निर्माण करना – राजकोषीय नीति के अन्तर्गत करारोपण द्वारा चालू उपभोग को कम करके, बचत में वृद्धि करने के प्रयत्न किए जाते हैं, ताकि पूंजी निर्माण के लिए आवश्यक धनराशि प्राप्त हो सके। 
  2. राष्ट्रीय आय में वृद्धि करना –  पूंजी निर्माण के अलावा राजकोषीय नीति का दूसरा महत्वपूर्ण उद्देश्य राष्ट्रीय आय में वृद्धि करना है। 
  3. आय व धन वितरण की विषमताओं को कम करना – आय व धन के वितरण की समानता बनाए रखना आर्थिक विकास का केवल लक्ष्य ही नहीं वरन् एक पूर्व आवश्यकता भी है। अत: सरकार को चाहिए कि अपनी राजकोषीय नीति का निर्माण इस प्रकार से करे कि धन वितरण की विषमताएँ देश में कम से कम हो सकें। 
  4. मुद्रा स्फीतिक दशाओं पर नियंत्रण लगाना – अल्प-विकसित देशों में विकास की आवश्यकताओं को देखते हुए पूंजी का सर्वथा अभाव होता है। प्राय: देखने में आता है कि धन की इस कमी को सम्बन्धित सरकारें हीनार्थ प्रबन्ध् ान के अन्तर्गत नोट छाप कर पूरा करती है। जिससे मुद्रा स्फीतिक दशाएँ उत्पन्न होने लगती हैं। बढ़ती हुई कीमतें, न केवल समाज के लिए कष्टप्रद हैं बल्कि विकास की लागत में भी अनावश्यक वृद्धि कर देती हैं। इस दृष्टि से राजकोषीय नीति का महत्वपूर्ण कार्य ‘प्रभावपूर्ण माँग’ (Effective Demand) को कम करके मुद्रा प्रसार पर रोक लगाना है। 
  5. रोजगार से सुअवसरों में वृद्धि करना –  राजकोषीय नीति के विभिन्न उद्देश्यों में एक उद्देश्य अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार की स्थिति को बनाए रखना है। प्रो. लुइस का मत है कि देश में उपलब्ध जनशक्ति (Manpower) को पूर्ण रोजगार दिलायें, बिना आर्थिक विकास का लक्ष्य अधूरा है। यह काम सरकार का है कि वह अपनी मौद्रिक व रोजकोषीय नीति के अन्तर्गत एक ऐसा वातावरण तैयार करे कि जिसमें सभी लोगों को यथाशक्ति कार्य करने का सुअवसर उपलब्ध हो सके। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार-’’मानवीय हितों को देखते हुए केन्द्रीय सरकार का यह प्रथम कर्तव्य है कि वह उन लोगों को, जो काम करने के योग्य तथा काम करने के इच्छुक है, उपयोगी ढंग की रोजगार दशाएँ उपलब्ध कराए।’’

राजकोषीय नीति की सीमाएँ

  1. करारापेण की प्रक्रिया में यकायक परिवर्तन करना आसान काम नही  होता है। करों में वृद्धि करने से जनआक्रोश भड़क सकता है और सरकार करों को कम नहीं करना चाहती है। 
  2. समयानसु ार सरकारी व्यया ें में परिवतर्न करना कठिन काम है क्याेिं क सावर्ज निक योजनाओं को जल्दी-जल्दी बदला नहीं जा सकता है। 
  3. सरकारी व्यय प्राय: निजी व्यय का ही स्थान ले पाता है, सार्वजनिक व्यय का जितना अधिक विस्तार होता जाता हैं, निजी व्यय कम होता जाता है। उदाहरण के लिए, यदि सरकार स्वयं उद्योग-धन्धों का संचालन करने लगे, तो निजी विनियोग कम हो जायेगा। अत: यह कहना कि सार्वजनिक व निजी व्यय में वृद्धि करके राजकोषीय नीति को प्रभावी किया जा सकता है, गलत होगा। 
  4. राजकोषीय नीति स्फीति की स्थिति को नियन्त्रित करने में सफल नहीं हो पाती है, मंदी-काल में भी राजकोषीय नीति द्वारा रोजगार बढ़ाने में अनेक व्यावहारिक कठिनाइयाँ सामने आती हैं। 
  5. राजकोषीय नीति पर राजनीतिक दबाव होता है, क्याेिं क राजस्व तथा व्यय से सम्बन्धित सभी परिवर्तनों के लिए संसद की स्वीकृत लेनी होती है। 

उपर्युक्त व्याख्या से स्पष्ट है कि राजकोषीय एवं मौद्रिक नीति के सम्मिलित प्रयासों से अर्थव्यवस्था सही दिशा दी जा सकती है।

राजकोषीय नीति के उपकरण

  1. करारोपण –  आर्थिक विकास का आधार कर नीति तथा सरकार की आय होती है। अत: करारोपण करदान क्षमता के आधार पर किया जाना उचित है। करारोपण इस प्रकार से किया जाय कि उसका बुरा प्रभाव काम करने की इच्छा व योग्यता पर न पड़े, साथ ही सरकार को आय भी प्राप्त हो सके।
  2. सार्वजनिक व्यय – राजकोषीय नीति का यह महत्वपूर्ण उपकरण है, सार्वजनिक व्यय का उद्देश्य लोक कल्याण होना चाहिए। सार्वजनिक व्यय उत्पादक होना चाहिए जिससे आधारभूत ढाँचे को व्यवस्थित किया जा सके। सार्वजनिक व्यय इस प्रकार से किया जाय कि इसका बुरा प्रभाव काम करने की इच्छा व योग्यता पर नहीं पड़े। देश की आवश्यकता के अनुरूप ही सार्वजनिक व्यय होना चहिए। उदाहरण के लिए, शिक्षा, स्वास्थ्य, विद्युत, सिंचाई, यातायात, श्रम कल्याण, बीमा सुरक्षा, वृद्धावस्था पेंशन, बाल विकास आदि कार्यक्रमों पर अधिक ध्यान दिया जाना अर्थव्यवस्था के विकास में सहायक होगा। यदि सार्वजनिक व्यय गैर-विकास के कार्यक्रमों में किया जाता है, तो इसका परिणाम अच्छा नहीं होगा।
  3. सार्वजनिक ऋण नीति – राजकोषीय नीति के अन्तर्गत सार्वजनिक ऋणों का भी महत्वपूर्ण स्थान होता है। ये ऋण आन्तरिक एवं बाह्य दोनों प्रकार के होते है। एक विकासशील देश साधनों की कमी के कारण अपना समुचित विकास नहीं कर पाता है फलत: उसे ऋण लेकर अपनी अर्थव्यवस्था का संचालन करना होता है। यदि ऋणों का उपयोग सोच-समझ कर किया जाता है, तो इसका लाभ देश को मिलता है। अविवेकपूर्ण ऋण से मूलधन व ब्याज की अदायगी की समस्या पैदा हो जाती है।
  4. बजटीय नीति – राजकोषीय नीति का यह महत्वपूर्ण विभाग है, बजट वर्ष भर का लेखा-जोखा प्रस्तुत करता है। इसमें आय व व्यय का हिसाब होता है। बजट सरकार का मार्गदर्शक होता है। इसमें करों, शुल्कों तथा घाटे की पूर्ति की व्यवस्था तथा व्ययों का विवरण होता है। वर्तमान में बजटों का महत्व नहीं रह गया है। प्रत्येक सरकार जनहित में आय से अधिक व्यय करके समाज व देश में अपनी प्रसिद्धि व साख को बनाना चाहती है। अत: आज घाटे के बजटों का चलन है, परन्तु प्रत्येक सरकार लगातार असामान्य घाटे के बजट को नहीं बनाना चाहती है, क्योंकि एक सीमा के बाद घाटे का बजट देश की अर्थव्यवस्था को चौपट कर देता है।

 

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