अशोक का साम्राज्य विस्तार
अशोक के अभिलेख कालसी (देहरादून) और समिनदेई (नेपाल की तराई) से प्राप्त हुये है। इससे विदित होता है कि उसका राज्य उत्तर में हिमालय तक फैला था । चितल दुर्ग में उसके लघु शिलालेखों की तीन प्रतियां और कर्नाल से उसके चतुर्दश शिलालेख की एक प्रति दक्षिण से मैसूर तक उसके साम्राज्य विस्तार को प्रमाणित करती है । शाहबाज गढी और मनसेहरा के अभिलेखों से विदित होता है कि समस्त उत्तर पश्चिमी सीमान्त प्रदेश उसके राज्य में सम्मिलित था। कल्हण की राजतरंगिणी के अनुसार काश्मीर पर भी उसका आधिपत्य था । जूनागढ़ और सोबारा से प्राप्त चतुर्दश अभिलेखों की प्रतियों के आधार पर निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि पश्चिमी और दक्षिण पश्चिमी भारत पर भी उसका अधिकार था । रूद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख में उसके यूनानी प्रान्तपति तुषास्प का उल्लेख मिलता है । धौली और जूनागढ़ के अभिलेख उड़ीसा पर उसके आधिपत्य को प्रमाणित करते है । दिव्यावदान और हेनसांग के विवरण से भी विदित होता है कि उसका साम्राज्य भारत के विशाल भू-भाग पर विस्तृत था ।
कलिंग युद्ध में हुए नर संहार के कारण अशोक की नीति बदली । उसने युद्ध द्वारा क्षेत्र जीतने के स्थान पर हृदय जीतने की भावना बनाई । धम्म (धर्म) प्रचार के साथ-साथ जन कल्याण उसका मुख्य कर्तव्य बन गया । अशोक का ‘धम्म’ (धम्म-धर्म)र्मआपको याद होगा कि अशोक को जो साम्राज्य उत्तराधिकार में मिला था वह बहुत बड़ा था और उसमें रहने वाले लोगों में विविधताएं थी । इसमें अनेक छोटी-छोटी क्षेत्रीय और सांस्कृतिक इकाइयां थी जो सदा अलग होने का प्रयास करती थीं । लोगों का विभिन्न धर्मो में विश्वास था । ऐसी परिस्थितियों में अशोक के लिए आवश्यक था कि वह ऐसी शक्तियों का दमन करे जो केन्द्रीय सत्ता की अवहेलना कर सकती थी । उसें एक ऐसी नीति आरम्भ करने की आवश्यकता थी जो साम्राज्य में रहने वाले विभिन्न जातियों और धर्मो के लोगों को संगठित कर सके और राजनैतिक एकता बनाए रखने में सहायक हो । इस प्रकार बहुत कुछ अंशों में धम्म (धर्म) आरम्भ करने का कारण राजनैतिक था तथापि यह निश्चित है कि अशोक का इसमें पूर्ण रूप से विश्वास था ।
धम्म-धर्म
धर्म अशोक का अपना आविष्कार था । यह एक सामाजिक नियामावली (विधान) थी जो सामाजिक उत्तरदायित्वों पर बल देती थी । यह एक व्यावहारिक, सरल और नैतिक जीवन की ओर संकेत करता था । इसमें अहिंसा, सत्यता, ईमानदारी, स्वनियंत्रण पर बल दिया गया था । शिलालेखों द्वारा राजा ने कहा कि गुरू, माता-पिता और बड़ों की आज्ञा का पालन करना एक अच्छी बात है । उसने नौकर-चाकर और दासों से दया पूर्ण व्यवहार करने लिए कहा । उसने जरूरतमंदों को उदारता पूर्वक दान देने के लिए सलाह दी । उसने कहा कि ऐसा कार्य करने वाले व्यक्ति को इस संसार में लाभ होगा और परलोक में बहुत लाभ मिलेगा । धम्म (धर्म) के द्वारा उसने पारिवारिक और सामुदायिक जीवन को सुखी-सम्पन्न बनाने का प्रयास किया ।
धम्म (धर्म) इतना व्यापक और उदार था कि सभी सम्प्रदाय वाले इसे स्वीकार कर सकते थे। प्रत्येक व्यक्ति से कहा गया कि वह अपने धर्म के साथ-साथ दूसरे के धर्म का भी आदर करें । शिलालेख III में अशोक कहता है कि सभी सम्प्रदायों की धारण है कि जो व्यक्ति परमात्मा का प्रिय है उसे किसी भी प्रकार के उपहार या मान सम्मान की आवश्यकता नहीं होती है । वास्तव में अशोक का धर्म सभी धर्मो के अच्छे सिद्धान्तों का समन्वय था । अशोक का धम्म (धर्म) निरपेक्ष था । यह अच्छे व्यवहार का विधान था जिससे सामाजिक जीवन सुखी हो । अशोक ने अपने धम्म के माध्यम से अपने साम्राज्य में रहने वाले विभिन्न धर्म या सम्प्रदाय के लोगों में सामिप्य लाने का प्रयास किया ।
अशोक के धर्म या धम्म की प्रमुख विशेषताएं
- नैतिक आदर्शो पर विशेष जोर
- सार्वभौमिकता
- अहिंसा पर विशेष जोर
- धार्मिक सहिष्णुता
- पूर्णत: उदार
- आडम्बर अनुष्ठानों के स्थान पर मूल धार्मिक स्वभाव पर बल दिया गया ।
धम्म का स्वरूप
विद्वानों ने अशोक के धम्म को भिन्न-भिन्न रूपो में देखा है। फ्लीट इसे ‘राजधर्म’ मानते है जिसका विधान अशोक ने अपने राजकर्मचारियों के लिए किया था परन्तु इस प्रकार का निष्कर्ष तर्कसगं त नहीं लगत क्योंकि अशोक के लेखो से स्पष्ट हो जाता है कि उसका धम्म केवल राजकर्मचारियों तक ही सीमित नहीं था, अपितु सामान्य जनता के लिए भी था। राधाकुमुद कुकर्जी ने इसे ‘सभी धर्मो की साझी सम्पत्ति’ बताया है। उनके अनुसार अशोक का व्यक्तिगत धर्म बौद्धाथा तथा उसने साधारण जनता के लिये जिस धर्म का विधान किया वह सभी धर्मो का सार था। रमाशंकर त्रिपाठी के अनुसार अशोक के धम्म के तत्व विश्वजनीन है और हम उस पर किसी धर्म विशेष को प्रोत्साहन एवं संरक्षण प्रदान करने का दोषारोपण नहीं कर सकते। डी0आर0भण्डारकर के विचार में अशोक के धम्म का मूल स्रोत बौद्ध धर्मही है।
अशोक के समय बौद्ध धर्म के दो रूप थे – (1) भिक्षु बौद्ध धर्म तथा (2) उपासक बौद्ध धर्म। उपासक बौद्ध धर्म सामान्य गृहस्थों के लिए था। अशोक गृहस्थ था। अत: उसने बौद्ध धर्म के उपासक स्वरूप को ही ग्रहण किया। भण्डारकर महोदय का मत अधिक तर्क संगत लगता है। अशोक ने धम्म के जिन गुणों का निर्देश किया है वे दीघ निकाय के सिगालोवादसुत्त में उसी प्रकार देखे जा सकते हैं। प्रथम लघु शिलालेख से भी इसी मत की पुष्टि होती है जिसमें वह कहता है कि ‘संघ के साथ सम्बन्ध हो जाने के बाद उसने धम्म के प्रति अधिक उत्साह दिखया।’
धम्म प्रचार के उपाय
अशोक द्वारा बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ अपनाये गये साधनों को हम इस प्रकार रख सकते है –
- धर्म-यात्राओं का प्रारम्भ – अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार धर्म यात्राओ से प्रारम्भ किया। वह अपने अभिषेक के दसवें वर्ष बोध गया की यात्रा पर गया। अपने अभिषेक के बीसवें वर्ष वह लुम्बिनी ग्राम गया।
- राजकीय पदाधिकारियों की नियुक्ति – ज्ञात होता है कि अशोक ने धम्म के प्रचार हेतु रज्जुक, प्रादेशिक तथा युक्त नामक पदाधिकारियों की नियुक्ति की।
- धर्मलिपियों का खुदवाना – धर्म के प्रचारार्थ अशोक ने शिलाओ एवं स्तंभों पर उसके सिद्धान्तो को उत्कीर्ण कखाया। इनकी भाषा सस्कृत न होकर पाली थी।
- विदेशों में धर्म-प्रचारकों को भेजना – अशोक ने धर्म प्रचारार्थ अपने दूत चोल, पांड्य, सतियपुत्त, केरलपुत्त, ताम्रपर्णि एव पाँच भवन राजाओ के राज्य में भेजं े। अपने पुत्र महेन्द्र को लंका भेजा।
- धर्म महामात्रों की नियुक्ति – अशोक ने धम्ममहामात्र नामक एक नवीन पदाधिकारी को नियुक्त कर विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायो के बीच के द्वेष भाव को समाप्त कर धर्म की एकता पर बल दिया।
कला एवं स्थापत्य
मौर्य युग में ही सर्वप्रथम कला के क्षेत्र में पाषाण का प्रयोग किया गया जिसके फलस्वरूप कलाकृतियाँ चिरस्थायी हो गयी। मौर्य युगीन कला के दो भाग हैं – (1) राजकीय कला (2) लोक कला। राजकीय कला के अन्तर्गत राजप्रसाद, स्तम्भ, गुहा-विहार, स्तूप सम्मिलित हैं। लो कला में यक्ष-यक्षिणी प्रतिमायें, मिट्टी की मूर्तियां आती हैं।
मौर्यकाल के अधिकांश अवशिष्ट स्मारक अशोक के समय के हैं। अशोक के पूर्व चन्द्रगुप्त मौर्य की राजधानी पाटलिपुत्र तथा वहाँ स्थित उसके भव्य राज प्रसाद का विवरण यूनीनी-रोमन लेखकों ने किया है। स्तम्भ मौय युगीन वास्तुकला के अच्छे उदाहरण है। ये दो प्रकार के हैं – (1) वे स्तम्भ जिन पर धम्म लिपियाँ खुदी हुई हैं (2) वे जो विल्कुल सादे हैं। पहले प्रकार में दिल्ली-टोपरा, इलाहाबाद, दिल्ली-मेरठ, लौरिया नन्दनगढ़, लौरिया अरराज आदि आते हैं। दूसरे प्रकार में रमपुरवा (बैल-शीर्ष), बसाढ़, कोसम आदि प्रमुख हैं। अशोक तथा उसके पौत्र दशरथ के समय में बराबर पहाड़ी की गुफाओ में ‘सुदामा की गुफा’ तथा ‘कर्ण चौपड़’ नामक मुफा सर्वप्रसिद्ध है। दशरथ के समय बनी गुफाओं में ‘लोमश ऋषि’ नाम की गुफा उल्लेखनीय है। स्तूप बौद्ध सम्पधियां हैं। स्तूप चार प्रकार के है – शारीरिक, पारिभौगिक, उद्देशिक तथा संकल्पित। बौद्ध परम्परा अशोक को 84 हजार स्तूपों के निर्माण का श्रेय प्रदान करती है।
लोक कला के अन्तर्गत मथुरा, पद्मावती, बेसनगर आदि स्थानों से प्राप्त यक्ष-यक्षी प्रतिमाएं विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। सारनाथ, अहिच्छत्र, मथुरा, हस्तिनापुर, कौशाम्बी आदि अनेक स्थानो से हाथी, घोड़ा, बैल, भेंड़, कुत्ता, हिरण, पक्षियों तथा नर-नारियों की बहुसंख्यक मिट्टी की मूर्तियां मिली हैं।
प्राचीन भारत में मौर्य प्रशासन के ही अनेक तत्वों का अनुसरण अनेक राजवंशों के शासको ने किया। तत्कालीन अर्थव्यवस्था में कृषि, पशुपालन तथा व्यापार-वाणिज्य की अहम भूमिका थी। प्रजा के नैतिक उत्थान में अशोक ने जिन आचारो की संि हता प्रस्तुत की उसे उसके अभिलेखो में ‘धम्म’ कहा गया है। अभिलेखो में उल्लिखित धम्म बौद्ध धर्म का उपासक स्वरूप है। धम्म के प्रचार में अशोक ने अत्यधिक उत्साह दिखाया और उसके प्रयास से ही धम्म विदेशों तक फैल गया। मौर्यकाल में कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई। पाषाण के प्रयोग से कलाकृतियां चिरस्थायी हो गई। स्तम्भ मौर्य युगीन कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
बुद्ध धर्म का प्रचार
विद्वानों के एक वर्ग के अनुसार अशोक ने कलिंग युद्ध के तुरन्त बाद बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था । परन्तु उसके अभिलेख के अनुसार ढाई वर्ष बाद बौद्ध धर्म का प्रबल समर्थक बना था। यद्यपि शिलालेखों में अशोक ने धम्म (धर्म) की शिक्षाएं है तथापि उनमें से कुछ निश्चित रूप से बौद्ध धर्म की शिक्षाएं है । भाबरा अभिलेख में अशोक बुद्ध धर्म संघ के प्रति आदर व्यक्त करता है । रूम्मिनदेई स्तम्भ अभिलेख बताता है कि अशोक महात्मा बुद्ध के स्थान, लुम्बिनी गया था । उसने इसे कर मुक्त कर दिया था । अशोक बोध गया जैसे अन्य तीर्थो में भी गया था । इसके अतिरिक्त उसने अनेक नए स्तूप बनवाए और पुराने स्तूपों की मरम्मत कराई । अशोक ने संघ की गतिविधियों या क्रियाकलापों में भी भाग लिया । उसके शिलालेखों में से एक में कहा गया है कि किसी को भी संघ को हानि पहुंचाने का अधिकार नहीं है क्योंकि मेरी इच्छा है कि संघ संगठित रहे और वह दीर्घ काल तक चले ।
बौद्ध स्त्रोतों के अनुसार बौद्धों की तीसरी सभा का अयोजन अशोक के संरक्षण में हुआ था। सभा की अध्यक्षता प्रसिद्ध भिक्षु मोग्गलिपुत्र तिस्स ने की थी । हमें बताया गया है कि सभा के समापन पर बौद्ध भिक्षु कश्मीर, गांधार, पर्वतीय क्षेत्र स्वर्णभूमि और लंका भेजे गये थे । इनका कार्य धर्म प्रचार करना था । इस प्रकार बौद्ध धर्म केवल अशोक के साम्राज्य में ही नही वरन् विदेशों में भी फैला । अशोक ने तीर्थ स्थानों का भ्रमण किया और स्तूप बनवाएं । उसने बौद्ध धर्म से सम्बन्धित प्रलेख जारी किए । उसके शासन काल में बौद्धों की तीसरी सभा हुई और बहुत से धर्म प्रचारक विदेशों में भेजे गए ।
सम्राट अशोक के प्रशासनिक सुधार
यद्यपि मोटे तौर से अशोक ने चन्द्रगुप्त द्वारा स्थापित शासन व्यवस्था को ही चलाया तथापि उसने कुछ प्रशासनिक परिवर्तन किए । इन परिवर्तनों का कारण था कि अशोक अपनी प्रजा के हित के लिए कार्य करना चाहता था ।
उसने विजय नीति का परित्याग कर दिया और पड़ोसी राजाओं को आवश्वस्त किया कि वह युद्ध नहीं करेगा और शान्ति पूर्ण सह अस्तित्व की नीति का अनुसरण करेगा । अशोक ने धर्म महामात्रों की नियुक्ति की इनका कार्य था कि ये विभिन्न धर्मो के हितों की रक्षा करें । अशोक द्वारा किए गए अन्य परिवर्तन के अनुसार प्रादेशिक से कहा गया कि वे राजुक और युक्त को साथ लेकर नियमित रूप से भ्रमण करें और देखें की क्या प्रशासन सुचारू रूप से चल रहा है । राजुकों को न्यायिक अधिकार अधिक दिए गए थे । इस प्रकार अशोक के प्रशासनिक सुधारों का मुख्य उद्देश्य जनकल्याण और जनहित था।