महात्मा गांधी का व्यक्तित्व और कृतित्व आदर्शवादी रहा है। उनका आचरण प्रयोजनवादी विचारधारा से ओतप्रोत था। विश्व के अधिकांश लोग उन्हें महान राजनीतिज्ञ एवं समाज सुधारक के रूप में जानते हैं, परन्तु उनका यह मानना था कि सामाजिक उन्नति हेतु शिक्षा का एक महत्वपूर्ण योगदान होता है। गांधीजी का शिक्षा के क्षेत्र में भी विशेष योगदान रहा है। उनका मूल मंत्र था- शोषण-विहीन समाज की स्थापना करना। उसके लिये सभी को शिक्षित होना चाहिए। क्योंकि शिक्षा के अभाव में एक स्वस्थ समाज का निर्माण असंभव है। उन्होनें अपने शिक्षा दर्शन में मनुष्य को एकादश व्रत (सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्वाद, अस्तेय, अपरिग्रह, अभय, अस्पृश्यता निवारण, कायिक श्रम, सर्वधर्म समभाव और विनम्रता) पालन की ओर प्रवृत्त करने पर बल दिया।

महात्मा गाँधी का शैक्षिक दर्शन / शिक्षा दर्शन

महात्मा गाँधी भारत के एक महान विचारक, समाज सुधारक तथा शिक्षाविद थे। उनका शिक्षा दर्शन सत्य, अहिंसा तथा सत्याग्रह पर आधारित है। शिक्षा की उनकी लोकप्रिय परिभाषा अर्थात् “शिक्षा से मेरा अभिप्राय बच्चे के शरीर, मस्तिष्क एवं आत्मा का उत्तम रूप से सर्वांगीण विकास करना है”, मानव व्यक्तित्व के संपूर्ण विकास को सूचित करता है : शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक विकास। महात्मा गाँधी के अनुसार, सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह, निर्भयता, विश्वास, मानवता आदि जैसे मूल्य किसी भी व्यक्ति के जीवन के आधार हैं। उनकी बुनियादी शिक्षा, शिल्प आधारित शिक्षा, नैतिक एवं मूल्य शिक्षा की अवधारणा का वर्तमान शिक्षा व्यवस्था पर महान प्रभाव है।

शिक्षा से तात्पर्य

वे केवल साक्षरता को शिक्षा नहीं मानते थे। उनके अनुसार, साक्षरता न तो शिक्षा का अन्त है न प्रारंभ। यह केवल एक साधन है जिसके द्वारा पुरुष और स्त्रियों को शिक्षित किया जा सकता है। गांधीजी के अनुसार, शिक्षा से मेरा तात्पर्य एक ऐसी प्रणाली से है जो बालक एवं मनुष्य की समस्त प्रतिभाओं, जिसमें शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक भी सम्मिलित है, का विकास करें।

शिक्षा के उद्देश्य

गांधीजी का स्पष्ट प्रभाव उनके शैक्षिक उद्देश्यों पर परिलक्षित होता है।

  1. शिक्षा ऐसी हो जो छात्रों को शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर बना सके।
  2. शिक्षा द्वारा छात्रों में सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना का विकास किया जाना चाहिए।
  3. बालकों में ऐसी भावना का विकास करे जिससे बालक अच्छे-बुरे, नैतिक-अनैतिक, करणीय-अकरणीय, त्याज्य एवं ग्रहणीय तथ्यों के मध्य अंतर कर सके।
  4. शिक्षा द्वारा छात्रों में अनुशासित स्वतंत्रता की भावना विकसित की जाये। ‘सा विद्या या विमुक्तये’ इस विचारधारा का गांधीजी पूरा समर्थन करते है। किंतु वे मुक्त स्वतंत्रता के पक्षपाती नही थे।

शिक्षा प्रणाली

महात्मा गांधी नें पाठ्यचर्या में हस्तकौशल एवं उद्योग को सर्वप्रमुख स्थान दिया। इसके बाद क्रमश: मातृभाषा, व्यावहारिक गणित, सामाजिक विषय, सामान्य विज्ञान, संगीत, चित्रकला, स्वास्थ्य विज्ञान और आचरण शिक्षा को रखा। शिक्षण विधि के अंतर्गत उन्होनें करके सीखना, अनुभव द्वारा सीखना एवं समन्वित ज्ञान के लिये सहसंबंध विधि को सर्वोत्तम माना। 

बुनियादी शिक्षा : नई तालीम

सन् 1937 में गांधीजी ने वर्धा में हो रहे ‘अखिल भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन’ जिसे वर्धा शिक्षा सम्मेलन कहा जाता है में नई तालीम के नाम से एक जीवन दर्शन तथा शिक्षा पद्धति देश के समक्ष प्रस्तुत की, जो अहिंसक, समतामूलक, न्यायाधिष्ठित समाज निर्माण का उद्देश्य रखती है।

महात्मा गांधी ने जीवनभर शिक्षा के क्षैत्र में अनेक प्रयोग किए। उन्होनें स्वयं के द्वारा प्रवर्तित शिक्षा को ‘नई तालीम’ नाम दिया। गांधीजी का यह स्पष्ट मानना था कि किसी भी प्रकार का परिवर्तन लाने के लिए शिक्षा में परिवर्तन आवश्यक है। इसीलिए अहिंसक सामाजिक क्रांति के लिये नई तालीम एक अमोघ एवं अचूक शस्त्र है। उनकी इस शिक्षा योजना के पीछे स्वयं उनके जीवन के अनुभव है। अपनी शिक्षा में गांधीजी ने ‘आत्मा’ के विकास का आधार ‘सत्य’, ‘सामाजिक व्यवस्था’ का आधार ‘अहिंसा’ और ‘आर्थिक ढांचे’ का आधार ‘अपरिग्रह’ को माना। कर्म केन्द्रित शिक्षा व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के साथ ही उसे एक समाजोपयोगी प्राणी भी बनाती है।

अपने अध्ययनकाल के दौरान ही गांधीजी ने वर्तमान शिक्षा प्रणाली की कमियों व इसकी निरर्थकता को गंभीरता से महसूस किया था। इसी समय से उनका यह निश्चित मत हो गया था कि शिक्षा यदि नैतिकता नहीं सिखाती तो वह शिक्षा ही नहीं है। इसके साथ ही विद्याभ्यास में शारीरिक शिक्षा का समान स्थान होना चाहिए। स्कूली शिक्षा में धर्म की शिक्षा का अभाव उन्हें हमेशा ही खटकता रहा। लन्दन में कानून का अध्ययन करते हुए गांधीजी ने यह अनुभव किया कि वास्तविक शिक्षण तो स्वाध्याय या स्व-शिक्षण से ही प्राप्त किया जा सकता है।

जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं है जो शिक्षा से संबंधित न हो। इसीलिये गांधीजी ने आहार-विज्ञान, प्राकृतिक चिकित्सा, स्वच्छता व स्वास्थ्य से संबंधित विषयों का गंभीरता से अध्ययन किया तथा खाना बनाना, कपड़े धोना, प्रेस करना, सफाई व अन्य दूसरे गृह-कार्य इत्यादि को भी सीखा।

कानून की पढ़ाई पूरी करने के बाद गांधीजी ने यह अनुभव किया कि वर्तमान शिक्षा का व्यवहार से कोई संबंध नही है और शिक्षा का संबंध काम से न हो तो यह शिक्षा बेकार है। इसलिये शिक्षा में व्यवहार के ज्ञान का तत्व अनिवार्य रूप से होना चाहिए। शिक्षा का उद्देश्य पैसा कमाना या केरियर बनाना नहीं, बल्कि अच्छा बनना और देशसेवा करना है। फीनिक्स आश्रम में उन्होनें तीन घण्टे पढ़ाई, दो घण्टे खेती का काम, दो घण्टे इंडियन ओपीनियन समाचार पत्र में काम अपनी दिनचर्या का हिस्सा बनाया। टॉलस्टॉय आश्रम की पाठशाला में गांधीजी ने शिक्षा में उद्योग को शामिल किया। 

 

गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने गांधीजी की नयी तालीम को देखकर कहा था, ‘‘इसमें स्वराज की चाबी मौजूद है।’’ साबरमती आश्रम में गांधीजी ने विधिवत् पाठशाला प्रारंभ की। जहां समस्त   शिक्षण मातृभाषा में देना, विद्यार्थियों को स्वावलंबी बनाना, सभी विषयों का ज्ञान देना शामिल था। उन्होनें अनुभव किया कि शुद्ध शिक्षा के बिना राजनैतिक क्षैत्र में भी स्वराज की दिशा में किए गए सब प्रयत्न व्यर्थ होंगे।

1937 में गांधीजी ने नई तालीम के नाम से जिस उद्योग केन्द्रित स्वावलंबी शिक्षा का प्रारूप देश के समक्ष रखा, उस संदर्भ में उनका कहना है कि शिक्षा का माध्यम ही किसी उद्योग को बनाना चाहिए और चुने हुए उद्योग के माध्यम से सभी विषयों की शिक्षा देनी चाहिए। शारीरिक श्रम द्वारा बच्चों का मानसिक विकास होना चाहिए और शारीरिक श्रम की शिक्षा महज इसलिये नही दी जाएगी कि बच्चे स्कूल के संग्रहालयों के लिए चीजें तैयार करें अथवा ऐसे खिलौने बनाए जिनकी कोई कीमत ही न हो। शारीरिक श्रम द्वारा ऐसी चीजों का उत्पादन होना चाहिए जो बाजार में बिक सकती हो। 

 

नई तालीम के संबंध में 14 दिसंबर 1947 को अपनी अंतिम चर्चा में गांधीजी ने कहा था, ‘‘नई तालीम जीवनभर जारी रहनी चाहिए। इसका क्षैत्र गर्भाधान से अंतिम संस्कार तक है। सामान्यत: यह माना जाता है कि बुनियादी शिक्षा उद्योग द्वारा शिक्षण देना है। यह एक हद तक सही है परन्तु यह संपूर्ण सत्य नहीं है। नई तालीम की जडं़े और गहरी जाती है। यह तो व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में सत्य-अहिंसा के आधार पर टिकी है। सच्चा शिक्षण वह है जो व्यक्ति को सच्ची स्वतंत्रता दिलाये।’’

गांधीजी की बुनियादी शिक्षा की आज भी आवश्यकता है क्योंकि आज विश्व में जो विनाश ओर तबाही फैल रही है वह मनुष्यों में मानवता की कमी के कारण बढ़ती जा रही है। गांधीजी ने क्रिया द्वारा सीखने पर बल दिया जो आज भी उतना ही आवश्यक है क्योंकि स्वयं करके सीखा हुआ ज्ञान स्थायी होता है, जो प्रत्येक क्षैत्र के लिये आवश्यक है। गांधीजी ने शारीरिक श्रम का सम्मान किया। उनके अनुसार मनुष्य को अपना कार्य स्वयं करना चाहिए। किसी पर निर्भर नहीं होना चाहिए। जो काम का आदर करेगा वही उत्पादन कार्य से जुड़ सकता है।

 

संदर्भ – 

  1. नारायण डॉ. इकबाल, ‘‘आधुनिक राजनीतिक विचारधाराएँ’’, ग्रन्थ विकास, जयपुर, 2005, पृष्ठ 409 
  2. बहरवाल मनोज कुमार, ‘‘भारतीय राजनीतिक चिन्तक’’, हिमांशु पब्लिकेशन, उदयपुर, 2014, पृष्ठ 392
  3. महात्मा गांधी का शिक्षा दर्शन, विकीपीडिया
  4. धवन जी.एन., ‘‘द पॉलिटिकल फिलॉसफी ऑफ महात्मा गांधी’’, पृष्ठ 86

 

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