अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्र में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में चेतना की एक नवीन लहर प्रस्फुटित हुई । इस समय जिस नवीन विचारधारा का उदय हुआ उसका भारतीय जन-जीवन के विभिन्न पहलुओं पर प्रभाव आज भी दृष्टिगोचर होता है ।

यह और भी आश्चर्य का विषय है कि यद्यपि इस समय राजनैतिक अव्यवस्था थी तथापि एक बौद्धिक क्रान्ति सम्भव हो सकी जो कि भारत को वर्तमान युग में प्रविष्ट कराने में सफल हुई ।

तत्कालीन परिस्थितियाँ:

साम्राज्य के पतन होने के साथ भारतवर्ष में कोई ऐसी राजनैतिक सत्ता शेष नहीं रह गई थी जो कि ब्रिटिश साम्राज्यवादियों का डटकर सफलतापूर्वक विरोध कर सके । 1965 में बंगाल का शासन ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथ में आ गया था ।

तत्पश्चात् कम्पनी दूसरे प्रदेशों में भी आन्तरिक कलह का लाभ उठाती रही और अपने विशेषाधिकार बढ़ाती रही । इस प्रकार भारत में 17वीं सदी के मध्य से 19वीं सदी के मध्य तक निरन्तर विद्रोहों और युद्धों का वातावरण बना रहा । ऐसी अव्यवस्था और धार्मिक कठिनाइयों के मध्य में भारतीय विद्वानों और धार्मिक सुधारकों ने जन्म लिया ।

इसमें प्रभाव डालने वाले तत्वों में मुख्य रूप से पश्चिम के साथ सम्बन्ध स्थापित होना है । अंग्रेजों की भारत विजय के साथ-साथ भारतवर्ष में पश्चिमी संस्कृति का भी प्रसार हुआ । अठारहवीं शताब्दी तक भारतवासी अपनी प्राचीन संस्कृति को भुला बैठे थे । यही कारण था कि इस समय प्रेरणा, उत्साह एवं दूरदर्शिता का अभाव था । उनके स्थान पर रूढ़िवादिता आ गई थी ।

संस्कृति के क्षेत्र में आडम्बर बद गया था । वाराणसी, जहाँ वेदों के पठन-पाठन और वेदांगों का अध्ययन मुख्य साधना थी वहाँ की जनता वास्तविक वेदों को खो बैठी थी, यहाँ तक कि ऋग्वेद की एक भी सही प्रति प्राप्त नहीं थी । विदेशियों के सम्पर्क में आने से भारतीयों ने उनसे तर्क और विज्ञान सीखे, जिनको जीवन के सम्पूर्ण अंगों में प्रयोग करके अन्य-विश्वासों से युद्ध आरम्भ किया । इस कार्य में पाश्चात्य शिक्षा पद्धति का अत्यधिक योगदान रहा ।

परन्तु एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह उत्पन्न हो गई कि पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों में से अधिकतर पाश्चात्य रंग में रंग गये और पाश्चात्य संस्कृति का अन्धानुकरण प्रारम्भ हो गया । इससे भी अधिक बुरा प्रभाव यह हुआ कि यह वर्ग अपनी संस्कृति की अज्ञानता में उसको हेय मानने लगा । फलत: यह शिक्षित वर्ग भारतीय धार्मिक और सामाजिक व्यवस्था को निरर्थक समझने लगा ।

कुछ व्यक्तियों ने तो धर्म परिवर्तन तक कर लिया । इनमें कृष्ण मोहन बनर्जी लाल बिहारी दे, कवियित्री तोरूदत्त के पिता गोविन्ददत्त आदि के नाम उल्लेखनीय है । परन्तु ऐसे समय में, जबकि भारतीय संस्कृति पर कुठाराघात हो रहा था, कुछ ऐसी महान् विभूतियाँ भी हुई जिन्होंने भारतीय धर्म एवं संस्कृति को अति उत्तम रूप में प्रस्तुत कर भारतीयों के ज्ञान-चक्षु खोल दिये ।

इस जागरण को हम धार्मिक पुनरूत्थान नाम देते हैं । भारतीय समाज में धर्म का विशेष महत्व है । भारतीय धर्मशास्त्रों के अनुसार धर्म की परिभाषा इतनी विस्तृत रूप से दी गई है जिसमें कि मनुष्य के जीवन के प्रत्येक कार्यकलाप के लिए उचित नियमों का उल्लेख किया गया है ।

इस प्रकार से धर्म शब्द का अर्थ केवल पूजा अथवा उपासना से सम्बन्धित नियमों का उल्लेखमात्र ही नहीं है अपितु उसके अन्तर्गत सम्पूर्ण जीवन को धर्मानुसार व्यतीत करने के लिये नियमों का निरूपण किया गया है ।

18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पाश्चात्य शिक्षा-दीक्षा के प्रभाव से प्रभावित कुछ विद्वानों ने भारतीय संस्कृति की खोज प्रारम्भ की जिसके फलस्वरूप इस समय में बहुत से आन्दोलन इस क्षेत्र में प्रारम्भ हुये जिनको धार्मिक सुधार आन्दोलन का नाम दिया जाता है ।

1. राजा राममोहनराय:

बंगाल में बर्दवान जिले में राधानगर ग्राम के ब्राह्मण जर्मीदार रमाकान्त राय के यहाँ 1774 ई॰ में राजा राममोहनराय ने जन्म लिया । इनकी प्रारम्भिक शिक्षा पटना में हुई जहाँ कि इन्होंने अरबी, फारसी और संस्कृत भाषाओं का अध्ययन किया ।

वहीं पर ये सूफी मतावलम्बियों के प्रभाव में आये जिसके कारण न केवल इनकी विचारधारा में परिवर्तन आया अपितु इनके वस्त्र तथा रूचि भी मुसलमानी हो गई इन्होंने कुरान का अध्ययन अरबी भाषा में किया । इसके पश्चात् एक समय इनका अपने पिता से वाद-विवाद बहुत अधिक बढ़ गया जिसके फलस्वरूप यह तीन वर्ष तक स्थान-स्थान पर घूमते फिरे ।

कुछ समय पश्चात् यह बनारस पहुंच गये और वहाँ रहकर ब्राह्मण और वैदिक धर्मशास्त्रों का मनोयोगपूर्वक अध्ययन व अनुशीलन किया । लगभग 1803 में वे वहाँ से मुर्शिदाबाद चले गये । वहाँ से इन्होंने एक धार्मिक लेख फारसी भाषा में निकाला जिसका शीर्ष ”तुहफत-उल-मुवाहिद्दीन” था ।

इसमें मूर्ति-पूजा तथा समस्त धर्मों के अन्ध-विश्वासों के विरुद्ध मत प्रकट किया गया था । राजा राममोहनराय स्वयं एक विश्वबन्धुत्व धर्म की स्थापना करने का प्रयास कर रहे थे । तत्पश्चात् उन्होंने लैटिन, ग्रीक व हिब्रू भाषाओं की जानकारी भी प्राप्त की । इन्होंने उपनिषदों तथा वेदान्त का जो अध्ययन किया था वह इनकी प्रारम्भिक पुस्तकों में प्रकाशित किया गया है ।

सन् 1972 ई. के बाद जब वह कलकत्ता में आकर बस गये थे तभी उनमें तथा अन्य विद्वानों में धार्मिक तथा सामाजिक समस्याओं पर वाद-विवाद चल रहे थे । ये विवाद अधिकतर जैन, हिन्दू तथा मुस्लिम धर्मावलम्बियों के साथ होते थे ।

इसी समय में इन्होंने तन्त्र साहित्य का अध्ययन किया इन्होंने पश्चिमी राजनीति और फ्रांस की क्रान्ति का अध्ययन किया 1814 ई॰ में इन्होंने कम्पनी की नौकरी से अवकाश प्राप्त कर लिया था । सन् 1815 ई॰ में इन्होंने धार्मिक विषयों पर विचार-विनिमय के उद्देश्य से “आत्मीय सभा” की स्थापना की थी ।

सन् 1819 में इन्होंने कलकत्ता “यूनिटेरियन कमेटी” की स्थापना की, 1825 ई. में इन्होंने वेदान्त कालिज की स्थापना की थी । बाइबिल के अध्ययन के प्रभाव से इन्होंने एक लेख ”दी प्रिसेप्ट्स ऑफ जीसस” भी लिखा जिसमें बाइबल के आधार पर शान्ति और प्रसन्नता का मार्ग दिखाया गया था । इससे इनका अत्यधिक विरोध हुआ सन् 1824 ई. में इन्होंने ब्रह्मसमाज की स्थापना की ।

रामा राममोहनराय का सम्पूर्ण जीवन इस नवीन युग की आत्मा को प्रतिबिम्बित करता है । इन्हें आधुनिक भारतीय जागृति का पिता कहना सर्वथा उचित होगा । इन्होंने एकेश्वरवाद की शिक्षा दी । इन्होंने तत्कालीन प्रचलित हिन्दू विश्वासों तथा बहुत से देवी-देवताओं की मूर्तियों की आराधना करने तथा उनसे सम्बन्धित बहुत से संस्कारों का विरोध किया ।

इन्होंने इस बात को स्पष्ट करने की चेष्टा की कि इनके विचार प्राचीन हिन्दू-शास्त्रों पर आधारित है जिनके प्रयोग में वर्तमान समय के अन्धविश्वासों के कारण अनार आ गया है । राममोहन राय के विचारों ने हिंदू समाज को झकझोर दिया राममोहन राय ने बंगाली भाषा में प्राचीन सिद्धान्तों का प्रतिपादन प्रारम्भ किया जिसके द्वारा इन्हें अपनी विचारधारा को स्पष्ट करने में सहायता मिली ।

इन्होंने अपने इन धार्मिक विचारों को ब्रह्मसमाज के द्वारा देश में विभिन्न भागों में फैलाया । अप्रत्यक्ष रूप से बंगाली गद्य साहित्य और बंगाली पत्रकारिता को राजा राममोहनराय द्वारा प्रोत्साहन मिला । डॉ॰ आर. सी. मजूमदार के अनुसार राजा जी अंग्रेजी शिक्षा के महान् प्रवर्तक थे । उन्होंने न केवल इस कार्य के लिए विभिन्न संस्थाओं की स्थापना की अपितु इस कार्य में दूसरों की भी सहायता की ।

1823 ई॰ में इन्होंने कलकत्ता में संस्कृत कालिज की स्थापना का विरोध किया क्योंकि उससे विद्यार्थी केवल वे ही बातें सीख सकते थे जो कि हजारों वर्ष पहले प्रचलित थीं । इसके विपरीत यह चाहते थे कि भारतवर्ष में ऐसी उदारवादी शिक्षा का प्रबन्ध हो जिससे गणित, दर्शन, रसायनशास्त्र तथा और दूसरे आधुनिक विषयों का अध्ययन किया जाये ।

समाज सुधार:

राजा जी विशेष रूप से समाज की कुरीतियों को दूर करना चाहते थे । वह जाति प्रथा की जटिलता और स्त्रियों की गिरती हुई दशा में सुधार करना चाहते थे वह सती प्रथा के विरुद्ध थे और इसके लिए उन्होंने ब्रिटिश सरकार से नियम बनाने का अनुरोध किया ।

वह स्त्रियों के उत्तराधिकार के नियमों में परिवर्तन लाना चाहते थे जिससे कि विधवा स्त्रियों की दशा में सुधार हो सके । वह स्त्रियों की शिक्षा भी उचित रूप से प्रदान करने के पक्ष में थे । वह केवल कुछ विशेष परिस्थितियों में ही विधवा विवाह होने के पक्ष में थे ।

संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि उन्होंने भारत के समाज सुधार की सही रूपरेखा प्रस्तुत की जिसमें कि स्त्रियों की दशा सुधारने का कार्य तथा जातिवाद के कठोर नियमों का विरोध मुख्य था । राजनीति के क्षेत्र में राजा राममोहन राय संवैधानिक रूप से आन्दोलन करने के पक्ष में थे जिसके फलस्वरूप आगे चलकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ उनकी राजनीति का आधारभूत सिद्धान्त था “स्वतन्त्रता प्रेम, जो कि आत्मा का सर्वोत्तम जोश हो” ।

उनका दृढ़ विश्वास था कि भारतीय भी दूसरे उन्नत देशों के लोगों के समान बन सकते हैं । राममोहन राय के जीवन चरित्र के लेखक भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि उनके मस्तिष्क में सदैव ही अपने देशवासियों के राजनैतिक अधिकारों को बढ़ाने की चिन्ता रहती थी ।

राजा जी प्रेस की स्वतन्त्रता भी चाहते थे । उन्होंने समय-समय पर प्रेस के बन्धन के नियमों के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय और प्रिवी कौसिल में प्रार्थना-पत्र प्रस्तुत किया । उनकी मृत्यु के दो वर्ष पश्चात् सन् 1835 में उनका श्रम फलीभूत हुआ जबकि प्रेस पर से सभी प्रतिबन्धों को हटा दिया गया ।

राजा राममोहनराय कानून और न्याय के क्षेत्र में भी सुधार के पक्ष में थे । वे यह नहीं चाहते थे कि धर्म के आधार पर न्याय किया जाये । इसके साथ ही वे हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई इत्यादि धर्मावलम्बियों के लिए एक समान न्याय के पक्ष में थे ।

वे जमींदारी प्रथा के विरोधी थे क्योंकि उससे धन का संचय केवल कुछ ही व्यक्तियों के हाथों में हो गया था और साधारण कृषक की स्थिति अत्यन्त दयनीय थी । इसके लिए उन्होंने भूमि पर किराया कम करने तथा किसानों द्वारा दिये जाने वाले लगान में कमी करने का अनुरोध किया । इससे उत्पन्न घाटे को पूरा करने के लिए उन्होंने ऐश्वर्य की वस्तुओं पर कर लगाकर अथवा यूरोपियन कलक्टरों के स्थान पर भारतीयों को कम वेतन पर नियुक्त करने की सलाह दी ।

इन सुधारों के अतिरिक्त उन्होंने ब्रिटिश-भारतीय सेना का भारतीयकरण, न्यायपालिका और कार्यपालिका के कार्यों का पृथक्करण और फौजदारी और दीवानी कानूनों के बनाये जाने तथा फारसी भाषा के स्थान पर न्यायालायों में अंग्रेजी के प्रयोग का अनुरोध किया ।

उपरोक्त सुधारों के लिए राजा राममोहन राय ने अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पित कर दिया । उनकी मृत्यु सन् 1833 ई. में ब्रुसेल्स में हुई । धार्मिक आन्दोलन के क्षेत्र में उनका स्थापित किया हुआ ब्रह्म समाज सर्वप्रथम सुधारवादी आन्दोलन था ।

2. ब्रह्म समाज:

राजा राममोहनराय के आन्दोलन के फलस्वरूप 1828 ई. में ब्रह्म समाज की स्थापना हुई उन्होंने सबसे पहले अन्तरावलोकन तथा विश्लेषण के द्वारा हिन्दू धर्म को काफी सीमा तक अन्धविश्वासों से मुक्त कर दिया । राजा जी द्वारा स्थापित सभा में वे सब व्यक्ति एकत्रित हो सकते थे जो कि एक ईश्वर में विश्वास रखते थे और मूर्ति पूजा के विरोधी थे ।

राजा जी ने स्वयं 1830 ई॰ में इस सभा के लिए एक भवन दिया जहाँ कि इस समाज की सभायें होती थीं । यह स्मरणीय है कि राममोहनराय अपने को हिन्दू के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं समझते थे । उन्होंने अन्त समय तक इस आक्षेप का विरोध किया कि उन्होंने किसी नवीन मत की स्थापना की है । उनके द्वारा स्थापित ब्रह्म सभा में प्रति सप्ताह ब्राह्मणों द्वारा वेदों का पाठ होता था उस सभा मण्डल में ब्राह्मण के अतिरिक्त अन्य जाति का व्यक्ति नहीं जा सकता था ।

  1. देवेन्द्रकुमार ठाकुर:

राजा राममोहनराय के इंग्लैण्ड चले जाने और वहीं पर उनकी मृत्यु हो जाने के कारण कुछ समय तक ब्रह्म समाज का कार्य ढीला पड़ गया, परन्तु शीघ्र ही देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने इस सभा को नवजीवन प्रदान किया । इन्होंने एक नियमावली बनाई और इसका सदस्य बनने के लिए एक साधारण उत्सव भी प्रचलित किया ।

इस प्रकार से इस सभा को एक आध्यात्मिक भ्रातृत्व संस्था के रूप में परिवर्तित कर दिया गया । उन्होंने ”तत्वबोधिनी” पत्रिका के द्वारा इनके सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया । इसके अनुसार वेद ब्रह्म समाज के आधारभूत धार्मिक ग्रंथ स्वीकार किये गये ।

  1. केशवचन्द्र सेन और नवीन ब्रह्म समाज:

देवेन्द्रनाथ ठाकुर के साथ-साथ केशवचन्द्र सेन ने भी ब्रह्म समाज को प्रगतिशील बनाया । केशवचन्द्र सेन ईसाई धर्म से अधिक प्रभावित होने के कारण ब्रह्म समाज को ईसाई धर्म के अनुसार चलाना चाहते थे जिसके द्वारा ब्रह्म समाज दो दलों में विभक्त हो गया- (1) आदि ब्रह्म समाज, (2) साधारण ब्रह्म समाज ।

केशवचन्द्र सेन के सहयोगी अन्तर्जातीय विवाह तथा विधवा विवाह के पक्ष में थे और ब्राह्मण पुजारियों द्वारा मंच से उपदेश देने के विरुद्ध थे जिसके फलस्वरूप केशव को देवेन्द्र नाथ ठाकुर ने ब्रह्म समाज से पृथक् कर दिया था । आदि ब्रह्म समाज ने मूर्ति पूजा के स्थान पर केवल एक ईश्वर के सिद्धान्त को अपनाया था, परन्तु वे लोग हिन्दू समाज से पूर्णतया पृथक् नहीं होना चाहते थे ।

इस विभाजन से आदि ब्रह्म समाज ने समाज सुधार के सब कार्यक्रमों को त्याग दिया । डॉ॰ आर. सी. मजूमदार के अनुसार इससे राजा राममोहनराय द्वारा प्रारम्भ किया हुआ सुधार कार्य का युग समाज हुआ और अब सुधार आन्दोलन में नये युग का प्रारम्भ हुआ ।

नवीन ब्रह्म समाज:

केशवचन्द्र सेन द्वारा स्थापित नवीन ब्रह्म समाज ने ही सम्पूर्ण बंगाल और दूसरे प्रान्तों में स्थान-स्थान पर स्थानीय समाजों की स्थापना की । इनमें स्त्रियों को भी सदस्य बनाया गया और साथ ही समाज सुधार के लिए एक साधारण कार्यक्रम तैयार किया गया । केशवचन्द्र सेन प्रचार यात्राओं पर निकले जिससे बम्बई में प्रार्थना समाज और मद्रास में वेद समाज की स्थापना हुई ।

इस समाज के प्रभाव का प्रतिफल यह हुआ कि ब्रिटिश सरकार ने 1872 में एक एक्ट बनाया जिसके द्वारा बाल-विवाह तथा बहु पत्नी प्रथा समाप्त कर दी गई, और अन्तर्जातीय तथा विधवा-विवाहों को कानूनी स्वीकृति हिन्दू और इस्लाम धर्म के अतिरिक्त दूसरे धर्मावलम्बियों को प्रदान कर दी गई ।

इन्होंने इस धर्म के प्रचारार्थ कीर्तन इत्यादि भी प्रारम्भ कर दिया । धीरे-धीरे इस धर्म में गुरु का सम्मान इतना अधिक बढ़ गया कि वह पैगम्बर अथवा अवतार समझा जाने लगा । क्रमशः अवतार रूप में मनुष्य की इस पूजा का बड़ा विरोध हुआ । विरोधी लोग स्त्री शिक्षा के पक्ष में थे और पर्दा प्रथा के तीव्र विरोधी थे ।

1878 ई. में जब केशव की 14 वर्षीय बहन का विवाह कूँच बिहार के राजा से हुआ तो इन प्रगतिवादियों ने एक नवीन ‘साधारण ब्रह्म समाज’ की स्थापना की । शीघ्र ही केशव द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज ने भी इस नवीन साधारण ब्रह्म समाज द्वारा प्रारम्भ किये गये आन्दोलन को स्वीकार किया ।

यह नवीन समाज वैधानिक रास्ते पर चलते हुये सामाजिक सुधार के कार्यक्रम को आगे बढ़ाता रहा । वास्तव में सामाजिक सुधार के क्षेत्र में इसके प्रचार के फलस्वरूप पर्दा प्रथा की समाप्ति, विधवा विवाह का प्रचलन, बहु-विवाह तथा बाल-विवाह की समाप्ति और उच्च शिक्षा के लिए प्रबन्ध आदि भारतीय हिन्दू समाज द्वारा अपनाये जा सके ।

इसके प्रभाव से हिन्दू अन्य लोगों के साथ सामाजिक उत्सवों में सहयोग देने लगे और समुद्र द्वारा विदेशों को यात्रा के लिए जाने लगे । फिर भी, जैसा कि डॉ॰ मजूमदार लिखते है यह आन्दोलन एकेश्वरवाद को लेकर प्रारम्भ हुआ था और इसका मुख्य उद्देश्य मूर्ति पूजा का उन्मूलन था परन्तु अपने दोनों ही आदर्शों में यह सफलता नहीं प्राप्त कर सका ।

3. प्रार्थना समाज:

बंगाल से बाहर दूसरे प्रान्तों में ब्रह्म समाज आन्दोलन ने कुछ भिन्न रूप धारण किया । महाराष्ट्र में यह सबसे अधिक जोर पकड़ गया जहाँ कि एक प्रार्थना समाज की भी स्थापना हुईं ।

ब्रह्म समाज के समान इसके प्रमुख उद्देश्य थे:

(i) विवेकपूर्ण उपासना करना,

(ii) जाति-प्रथा को अस्वीकार करना,

(iii) विधवा विवाह का प्रचार करना,

(iv) स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन देना,

(v) बाल विवाह का बहिष्कार करना,

(vi) अन्य सामाजिक सुधार करना इत्यादि ।

केशवचन्द्र सेन ने 1867 में प्रार्थना समाज का प्रारम्भ किया था । उनके साथ नवीनचन्द्रराय, पी. सी. मजूमदार और महेन्द्रनाथ बोस जैसे प्रसिद्ध ब्रह्म समाजी भी थे । प्रार्थना समाज के अनुयायियों ने कभी भी हिन्दू समाज से बाहर किसी नवीन धर्म की स्थापना का विचार नहीं किया ।

वे भक्ति में विश्वास करते थे और महाराष्ट्र के सन्तों के प्रति भी उनकी गहरी आस्था थी । उनमें विशेष रूप से नामदेव, तुकाराम और रामदास का नाम लिया जा सकता है । प्रार्थना समाज ने विशेष रूप से धार्मिक सुधारों जैसे अन्तर्जातीय सहभोज और अन्तर्जातीय विवाह, विधवा विवाह और स्त्रियों की दशा में सुधार आदि को प्रोत्साहन दिया । इन्होंने पन्ढरपुर में एक अनाथालय की स्थापना की । इन्होंने विदेशी मिशनरियों के तरीके से सुधार कार्य किया ।

  1. महादेव गोविन्द रानाडे:

प्रार्थना सभा की सफलता का मुख्य श्रेय जस्टिस महादेव गोविन्द रानाडे को है । उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन प्रार्थना समाज की उन्नति में लगा दिया । उन्होंने 1861 में विधवा-विवाह संस्था बनाने में सहयोग दिया । उन्हीं के सहयोग से दक्खिन शिक्षा समाज की स्थापना हो सकी थी ।

उनकी प्रतिभा व बुद्धि विलक्षण थी । उन्होंने ही सर्वप्रथम यह सुझाव दिया था कि सुधारकों को सम्पूर्ण मानव के उद्धार का प्रयास करना चाहिये न कि उसके एक पक्षीय सुधार का कार्यक्रम हो । उनके अनुसार धर्म और सामाजिक सुधार पृथक् नहीं किये जा सकते हैं ।

सी. एफ. एन्डज के शब्दों में “सुधारकों में रानाडे, राजाराम मोहन राय और सरसैयद अहमद खाँ के समीप आते हैं परन्तु वह दोनों से रचनात्मक उद्देश्य में बढ्‌कर थे, पाश्चात्य सभ्यता के आधारभूत सिद्धान्तों को भली-भांति समझते थे और भारतीय परिस्थितियों में उनका प्रयोग भी जानते थे ।

प्रार्थना समाज भी ब्रह्म समाज के समान पाश्चात्य विचार एवं विवेकशीलता के प्रभावस्वरूप प्रारम्भ हुआ इसमें प्रतिक्रियावादी तथा उग्र सुधारवादी व्यक्ति शामिल नहीं हुये थे । इस प्रकार के विचारों को जन्म देने वाले आन्दोलन आर्य समाज व रामकृष्ण मिशन थे ।

  1. थियोसोफिकल सोसाइटी:

अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव एवं प्रसार के फलस्वरूप भारतवर्ष में एक ऐसी संस्था की भी स्थापना हुई जिसमें किसी प्रकार की साम्प्रदायिकता नहीं थी । ऐसी संस्था की स्थापना मद्रास के अडयार नामक शहर में हुई ।

इस संस्था का मुख्य उद्देश्य समस्त विश्व के धर्मों की मूलभूत एकता स्थापित करना था । आज भी यह संस्था आध्यात्मिक जीवन के महत्व और विश्व बंधुत्व के सिद्धान्त का प्रचार करती है ।

न्यूयार्क में सर्वप्रथम 1875 ई॰ में एक महिला मैडम ब्लेवेटस्की और कर्नल एल. एस. आलकाट ने इस संस्था की स्थापना की थी । 1893 ई॰ में भारत में आकर डॉ॰ ऐनीबेसेन्ट ने इस संस्था को अनुपम शक्ति दी । इस संस्था ने भारत में हिन्दू धर्म को जागृति की प्रेरणा दी ।

इनका स्थापित किया हुआ वाराणसी का सेंट्रल हिन्दू कालिज विश्वविद्यालय में परिवर्तित हो गया । इस संस्था ने अपनी शाखायें भारतवर्ष के विभिन्न भागों में स्थापित कर उच्च शिक्षा के साथ-साथ वैज्ञानिक हिन्दू धर्म के अध्ययन को भी प्रोत्साहन दिया ।

इसी संस्था ने सर्वप्रथम अछूतों के लिये पाठशालायें निर्माण कर राष्ट्रीय कार्य की ओर दृढ़ कदम उठाये । इस संस्था के प्रचार स्वरूप भारतीयों में नवीन स्फूर्ति अतीत के प्रति श्रद्धा और आत्म-विश्वास की भावना ने जन्म लिया ।

आत्म-विश्वास से आत्म-गौरव का बल मिलता है । थियोसोफिकल सोसायटी ने हिन्दू धर्म की प्राचीन रूढ़ियों विश्वासों और कर्मकाण्ड को वैज्ञानिक स्वरूप में ढालकर प्राचीन भारतीय आदर्शों और परम्पराओं को बल दिया । आज भी भारतवर्ष में इस संस्था के चिह्न विद्यमान हैं ।

4. आर्य समाज:

स्वामी दयानन्द:

आर्य समाज के संस्थापक महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती थे । इनका बचपन का नाम मूलशंकर था । इनका जन्म सन् 1824 ई॰ में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था । यह गुजरात के रहने वाले थे । इनके पिता अम्बाशंकर एक धनी जमींदार थे । पांच वर्ष की आयु से मूलशंकर की पढ़ाई आरम्भ हुईं ।

आठवें वर्ष इनका यज्ञोपवीत् संस्कार हुआ । उसी समय इन्हें ‘गायत्री’ और संध्योपासन विधि सिखाई गई । पिता ही स्वयं इन्हें पढाते थे । यह स्वयं सामवेदी ब्राह्मण थे, इससे मूलशंकर पर शिवमत के संस्कार डाले गये तथा इस मत के अनुसार व्रत रखना और शिव लिंग की पूजा करना भी सिखाया गया । मूलशंकर ने 14 वर्ष की आयु में यजुर्वेद संहिता कण्ठ कर ली थी ।

इसी वर्ष मूलशंकर के पिता ने उनको शिवरात्रि व्रत करने की आज्ञा दी । पहले तो वह इसके लिये तैयार न हुए परन्तु इस व्रत का महाल सुनने पर वह व्रत रखने को तैयार हो गये । व्रत के दिन उन्हें रात्रि जागरण का भी आदेश मिला ।

रात्रि की पूजा के उपरान्त सब लोग ऊंघने लगे परन्तु मूलशंकर अपनी अस्त्रों पर पानी के छोटे दे-देकर जागते रहे । रात्रि के समय शांत वातावरण देख एक चूहा बिल से निकल कर शिव लिंग के चारों ओर घूमने लगा और उस पर पड़ी सामग्री खाने लगा । यह देखकर मूलशंकर की क्या मनोदशा हुई इसका चित्र खींचना अत्यन्त कठिन है ।

सम्भवत: उनके मस्तिष्क में विचार उमड़ रहे थे कि ”मूलशंकर उठ, विद्या पढ़, मेरे ज्ञान को प्राप्त कर वेदों, को ठीक-ठीक पढ़ और मनुष्यों को समझा, कि शिव सारी दुनिया की भलाई चाहने वाला होने से ईश्वर का एक नाम है । लोग दूसरों की भलाई के लिए अपने आराम और धन की भेंट देकर मेरे पूजक हो सकते हैं न कि केवल एक नियत रात्रि में जागरण कर और पाषाण लिंग पर चढ़ावा चढ़ाकर ।”

इस घटना के दो वर्ष पश्चात उनकी बहन की मृत्यु विशूचिका के कारण थोड़े ही समय में हो गईं । जब मूलशंकर की आयु 19 वर्ष की थी उस समय उनके चाचा भी इसी रोग में मृत्यु को प्राप्त हुये जिनका उन पर बहुत प्रभाव पड़ा ।

शास्त्रों के अनुसार 8 वर्ष की आयु में पुत्र को गुरुकुल भेज देना चाहिए । इस विचार को मूलशंकर ने अपने पिता के समक्ष रखा । वह व्याकरण, ज्योतिष और वैद्यक पढ़ने के लिए वाराणसी जाना चाहते थे परन्तु उनके पिता उनका विवाह करना चाहते थे । फिर, उन्होंने अपने ग्राम से 3 कोस दूर एक वृद्ध पंडित से शिक्षा ग्रहण करने की इच्छा प्रकट की ।

21 वर्ष की आयु में उन्हें विवाह बंधन में डालने का पूर्ण प्रबन्ध हो गया । इससे बचने का अन्य कोई उपाय न देखकर उन्होंने गृह त्याग दिया । पिता ने उन्हें ढूँढ निकाला, परन्तु वे रात्रि में फिर बच कर निकल भागे । यह उनकी पिता से अन्तिम भेंट थी ।

ब्रह्मचारी मूलशंकर ने सन्यास आश्रम में प्रवेश किया । इन्होंने विभिन्न स्थानों का भ्रमण किया और वेदाध्ययन करते रहे । यह योगियों से भेंट करने आबू पर्वत भी गये । उसके पश्चात् यह बहुत से स्थानों पर घूमते हुए टीहरी पहुँचे जहाँ कि तंत्रवादियों की पुस्तकें देखकर इन्हें अत्यन्त घृणा हुई वहाँ से यह फिर श्रीनगर और केदार घाटी पहुँचे । यहाँ इन्होंने बहुत काल तक स्वामी विरजानन्द से शिक्षा ग्रहण की ।

आर्य समाज द्वारा समाज सुधार:

अध्ययन समाप्त करने के पश्चात् दयानन्द ने उपदेश देने का कार्य प्रारम्भ किया । अपने विचारों को फैलाने के लिए इन्होंने बम्बई में 1875 ई॰ में आर्य समाज की स्थापना की । इन्होंने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ प्रकाशित किया । इनके सुधार कार्यों की तुलना मार्टिन लूथर से की जा सकती है जिसने यूरोप में कैथोलिक चर्च के विरुद्ध सुधार कार्य का बीड़ा उठाया था ।

स्वामी जी ने हिन्दू धर्म को पवित्र वैदिक आधार पर स्थापित करने का कार्य किया । उनहोंने वेदों का अध्ययन सभी जातियों के लिए उचित बतलाया जिससे कि देश को जाति प्रथा से मुक्ति मिल सके । ऋषि दयानन्द द्वारा प्रस्तुत किया गया यह दृष्टिकोण कि वेद सम्पूर्ण ज्ञान का भण्डार है, अत्यधिक आलोचना का विषय बन गया । परन्तु धीरे-धीरे उनके इस मत में विद्वानों को बहुत कुछ सार दृष्टिगोचर हुआ ।

श्री अरविन्द ने लिखा है कि- “ऋषि दयानन्द की इस विचारधारा में कोई ऊटपटाँग बात नहीं है कि वेद में विज्ञान तथा धर्म दोनों के सत्य निहित हैं । मेरा तो यहाँ तक विश्वास है कि वेद में विज्ञान के वे सत्य भी निहित हैं जो आधुनिक विश्व के पास बिल्कुल नहीं हैं और इसीलिये दयानन्द ने वैदिक ज्ञान की गहराई के विषय में अधिक नहीं बल्कि कम ही कहा है ।”

स्वामी जी ने अनेकेश्वरवाद, मूर्तिपूजा, अवतारवाद, जाति प्रतिबन्ध, रूढ़िवादिता, अशिक्षा, पर्दा-प्रथा, छुआछूत तथा समुद्र यात्रा निषेध के विरुद्ध उपदेश दिये । वे विधवा-विवाह तथा स्त्री-शिक्षा के पक्ष में थे । उन्होंने ही सबसे पहले शुद्धि आन्दोलन प्रारम्भ किया जिससे कि दूसरे धर्म में परिवर्तित हिन्दुओं को वापस हिन्दू समाज में लिया जा सके ।

उन्होंने हिन्दी भाषा के प्रसार में अत्यधिक योग दिया वे प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने सम्पूर्ण भारत के लिए हिन्दी भाषा का प्रचार आवश्यक बतलाया था । उन्होंने बड़ी दृढ़ता से हिदुओं को अपने प्राचीन धर्म, गौरव और आदर्श का स्मरण दिलाया । इसके साथ ही उन्होंने अपने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नामक ग्रंथ में स्वधर्म स्वभाषा व स्वदेश की भावना को प्रोत्साहित किया ।

यह उनके इस उपदेश का ही फल था कि कालान्तर में भारतवासियों ने स्वराज्य के लिए कार्य करना प्रारम्भ किया । श्री अरविंद घोष के शब्दों में स्वामी जी, परमात्मा की इस विचित्र सृष्टि के एक अद्वितीय योद्धा तथा मनुष्य और मानवीय संस्थाओं का संस्कार करने वाले अद्‌भुत शिल्पी थे ।

प्रारम्भ में वह ब्रह्म समाज के साथ समझौता करना चाहते थे और इसी विचार से 1869 ई॰ में कलकत्ते में एक सभा में भाग लेने गये । परन्तु इसका कोई निष्कर्ष नहीं निकला । कालांतर में उनके द्वारा स्थापित किये हुए आर्य समाज की शाखायें सम्पूर्ण पंजाब, उत्तर प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र और अन्य स्थानों में फैल गई जिससे कि ब्रह्मसमाज का प्रभाव लुप्त प्रायः हो गया ।

स्वामी दयानन्द जी की मृत्यु सर 1883 ई में दूसरे धर्मावलम्बियों के द्वारा दूध में काँच मिलाकर पिलाया जाने के कारण हो गई । उनके कार्य को उनके शिष्य लाला हंसराज, पंडित गुरुदत्त, लाला लाजपतराय और स्वामी श्रद्धानन्द आदि ने आगे बढ़ाया ।

आर्य समाज ने स्थान-स्थान पर स्कूल और कालिज प्रारम्भ किये जिनमें कि कुछ अंश तक वैदिक शिक्षा भी दी जाती है । 1902 ई॰ में हरिद्वार में गुरुकुल की स्थापना की गई जो कि वर्तमान समय में विश्वविद्यालय के रूप में वैदिक आदर्शों का जीवित स्तम्भ है ।

सामान्य रूप से स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज के निम्नलिखित 10 सिद्धान्त बतलाये हैं:

(1) सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सबका आदि मूल परमेश्वर है ।

(2) ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप, निराकर, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु अजन्मा, अनन्त, निर्विकार अनादि अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्त्ता है । उसी की उपासना करना उचित है ।

(3) वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है । वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है ।

(4) सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छेड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये ।

(5) सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहियें ।

(6) संसार का उपकार करना अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है ।

(7) सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य बरतना चाहिये ।

(8) अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये ।

(9) प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिये, किन्तु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये ।

(10) सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिये और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र रहें ।

इस प्रकार आर्य समाज ने मूर्ति-पूजा का खण्डन कर हिन्दू समाज को पतन से बचा लिया । ईसाई मिशनरियों के चुंगल से गरीब और पददलित जातियों को बचाने का मुख्य श्रेय आर्य समाज को ही है । यह समाज आज भी भारतीय सभ्यता के उत्थान में निरन्तर योगदान कर रहा है ।

5. राधास्वामी मत:

10वीं शताब्दी के धार्मिक आन्दोलन में राधास्वामी सत्संग का भी योगदान है । इस मत के प्रवर्त्तक राधास्वामी थे जिनके नाम पर इस मत का प्रचार हुआ । यह अपने को सन्त सतगुरु भी कहते थे । इस मत ने गुरु का महत्व सबसे अधिक माना जाता है वास्तव में सच्चा पथ-प्रदर्शक समझा जाता है । इनके दूसरे गुरु ने ‘राधास्वामी मत प्रकाश’ नामक पुस्तक का प्रकाशन किया ।

उनके अनुसार, ‘राधास्वामी’ शब्द मौलिक आत्मा का प्रतीक है । इनके समय में भी गुरु की महत्ता बड़ी और यह प्रचार किया गया कि मोक्ष की प्राप्ति गुरु की सहायता से ही हो सकती है । गुरु द्वारा बतलाये गये प्रगति के साधन को ‘सुरत शब्द योग’ के द्वारा प्रतिपादित किया गया ।

इसी को निरन्तर प्रयोग करने से मोक्ष की प्राप्ति का द्वार खुल सकता है । ‘सुरत’ शब्द का अर्थ है मानव, आत्मा, ‘शब्द’ का अर्थ है दैवी आत्मा और योग से तात्पर्य है पहले बताई गई दोनों आत्माओं का मिलन । इस मत के अनुयायियों द्वारा किसी भी मादक द्रव्य का सेवन और मांसाहार नहीं किया जा सकता ।

राधास्वामी मत के प्रथम गुरु शिवदयाल साहब का जन्म एक क्षत्रिय परिवार में 1818 ई. में हुआ था । उन्होंने सन् 1861 ई. में सार्वजनिक रूप से अपने सिद्धान्तों की घोषणा की थी । यह आगरे के निवासी थे और वहीं से इन्होंने अपने कार्य को प्रारम्भ किया । आज राधास्वामी संस्थाएँ उत्तरी भारत के विभिन्न भागों में स्थापित हैं । शिवदयाल साहब की मृत्यु सन् 1878 ई. में हुई । इनकी समाधि आज भी राधास्वामी वाटिका में विद्यमान है ।

इस मत के दूसरे गुरु राय सालिगराम सहाय हुये । इनका जन्म 1828 ई. में एक कायस्थ परिवार में हुआ था । ये उत्तर प्रदेश के पोस्ट मास्टर जनरल थे । पहले गुरु की मृत्यु के पश्चात् 1878 ई. में ये इस सम्प्रदाय के गुरु बन गये । इनके समय में इस मत का अधिक प्रसार हुआ इन्होंने बहुत सी पुस्तकें भी लिखी ।

इस मत के तीसरे गुरु ब्रह्मशंकर मिश्र थे । इनका जन्म 1861 ई. में हुआ था । इन्होंने कलकत्ता में एम. ए. तक शिक्षा प्राप्त की थी । बाद में ये दयाल बाग में आकर बस गये थे और यहाँ रहते हुये इन्होंने इस मत के लिये बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य किया ।

1898 ई. में द्वितीय गुरु की मृत्यु होने के पश्चात् ये गुरु बन गये और ‘महाराज साहब’ की उपाधि धारण की । इन्होंने सत्संग का एक विधान भी बनाया और उसमें एक केन्द्रीय व्यवस्थापिका समिति के निर्माण का नियम बनाया । इस प्रकार से दयाल बाग समस्त देश की राधास्वामी सभाओं का केन्द्र स्थान बन गया । इनकी मृत्यु 1907 ई. में हो गई ।

इनकी मृत्यु के पश्चात राधास्वामी मत में कुछ फूट के लक्षण दिखाई पड़े परन्तु आज भी श्री आनन्द स्वरूप जी के प्रयासों के फलस्वरूप दयाल बाग ही इसका केन्द्र स्थान बना हुआ है । दयाल बाग में बहुत से सुधार कार्यों के अतिरिक्त सत्संगियों को आर्थिक सहयोग भी प्राप्त होता है ।

इन्होंने वहाँ रहने के लिये समुचित मकान इत्यादि बनवाये हैं जहाँ गृहहीन और असहाय मतावलम्बियों को सहायता देने का भी प्रबन्ध है । यहाँ पर इनके अपने स्कूल व कालिज हैं जिनमें विविध विषयों में शिक्षा दी जाती है । इन्होंने एक इंजीनियर कालिज की भी स्थापना की ।

इससे पता चलता है कि ये वर्तमान प्रगति के साथ-साथ चलना चाहते हैं । इनके मत में किसी भी प्रकार के जातिगत नियमों का बन्धन नहीं है । जहाँ तक इनके सिद्धान्तों का सम्बन्ध है वे गुप्त रूप से गुरु के द्वारा सत्संगी को बतलाये जाते हैं । यह मत मुख्यतः भक्ति से सम्बन्धित है, इसमें हिन्दू धर्म को नहीं छोड़ना पड़ता ।

इस मत के अनुयायियों को दान-धर्म के कार्य करने होते है और सदैव-सेवा भाव तथा प्रार्थना में रत रहने का उपदेश दिया जाता है । इसमें किसी प्रकार का हठयोग नहीं है और न ही इसमें गूढ़ उपदेश हैं । इसके अनुयायियों की दानशीलता के कारण इसके प्रचार कार्य में बहुत अधिक सहायता मिली । आज के युग में यह मत भारतवासियों में त्याग की भावना उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है ।

6. रामकृष्ण मिशन:

रामकृष्ण परमहंस द्वारा स्थापित मिशन एक आध्यात्मिक आन्दोलन था । इस आन्दोलन को 18-19 वीं सदी में चल रहे दूसरे आन्दोलनों के वर्ग में रखना अनुचित होगा क्योंकि इन्होंने कोई पृथक सिद्धान्तों का प्रतिपादन नहीं किया ।

यह एक प्रकार स हिन्दू धम के ही अन्दर सुधार करने का एक प्रयास कहा जा सकता है । यह आत्म ज्ञान अथवा ईश्वरीय प्रेरणा से ओतप्रोत था । रामकृष्ण के द्वारा स्थापित मिशन के उद्देश्यों एवं शिक्षाओं का ज्ञान करने से पूर्व उनके जीवन का अध्ययन आवश्यक है ।

रामकृष्ण:

रामकृष्ण परमहंस का जन्म 18 फरवरी, 1835 ई. में हुगली के समीप कामारपुकुर ग्राम में हुआ था । इनका बाल्यकाल का नाम गजाधर था । बचपन से ही उनके विचारों में कल्पना शक्ति का अत्यधिक पुट था । इन्हें संगीत और कविता में अत्यधिक रुचि थी । कभी-कभी यह स्वयं धार्मिक नाटकों में अभिनय करते थे ।

शिव का अभिनय करते समय इन्हें परमानन्द की अनुभूति होती थी । इसी प्रकार से विशालाक्षी देवी अथवा किसी देवता की पूजा करते समय भी वे समाधिस्थ हो जाते थे । जिस समय इनकी आयु केवल 9 वर्ष की थी उसी समय से ही इन्हें पारिवारिक पूजा का भार सम्भालना पड़ा । उस समय के ब्राह्मण कुलों में पूजा का आडम्बर अत्यधिक था ।

सन् 1856 ई. में ये कलकत्ते के दक्षिणेश्वर काली मन्दिर के मुख्य पुजारी बन गये थे और वहीं पर मृत्युपर्यन्त रहे । इस मन्दिर में एक कृष्ण मन्दिर था और शेष 12 मन्दिरों में शिव की मूर्ति थी । रामकृष्ण स्वयं काली के मन्दिर की देखभाल करते थे । यही इनकी इष्ट देवी थी । इसी के ध्यान और योग में ये निरन्तर अपना समय व्यतीत करते थे ।

कहा जाता है कि इन्होंने कितनी ही बार काली से साक्षात्कार किया एक समय तो यह दो दिन तक अचेत अवस्था में रहे । कहा जाता है कि इनकी आत्मिक शक्ति इतनी अधिक बढ़ गई थी कि इन्होंने अपनी इच्छानुसार राम और कृष्ण के भी दर्शन किये ।

1859 ई. में यह कुछ समय के लिये अपने गाँव चले गये और वहाँ उनका विवाह हो गया । परन्तु यह पुन: दक्षिणेश्वर मन्दिर में वापस चले आए । यहां आने पर ये वैष्णव धर्म, अद्वैतवाद, इस्लाम, ईसाई और बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों को नियम से प्रयोग में लाये, जिसके फलस्वरूप वे स्वयं रहस्यदर्शी बन गये । जो लोग इनके पास शिक्षा ग्रहण करने जाते थे उनको वह अपने उपदेशों से मोह लेते थे । इन्होंने कहानियों के माध्यम से दर्शनों की व्याख्या की ।

यह जीवमात्र में ईश्वर मानते थे और उसकी सेवा को ईश्वर सेवा मानते थे । इस प्रकार सारांश में इनका सिद्धान्त था ‘पीड़ित मानव की सेवा के द्वारा ईश्वर की उपासना करना’ इनके सन्देश को स्वामी विवेकानन्द ने सम्पूर्ण संसार में फैलाया । रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु 15 अगस्त, 1886 ई. में हो गई ।

इनके मुख्य सिद्धान्त थे:

(1) ईश्वर को समझना,

(2) ईश्वर के प्रति भक्ति अर्थात् मानव के प्रति भक्ति,

(3) पवित्रता,

(4) साधुता,

(5) निस्वार्थता,

(6) मानव प्रेम,

(7) नम्रता ।

सारांश में इनका धर्म सबको सम्मिलित करने वाली आध्यात्मिकता थी । रामकृष्ण परमहंस के मुख्य शिष्य विवेकानन्द थे । सर्वप्रथम सन् 1881 ई. में रामकृष्ण से इनकी भेंट हुई थी । विवेकानन्द ने सबसे पहले एक ही प्रश्न रामकृष्ण से किया था- ”क्या आपने ईश्वर को देखा है ?” श्री रामकृष्ण ने तत्काल उत्तर दिया- ”हाँ मैं ईश्वर को ठीक वैसे ही देखता हूँ जैसा कि तुम्हें यहाँ पर देख रहा हूँ ।”

उन्होंने आगे कहा- “ईश्वर पहचाना जा सकता है, मनुष्य उसे वैसे ही देख सकता है और उसके साथ बातचीत कर सकता है, जैसे कि मैं तुम्हारे साथ कर रहा हूँ । परन्तु ऐसा करने की कौन परवाह करता है । लोग अपने स्त्री-बच्चों, धन-सम्पत्ति के लिये आंसुओं की धार बांध देते है, परन्तु ईश्वर के लिये कौन ऐसा कर सकता है । यदि कोई मनुष्य सचमुच उसके लिये रोता या विलाप करता है तो ईश्वर निश्चय ही प्रकट हो जाता है ।”

इस वार्तालाप का नरेन्द्रनाथ (विवेकानन्द) पर बड़ा प्रभाव पड़ा । यह बहुत जल्द ही आध्यात्मिकता के “साधक” बन गये । अपने गुरु की मृत्यु के पश्चात् उन्होंने 1886 ई. में “रामकृष्ण मिशन” की स्थापना की । बहुत से लोग इस संस्था के सदस्य बन गये । विवेकानन्द अपने बहुत से साथियों के साथ भ्रमण के लिये बहुत से स्थानों को गये ।

इनके भाषण और तेज से प्रभावित होकर बहुत से राजकुमार भी इस संस्था के सदस्य बन गये । अपने प्रशंसकों की सहायता से यह शिकागो में होने वाली विश्व धर्म गोष्ठी में भाग लेने गये । वहाँ पर बड़ी कठिनाई से एक प्राध्यापक की सहायता से इन्हें गोष्ठी में भाग लेने की अनुमति मिल सकी । पाश्चात्य दार्शनिक इनके भाषण से मन्त्रमुग्ध हो गये ।

विश्वधर्म परिषद् में इन्होंने घोषणा की कि वेदान्त सभी का धर्म है । इन्होंने यूरोप व अमेरिका में भारत के दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हुये समस्त धर्मों की मूलभूत एकता, वेदान्त की महत्ता और धर्म में समन्वय की आवश्यकता पर उपदेश दिये । विवेकानन्द में उच्च राष्ट्रवादिता और आध्यात्मिकता थी । इनका विश्वास था कि वर्तमान समाज आध्यात्मिक शिक्षा से ही उन्नति कर सकता है और वह कार्य केवल भारत कर सकता है ।

इस प्रकार इन्होंने निर्भीक होकर भारत के बाहर विदेशों में भारतीय संस्कृति को दूसरी संस्कृतियों से उच्च बतलाने कार्य किया । इससे भारतीय जन जीवन को एक ऐसा सम्बल मिला जिससे अपनी सभ्यता को हेय समझने की भावना नष्ट होने लगी ।

सर वेलेन्टाइन कीरोल के शब्दों में- “विवेकानन्द पहले हिन्दू थे जिनके व्यक्तित्व से विदेशों में प्राचीन भारतीय सभ्यता और नवीन राष्ट्रीयता की विचारधारा को मान्यता प्राप्त हुई ।” इनके ही प्रयत्नों के फलस्वरूप भारत के विभिन्न भागों में रामकृष्ण मिशन की शाखायें हैं जिनके द्वारा मिशन परोपकारिता के दिव्य कार्य और देश हितकारी साधनों से समाज सेवा कर रहा है । बहुत से स्थानों पर इस मिशन के अस्पताल, अनाथालय, आश्रम और विद्यालय एवं वाचनालय हैं ।

7. मुस्लिम समाज सुधार आन्दोलन:

अंग्रेजों के आगमन के साथ-साथ ही भारतवर्ष में मुस्लिमों की शासन सत्ता लुप्त हो गई थी । अंग्रेजी राज्य में मुसलमानों को उच्च पद नहीं प्रदान किये गए और अंग्रेजों की व्यापारिक नीति के फलस्वरूप उनके कला कौशल भी समाप्त हो गए ।

आर्थिक व सामाजिक दशा के कारण ही मुसलमान अंग्रेजी शिक्षा से भी अछूते रहे । इस समय तक मुस्लिम समाज में अनेक कुप्रथायें भी प्रविष्ट हो चुकी थीं । जैसे बाल-विवाह, पर्दा-प्रथा, बहुविवाह इत्यादि । वर्तमान युग का प्रभाव मुस्लिम समाज पर भी पड़ा ।

19वीं शताब्दी में अरब की ही भांति भारत में भी मुस्लिम सुधार आरम्भ हुआ, इस सुधारवादी आन्दोलन के संचालक शाहअब्दुल अजीज, सैयद बरेलवी, शेख करामतअली व हाजी सरायतुल्ला थे । सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का श्रेय सैयद-अहमद बरेलवी को दिया जाता है । इन्होंने ईश्वर की एकता पर पुन: बल दिया तथा प्रत्येक मुसलमान को इस्लाम धर्म की व्याख्या करने का अधिकार दिया और सन्त पूजा का विरोध किया ।

ये भारत को दारूलहर्म (युद्ध का घर) कहते थे और गैर मुसलमानों के विरुद्ध धार्मिक युद्ध करने का आदेश देते थे । इसके अलावा यह पाश्चात्य शिक्षा व संस्थाओं के भी पक्ष में नहीं थे । इन सब बातों से इन्होंने भारत में साम्प्रदायिकता का बीजारोपण किया ।

शेख करामत अली ने भारतीय मुसलमानों को पाश्चात्य शिक्षा और विचारों को ग्रहण करने को कहा था । 19वीं शताब्दी के आखिरी वर्षों में मिर्जा गुलाम अहमद ने अहमदिया आन्दोलन चलाया इन्होंने अपने को अल्लाह का पैगम्बर तथा फिर से विशुद्ध इस्लाम की स्थापना करने वाला बतलाया ।

इस आन्दोलन का ध्येय यह था कि कुरान की आज्ञाओं का आध्यात्मिक तथा नैतिक दृष्टि से पालन किया जाये । इसने ‘जिहाद’ (धर्म युद्ध) पर बल नहीं दिया इसके अलावा पर्दा प्रथा तलाक तथा बहुविवाह प्रथा को ठीक माना । सन 1914 में लाहौरी दल सम्मुख आया जिन्होंने मिर्जा गुलाम अहमद को सुधारक रूप में स्थान दिया ।

इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण आन्दोलन सर सैयद अहमद खाँ (1817-1898) और मौलवी चिरागअली (1844-1895) द्वारा चलाया गया । सर सैयद अहमद खाँ ने बुद्धिवाद, आधुनिक विज्ञान तथा पाश्चात्य शिक्षा पर बल देकर मुसलमानों के धार्मिक, सामाजिक व शिक्षात्मक विचारों को नया मोड़ दिया ।

इन्होंने पर्दा प्रथा का विरोध किया व स्त्री शिक्षा पर जोर दिया । इनका विचार था कि मुसलमानों की उन्नति के लिए पाश्चात्य विज्ञान तथा शिक्षा आवश्यक है । अतः शिक्षा प्रसार हेतु इन्होंने अलीगढ़ में मोहमेडन-एंग्लो-ओरियन्ट कालिज की नींव रखी जो मुस्लिम विश्वविद्यालय के नाम से पुकारा जाता है ।

सर सैयद अहमद खाँ कुरान के टीकाकार के साथ-साथ पत्रकार और उर्दू गद्य के प्रसिद्ध लेखक थे । उन्होंने स्वयं ही ‘तहजीबुल अखलाक’ नामक पत्रिका का संचालन किया । पानीपत के ख्वाजा अफ्ताफ हुसैनहाली, बिजनौर के मौलवी नजीर अहमद, आजमगढ़ के मौलवी शिबलीनुमानी ने सर सैयद अहमद खाँ की अत्यधिक सहायता की थी ।

मोलवी चिरागअली ने मुसलमानों को चरित्र तथा रीति-रिवाजों की उन्नति का उपदेश दिया । इसके साथ ही इन्होंने बहुविवाह, बाल-विवाह तथा पर्दे का विरोध किया । इसके अलावा उर्दू के प्रसिद्ध कवि इकबाल, लखनऊ के शेख अब्दुल हलीम तथा सैयद अकबर हुसैन ने भी सहयोग दिया । इतना होते हुए भी मुसलमानों की प्रगति धीमी ही रही ।

20वीं शताब्दी में मुस्लिम लीग के निर्माण एवं मुहम्मद अली जिन्ना के प्रयत्नों के फलस्वरूप मुसलमानों में राजनैतिक चेतना दृष्टिगोचर हुई । परन्तु इस राजनैतिक चेतना का प्रभाव एक अभिशाप के रूप में सम्मुख आया जिसके कारण कटु साम्प्रदायिकता फैली और देश भारत और पाकिस्तान नामक दो राष्ट्रों में विभाजित हो गया ।

सुधार आन्दोलनों के परिणाम:

भारतवर्ष में पीछे बतलाये गये सामाजिक और धार्मिक सुधार आन्दोलनों के परिणामस्वरूप व्यापक परिवर्तन दिखलाई पड़े है । धर्म सुधार आन्दोलनों से धर्म के क्षेत्र में अनेक अविश्वास दूर हुए और विभिन्न धर्मों के प्रति आदर की भावना उत्पन्न हुई । भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा आर्य समाज और रामकृष्ण मिशन ने देश में राष्ट्रीयता की भावना का प्रचार किया ।

विभिन्न आन्दोलनों के समर्थकों ने राष्ट्रीय शिक्षा संस्थाओं की स्थापना की । सती प्रथा, पर्दा प्रथा, बाल-विवाह प्रथा, मद्यपान, अस्पृष्यता, दहेज प्रथा आदि कुप्रथाओं को दूर करने की दिशा में महत्वपूर्ण सुधार हुआ । स्त्रियों और पिछड़े वर्गों की सामाजिक स्थिति में सुधार हुआ और वे समाज के अन्य वर्गों के समकक्ष आने लगे ।

ये आन्दोलन अपने उद्देश्यों को पूरी तरह प्राप्त नहीं कर सके क्योंकि इनमें से बहुत कम के पास पर्याप्त साधन थे फिर भी इन्होंने जिस प्रक्रिया को आरम्भ किया वह प्रक्रिया देश को स्वतन्त्रता मिलने के बाद राष्ट्रीय सरकार के सहयोग और प्रयासों से आगे बढ रही है इसमें जनता का सहयोग मिल जाने से निश्चय ही वे उद्देश्य प्राप्त हो सकेंगे जिनको पूरा करने के लिए सामाजिक और धार्मिक सुधार आन्दोलनों का जन्म हुआ था ।

 

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