कठपुतली के प्रकार
भारत में कठपुतलियों के कई रूप प्रचलित हैं। राजस्थान में धागों वाली कठपुतली, उड़ीसा तथा बंगाल में दस्ताने वाली कठपुतली तथा आंध्र प्रदेश की छाया कठपुतलियां इनमें से प्रमुख हैं।
अवास्तविक, अनुपात विहीन और निर्जीव होते हुए भी कठपुतलियों के पात्र सैकड़ों वर्षो से अपने विशिष्ट अंदाज के द्वारा दर्शकों की सामूहिक कल्पना को अर्थ प्रदान करते आए हैं तथा उन तक अपनी बात संप्रेषित करते आए हैं। समाज को मनोरंजन के साथ-साथ शिक्षा प्रदान करते रहें हैं। वस्तुत: कठपुतली एक निर्जीव वस्तु है जो मानवीय संचालन और निर्देशन के कारण सजीव होने का आभास देती है। यह संचालन का ही कमाल होता है कि दर्शकों और निर्जीव पुतलियों के बीच संवेग एवं भावनाओं का आदान-प्रदान होने लगता है।
हालांकि यह माना जाता है कि कठपुतली कला भारत का लोक माध्यम है । भारत में ग्रामीण लोक माध्यम होने के कारण इसके आर्थिक आधार कभी मजबूत नहीं रहे। विशिष्ट हस्त कौशल वाली कला होने के कारण यह पैतृक संपत्ति के रूप में एक वंश या परिवार तक ही सीमित बनी रही। पश्चिमी देशों में कठपुतली बनाने, उनका संचालन और नाट्य विधान सिखाने तथा उनका प्रदर्शन करने का नियमित प्रशिक्षण देने वाले अनेक केन्द्र हैं। विशिष्ट बच्चों की शिक्षा के लिए तो इस कला का उपयोग हो ही रहा है, सामान्य बच्चों में भी अभिनय, संगीत, साहित्य तथा नृत्य आदि की अभिरुचि जागृत करने के लिए भी कठपुतलियों का इस्तेमाल होता है। रूस में कठपुतलियों के जरिए लोक कथाओं का प्रदर्शन होता है तो इंग्लैंड में कठपुतलियों के लोक नृत्य अधिक प्रचलित हैं। जर्मनी में भी कठपुतलियों के जरिए इतिहास की जानकारी दी जाती है।
कठपुतली के प्रकार
कठपुतली मुख्यतः पांच प्रकार की होती हैं। यह वर्गीकरण उनके संचालन की विधियों के आधार पर किया गया है।
- धागे वाली कठपुतलियां
- दस्ताने वाली कठपुतलियां
- छड़ वाली पुलिया
- दस्ताने एवं छड़ी वाली पुतलियां
- छाया पुतलियां
- धागे वाली कठपुतलियां –इन कठपुतलियों के संचालन में संचालन करने वाला धागों के सहारे बंधी कठपुतलियों को ऊपर से संचालित करता है तथा यह कठपुतली कला का एक लोकप्रिय स्वरूप है। इस तरह की कठपुतलियों का जन्म राजस्थान में हुआ था। इस तरह की कठपुतलियों में हाथ-पैर का संचालन बहुत अच्छी तरह से होता है। इसकी प्रस्तुति में दर्शक एक साथ बहुत सी कठपुतलियों की गतिविधियों का आनन्द ले सकता है।2. दस्ताने वाली कठपुतलियां –इन कठपुतलियों का निर्माण दस्तानों के ऊपर होता है। इसमें कठपुतली के सिर को तर्जनी से, मध्यमा और अंगूठे से एक-एक हाथ तथा कलाइयों से कमर की हलचल का संचालन होता है। यह कठपुतलियों का अपेक्षाकृत नया स्वरूप है और धीरे-धीरे लोकप्रिय होता जा रहा है। इनके प्रस्तुतिकरण में मंच सज्जा का भी खूब उपयोग होता है।
- छड़ वाली कठपुतलियां –यह पुतलियां विदेशों में अधिक प्रयुक्त होती हैं। इनका निर्माण तो दस्तानों पर ही होता है लेकिन इनके संचालन में तीन छड़ों का भी उपयोग होता है। दो छड़ें पुतली के हाथों तथा एक छड़ पुतली के सिर के संचालन में काम आती है। विदेशों में इनको शरीर नुमा लकड़ी के फ्रेम पर बनाया जाता है और गर्दन एवं कमर के हिस्सों को गोल लकड़ी की छड़ों पर एक के ऊपर एक रख कर कठपुतली में हरकत पैदा की जाती है।4. दस्ताने एवं छड़वाली कठपुतलियां –इन कठपुतलियों के निर्माण एवं संचालन में छड़ एवं दस्ताने दोनों का इस्तेमाल होता है। संचालनकर्ता हाथों में दस्ताने पर बनी पुतली को पहन कर नीचे खड़ा होकर संचालन करता है। परदे तथा मंच पर प्रस्तुत अन्य सामग्री को आगे-पीछे गति देने के लिए छड़ों का इस्तेमाल किया जाता है। यह शैली ऐसी है कि इसमें कठपुतलियों के जरिए हर प्रकार के भावों का संप्रेषण किया जा सकता है। इसमें धागे वाली कठपुतलियों की तरह कठपुतलियों के आपस में उलझने की आशंका भी नहीं होती । पश्चिम में जनसंचार माध्यम के तौर पर इनका प्रयोग सबसे अधिक होता है।5. छाया पुतलियां – छाया पुतलियां एक खास तरह की कठपुतलियां होती हैं, जिसमें चमड़े की पुतलियों पर प्रकाश डाल कर एक सफेद कपड़े पर उसकी छाया के जरिए विभिन्न भाव व मुद्राएं प्रस्तुत की जाती हैं। दो-तीन मीटर लम्बे तथा दो मीटर चौड़े सफेद पतले पर्दे पर विभिन्न आकार की चमड़े की पुतलियों की छाया के जरिए छाया पुतलियां दर्शकों के सामने सजीव पात्रों की तरह प्रभाव पैदा कर देती हैं। भारत में आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल में तथा इण्डोनेशिया, कम्बोडिया आदि में छाया पुतलियां खासी लोकप्रिय हैं। हालांकि इन छाया पुतलियों के प्रस्तुतीकरण की अपनी कुछ सीमाएं भी हैं।
कठपुतली प्रदर्शन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका कठपुतली कलाकार या संचालनकर्ता की होती है। हालांकि वह प्रदर्शन में कहीं दिखाई नहीं देता, लेकिन निर्जीव पुतलियों के जरिए संवेदनाओं का संचार उसी की अंगुलियों के कमाल से संभव होता है। कठपुतली संचालनकर्ता, एक प्रकार से स्वयं कठपुतली के रूप में दर्शकों के सम्मुख प्रस्तुत हो जाता है। उसकी सारी भावनाएं, सारी चेष्टाएँ, सारा संदेश कठपुतलियों के संप्रेषण के रूप में जीवित हो उठता है।
कठपुतली संचालनकर्ता के लिए उंगलियों की मदद से कठपुतलियों का संचालन जितना महत्वपूर्ण होता है उसके लिए उतना ही महत्व कठपुतलियों द्वारा बोले जाने वाले संवादों का भी है। अच्छा प्रस्तुतकर्ता अपने संवादों के जरिए कठपुतलियों को आवाज दे देता है, उनमें जान फूंक देता है। कठपुतली संचालन में संगीत का भी विशेष महत्व है। संगीत का उपयोग सूत्रधार के रूप में भी होता है और भय, आश्चर्य, क्रोध आदि भावों की अभिव्यक्ति के लिए भी।
कठपुतली संचालनकर्ता के साथ-साथ कठपुतलियों का भी अपना महत्व है। दिखने में सामान्य लगने वाली कठपुतलियों के निर्माण में अत्यधिक श्रम और समय लगता है। फिर जब वे मंच पर अवतरित होती हैं तो कुछ खास विशेषताओं के कारण उनका दर्शक के दिलो दिमाग पर गहरा प्रभाव पड़ता है। ये विशेषताएं हैं – कठपुतलियों की व्यक्तित्वविहीनता, अवास्तविकता और सार्वभौमिकता । यानी कठपुतलियों की अपनी कोई मुखमुद्रा नहीं होती, दर्शक को उनका प्रदर्शन देखते हुए उनके अवास्तविक होने का अहसास होता है तथा कठपुतलियों की कथाओं के पात्र मानव की भावनाओं के पात्र होते हैं।
भारत में कठपुतलियों के माध्यम से प्राय: वीर योद्धाओं की गाथाएं, धार्मिक कथाएं, सामाजिक कथाएं और हास्य कथाओं को प्रस्तुत किया जाता है। प्राय: इन सभी के जरिए समाज को कुछ संदेश भी दिए जाते हैं जो मुख्यत: सार्वजनिक और व्यक्तिगत जीवन की नैतिकता के बारे में होते हैं। जनसंचार माध्यम के रूप में इनका उपयोग सामाजिक सुधार, शिक्षा और लोगों को जागरूक बनाने में भी किया जाता है। विदेशों में तो इसे एक विशिष्ट कला के रूप में भी मान्यता मिल चुकी है।