अशोक के समय तक आते-आते मौर्यकला के बहुसंख्यक स्मारक हमें मिलने लगते हैं ।

इस समय की कला-कृतियों को हम चार भागों में विभक्त कर सकते हैं:

  1. स्तम्भ,
  2. स्तूप,
  3. वेदिका तथा
  4. गुहा-विहार ।

इनका परिचय इस प्रकार है:

  1. स्तम्भ:

स्तम्भ मौर्ययुगीन वास्तु कला के सबसे अच्छे उदाहरण हैं । सर जान मार्शल, पर्सी ब्राउन, स्टेला कैम्रिश जैसे विद्वान इन्हें ईरानी स्तम्भों की अनुकृति बताते हैं । किन्तु यह समीचीन नहीं है क्योंकि हमें ईरानी तथा अशोक के स्तम्भों में कई मूलभूत अन्तर दिखाई देते हैं ।

इनमें कुछ इस प्रकार हैं:

(i) अशोक के स्तम्भ एकाश्मक अर्थात् एक ही पत्थर से तराशकर बनाये गये हैं । इसके विपरीत ईरानी स्तम्भों को कई मण्डलाकार टुकड़ों को जोड़कर बनाया गया है ।

(ii) अशोक के स्तम्भ बिना चौकी या आधार के भूमि पर टिकाये गये हैं, जबकि ईरानी स्तम्भों को चौकी पर टिकाया गया है ।

(iii) ईरानी स्तम्भ विशाल भवनों में लगाये गये थे । इसके विपरीत अशोक के स्तम्भ स्वतंत्र रूप से विकसित हुये हैं ।

(iv) अशोक स्तम्भों के शीर्ष पर पशुओं की आकृतियाँ हैं, जबकि ईरानी स्तम्भों पर मानव आकृतियाँ हैं ।

(v) ईरानी स्तम्भ गड़ारीदार हैं किन्तु अशोक के स्तम्भ सपाट हैं । अशोक के स्तम्भों के शीर्ष पर लगी पशु मूर्तियों का एक विशेष प्रतीकात्मक अर्थ है जिसकी समुचित व्याख्या भारतीय परम्परा में ही सम्भव है । किन्तु ईरानी स्तम्भ शीर्षकों में कोई प्रतीकात्मकता नहीं है ।

(vi) अशोक के स्तम्भ नीचे में ऊपर की ओर क्रमशः पतले होते गये हैं, जबकि ईरानी स्तम्भों की चौड़ाई नीचे से ऊपर तक एक जैसी है ।

इस प्रकार हम अशोक स्तम्भों को ईरानी स्तम्भों की नकल नहीं कह सकते हैं । स्पूनर का विचार है कि मौर्य स्तम्भों पर जो ओपदार पालिश है वह ईरान से ही ग्रहण की गई है । लेकिन वासुदेव शरण अग्रवाल ने आपस्तम्भ सूत्र तथा महाभारत से ऐसे उदाहरण खोज निकाले हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि यह पालिश भारतीयों को बहुत पहले से ही ज्ञात थी ।

उनके अनुसार आपस्तम्भसूत्र में मृद्-भाण्डों को चमकीला बनाने की विधि के प्रसंग में ‘श्लक्षणीकरणै’ तथा ‘श्लक्षणी-कुर्वन्ति’ (चिकना करने के मसालों से उसे चिकना किया जाता था) शब्द प्रयुक्त किया गया है जो ओपदार पालिश की प्राचीनता का सूचक है ।

पिपरहवा बौद्ध स्तूप की धातुगर्भ-मंजूषा, पटना की यक्ष प्रतिमायें, लोहानीपुर से प्राप्त जैन तीर्थकरों के धड़ आदि सभी में चमकीली पालिश लगाई गयी है । इस सम्बन्ध में एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि पूर्व मौर्य युग के उत्तर भारत के विभिन्न स्थलों से काले रंग के चमकीले भाण्ड मिलें हैं जिनका समय ई. पू. 600-200 निर्धारित है ।

इन्हें एन. बी. पी. (Northern Black Polished Ware) कहा जाता है । यह बर्तनों पर पालिश करने की प्राचीनता को ईसा पूर्व छठी शताब्दी में ले जाता है । ऐसी दशा में स्तम्भों पर पालिश करने का ज्ञान ईरान से लेने की भारतीयों को कोई आवश्यकता ही नहीं थी ।

अत: मौर्यकालीन स्तम्भ तथा उनकी पालिश पूर्णतया भारतीय है । अग्रवाल के शब्दों में- ‘मौर्य स्तम्भों की परम्परा को लौरिया-नन्दन गढ़ के काष्ठ यूपी में ढूँढ़ना अधिक समीचीन होगा जो हमारे यहाँ ही मौजूद है । बौद्ध साहित्य और महाभारत में ऐसे खम्भों का उल्लेख है जो धार्मिक एवं सार्वजनिक स्थानों में लगाये जाते थे ।’

अशोक के स्तम्भों की संख्या निश्चित नहीं है । फाहियान ने छ: तथा हुएनसांग ने पन्द्रह स्तम्भों का उल्लेख किया है । किन्तु वास्तविक संख्या इससे अधिक थी । यह लगभग तीस रही होगी । इनमें से पन्द्रह सुरक्षित हैं । अन्य नष्ट हो गये हैं ।

ये दो प्रकार के हैं:

(I) स्तम्भ जिन पर धम्म-लिपियाँ खुदी हुई हैं,

(II) स्तम्भ जो बिल्कुल सादे हैं ।

पहले प्रकार में दिल्ली-मेरठ, दिल्ली-टोपरा, इलाहाबाद, लौरिया नन्दनगढ़, लौरिया अरराज, रमपुरवा (सिंह-शीर्ष), संकिस्सा, साँची, सारनाथ, लुम्बिनी, निगाली सागर आदि के स्तम्भ आते हैं । दूसरे प्रकार में रमपुरवा (बैल-शीर्ष), बसाढ़, कोसम आदि प्रमुख हैं । सभी स्तम्भ चमकदार, लम्बे, सुडौल तथा एकाश्मक (एक ही पत्थर के बने हुए) हैं । ये नीचे से ऊपर की ओर क्रमशः पतले होते गये हैं ।

स्तम्भ के मुख्य भाग हैं:

(a) यष्टि,

(b) यष्टि के ऊपर अधोमुख कमल (घण्टे) की आकृति,

(c) फलका,

(d) स्तम्भ को मण्डित करने वाली पशु-आकृति ।

स्तम्भों की यष्टि एक ही पत्थर को तराश कर बनाई गई है । इन पर इतनी बढ़िया पालिश है कि वे आज भी शीशे की तरह चमकते हैं । यष्टि के सिरे पर उल्टे कमल की आकृति है । कुछ विद्वान इसकी तुलना पर्सिपोलिस (हखामनी सम्राटों की राजधानी) के घण्टाशीर्ष से करते हैं । डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने इसे भारतीय ‘पूर्णघट’ या ‘मंगलकलश’ का प्रतीक बताया है ।

इसके ऊपर फलक ताँबे की कीलों द्वारा स्थापित है । यह कुछ स्तम्भों में चौकोर तथा कुछ में गोल और अलंकृत है । फलक पर भिन्न-भिन्न पशुओं की आकृतियाँ, जैसे- हंस, सिंह, हाथी, बैल आदि मिलती है । लौरिया अरराज का स्तम्भ-शीर्ष नष्ट हो गया है ।

आर. पी. चन्दा महोदय के अनुसार उस पर गरुड़ की आकृति रही होगी । बसाढ़ के स्तम्भ के ऊपर सिंह, संकिसा के ऊपर हाथी, रमपुरवा पर वृषभ, लौरिया नन्दनगढ़ पर सिंह तथा साँची और सारनाथ के स्तम्भों के ऊपर एक साथ चार सिंहों की आकृतियाँ मण्डित की गयी हैं ।

स्तम्भों में निम्नलिखित विशेष रूप में उल्लेखनीय है:

  1. बसाढ़ सिंहशीर्ष स्तम्भ,
  2. संकिशा गजशीर्ष स्तम्भ,

iii. रमपुरवा वृषशीर्ष स्तम्भ,

  1. लौरिया नन्दनगढ़ सिंहशीर्ष स्तम्भ,
  2. रमपुरवा सिंहशीर्ष स्तम्भ,
  3. साँची चतुर्सिह शीर्ष स्तम्भ,

vii. सारनाथ चतुर्सिड स्तम्भ ।

अशोक स्तम्भ वास्तु तथा तक्षण दोनों ही दृष्टियों से अनुपम है । वे सभी स्तम्भ अपने-आप में पूर्ण स्वतंत्र हैं तथा बिना किसी सहारे के खुले आकाश के नीचे खड़े हैं । सभी चुनार के बलुये पत्थर से बने हैं । ऐसा लगता है कि चुनार (मिर्जापुर) में स्तम्भों के निर्माण का कारखाना रहा होगा । स्तम्भों की लम्बाई 35 से 50 फीट तथा प्रत्येक का वजन लगभग 50 टन है ।

स्तम्भशीर्षों में सारनाथ के स्तम्भ का सिंहशीर्ष सर्वोत्कृष्ट है । इसके फलक पर चार सजीव सिंह पीठ से पीठ सटाये हुए तथा चारों दिशाओं की ओर मुँह किये हुए दृढ़तापूर्वक बैठे हैं । सिंहों के तने हुए शरीर की माँसपेशियों, लहलहाते हुए केश तथा गठीले अंग-प्रत्यंग अत्यन्त सूक्ष्मता एवं चतुरता के साथ बनाये गये हैं ।

ये चक्रवर्ती सम्राट अशोक की शक्ति के प्रतीक हैं । इनसे चारों दिशाओं में उसके राज्य तथा धर्म के प्रचार की सूचना मिलती है, अथवा इन्हें शाक्य-सिंह-बुद्ध की शक्ति का प्रतीक माना जा सकता है जो जन्मना चक्रवर्ती थे । सिंहों के मस्तक पर महाधर्मचक्र स्थापित था जिसमें मूलतः 32 तीलियाँ थीं ।

यह शक्ति के ऊपर धर्म की विजय का प्रतीक है जो बुद्ध तथा अशोक दोनों के व्यक्तित्व में दिखाई देता है । सिंहों के नीचे की फलका पर चारों दिशाओं में चार चक्र बने हुए हैं जो धर्मचक्रप्रवर्तन के प्रतीक हैं । इसी पर चार पशुओं- गज, अश्व, बैल तथा सिंह की आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं जिन्हें चलती हुई अवस्था में दिखाया गया है । इनके प्रतीकात्मक अर्थ के विषय में अनेक मत दिये गये हैं । वोगेल का विचार है कि ये अलंकरण की वस्तु मात्र हैं जिनका कोई प्रतीकात्मक अर्थ नहीं है ।

ब्लाख ने इन्हें चार हिन्दू देवताओं- इन्द्र, सूर्य, शिव तथा दुर्गा का प्रतीक माना है क्योंकि हिन्दू धर्म में हाथी इन्द्र का, अश्व सूर्य का, वृष शिव का तथा सिंह दुर्गा का वाहन माना गया है । उनके अनुसार इनके अंकन के पीछे शिल्पी का उद्देश्य यह था कि इन्हें बुद्ध के वशवर्ती दिखाया जाये । फूशे की धारण है कि ये पशु बुद्ध के जीवन की चार महान् घटनाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं ।

तदनुसार हाथी उनके गर्भस्थ होने (जिसमें उनकी माता माया ने एक श्वेत हाथी को स्वर्ग से उतर कर अपने गर्भ में प्रविष्ट होते हुए देखा था), वृष जन्म (बुद्ध की राशि वृष थी), अश्व गृह-त्याग तथा सिंह बुद्ध का प्रतीक है (जो स्वयं में शाक्य सिंह थे) ।

किन्तु वी. एस. अग्रवाल की मान्यता है कि इन पशुओं को किसी संकीर्ण दायरे में सीमित करना उचित नहीं प्रतीत होता क्योंकि इनकी परम्परा सिन्धु घाटी से लेकर उन्नीसवीं शती तक मिलती है । भारत के बाहर लंका, बर्मा, स्याम, तिब्बत आदि में भी इनका अंकन मिलता है । महावंश में इन्हें ‘चतुष्पद पंक्ति’ कहा गया है ।

बाल्मीकि रामायण में इनकी गणना उन मांगलिक द्रव्यों में की गयी है जिन्हें राम के अभिषेक के अवसर पर मंगाया गया था । रीतिकालीन कवि केशवदास (सत्रहवीं शती) ने राम के राजमहल के चार द्वारों के रक्षक के रूप में इन पशुओं का उल्लेख किया है ।

इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि लोक भावना में इन चार पशुओं को मंगल सूचक माना जाता था । हिन्दू तथा जैन परम्परा में भी इन चारों पशुओं को मांगलिक द्रव्यों में स्थान दिया गया है । बौद्ध परम्परा में ये चारों पशु ब्रह्माण्ड के प्रतीक अनवतप्त सरोवर, जिसमें बुद्ध ने स्नान किया था, के चार द्वारों के रक्षक कहे गये हैं जहाँ से चार महानदियों निकलती हैं ।

प्रत्येक पशु का सम्बन्ध एक-एक चक्र से है । चक्र प्राणरूपी पुरुष है । इस प्रकार प्रत्येक युग्म ‘पुरुष-पशु’ का प्रतीक है । प्रथम दैवी शक्ति तथा द्वितीय भौतिक तत्व का प्रतीक है । इस प्रकार ये सभी चित्र अत्यन्त आकर्षक एवं सुन्दर हैं ।

मार्शल के शब्दों में- “सारनाथ का सिंहशीर्ष यद्यपि अद्वितीय तो नहीं है तथापि तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में संसार में कला का जितना विकास हुआ था, उसमें यह सर्वाधिक विकसित कलाकृति है । इसके शिल्पी को पीढ़ियों का अनुभव प्राप्त था ।”

इसी प्रकार स्मिथ ने इनकी प्रशंसा में लिखा है- ‘शिल्पी की निपुणता सबसे अधिक पूर्णता को प्राप्त हो गयी तथा आज बीसवीं शती में भी कला का ऐसा प्रदर्शन असंभव है । तीस-चालीस फुट ऊँचे स्तम्भों की यष्टियाँ ऐसी प्रभा से मण्डित हैं जिसका रहस्य आज भी विश्व का कोई देश नहीं जानता ।’

2. स्तूप:

महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनकी अस्थियों को आठ भागों में बाँटा गया तथा उन पर समाधियों का निर्माण किया गया । सामान्यतः इन्हीं को स्तूप कहा जाता है । स्तूप के निर्माण की प्रथा बुद्ध काल के पूर्व की है ।

‘स्तूप’ संस्कृत के ‘स्तूप’ धातु से बना है जिसका अर्थ है एकत्र करना अथवा ढेर लगाना । इसके लिये प्राकृत शब्द ‘थूप’ मिलता है । ‘स्तूप’ का शब्दिक अर्थ होता है ‘ढेर’ या ‘थूहा’ । चूँकि यह चिता के स्थान पर बनाया जाता था, अत: इसका एक नाम ‘चैत्य’ भी हो गया ।

‘चैत्य’ शब्द ‘चि’ धातु से निकला है जिसका अर्थ है चयन करना । इसमें पत्थर या ईंट चुनकर भवन तैयार किये जाते थे (चीयते पाषार्णादिना इति चैत्यम्) । इस शब्द का संबंध चित् तथा चिता से भी है । स्तूप तथा चैत्य में मुख्य भेद यह दिखाई देता है कि चैत्य पर्वत गुफाओं में खोदा जाता था । इसमें स्तूप का आकार वर्तमान रहता था तथा उसमें अवशेष नहीं रखे जाते थे । इसके विपरीत स्तूप के भीतरी भाग में पात्र में अवशेष रखकर भवन बनाया जाता था ।

स्तूप समतल भूमि में ईंट पत्थर की सहायता से बनाये जाते थे । ‘स्तूप’ का उल्लेख सर्वप्रथम ऋग्वेद में प्राप्त होता है जहाँ अग्नि की उठती हुई ज्वालाओं को स्तूप कहा गया है । शुक्ल यजुर्वेद में समाधि के चारों ओर मिट्टी का ऊंचा टीला बनाने की बात कही गयी है ।

इसका उद्देश्य श्मशान की पवित्रता बनाये रखना था । शतपथ ब्राह्मण से पता चलता है कि मृत व्यक्ति की शरीर धातु पर मिट्टी का चौकोर तथा गोल थूहा बनाया जाता था । सूत्र काल में अस्थिकलश में शरीर धातु को रखकर जमीन में गाड़ने तथा उसके ऊपर ऊँचा टीला बनाने की प्रथा थी ।

रामायण से पता चलता है कि महापुरुषों तथा सम्राटों की स्मृति में चैत्य (स्तूप) निर्मित किये जाते थे । इस प्रकार बुद्ध के पहले ही स्तूप का सम्बन्ध महापुरुष के साथ जुड़ गया था । बुद्ध ने स्वयं महापुरुषों की शरीर धातु पर समाधि बनाने को कहा था ।

उन्हें चक्रवर्ती राजाओं की समाधि का ज्ञान था । इसी कारण उन्होंने अपने प्रिय शिष्य आनन्द को चौराहे पर स्तूप निर्मित करने का आदेश दिया था । ऐसा लगता है कि अपने मौलिक रूप में स्तूप का सम्बन्ध मृतक-संस्कार से था ।

शव-दाह के बाद बची हुई अस्थियों को किसी पात्र में रखकर मिट्टी से ढँक देने की प्रथा से स्तूप का जन्म हुआ । कालान्तर में बौद्धों ने इसे अपनी संघ-पद्धति में अपना लिया । इन स्तूपों में बुद्ध अथवा उनके प्रमुख शिष्यों की धातु रखी जाती थी, अत: वे बौद्धों की श्रद्धा और उपासना के प्रमुख केन्द्र बन गये ।

स्तूप चार प्रकार के बताये गये हैं:

  1. शारीरिक- इनमें बुद्ध तथा उनके प्रमुख शिष्यों की अस्थियों तथा उनके शरीर के विविध अंग (दन्त, नख, केश आदि) रखे जाते थे ।
  2. पारिभौगिक- इनमें बुद्ध द्वारा उपयोग में लाई गयी वस्तुयें (भिक्षा पात्र, चरण-पादुका, आसन आदि) रखी जाती थीं ।

III. उद्देशिक- इनमें वे स्तूप आते थे जिन्हें महात्मा बुद्ध के जीवन की घटनाओं से संबन्धित अथवा उनकी यात्रा से पवित्र हुए स्थानों पर स्मृति रूप में निर्मित किया जाता था । ऐसे स्थान बोधगया, लुम्बिनी, सारनाथ, कुशीनगर आदि हैं ।

  1. संकल्पित- ये छोटे आकार के होते थे और इन्हें बौद्ध तीर्थ स्थलों पर श्रद्धालुओं द्वारा स्थापित किया जाता था । बौद्ध धर्म में इसे पुण्य का काम बताया गया है ।

स्तूप का प्रारम्भिक रूप अर्ध-गोलाकार मिलता है । इसमें एक चबूतरे (मेधि) के ऊपर उल्टे कटोरे की आकृति का एक थूहा बनाया जाता है जिसे ‘अंड’ कहते हैं । स्तूप की चोटी सिरे पर चपटी होती थी जिसके ऊपर धातु-पात्र रखा जाता था । इसे ‘हर्मिका’ कहते हैं ।

यह स्तूप का सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग होता था । हर्मिका का अर्थ देवसदन अथवा देवताओं का निवास-स्थान होता है । हर्मिका के बीच में एक यष्टि लगाई जाती थी । यष्टि के ऊपरी सिरे पर तीन छत्र लगाये जाते थे ।

स्तूप को चारों ओर से बाड़ अथवा दीवाल से घेर दिया जाता था । इसे ‘वेदिका’ कहते हैं । स्तूप तथा वेदिका के बीच परिक्रमा करने के लिये जो खाली स्थान होता था उसे ‘प्रदक्षिणापथ’ कहा जाता था । कालान्तर में वेदिका के चारों दिशाओं में प्रवेशद्वार बनाये गये ।

प्रवेशद्वार पर मेहराबदार तोरण बनाये जाते थे । इस प्रकार मेधि, वेदिका, अण्ड, प्रदक्षिणापथ, हर्मिका, यष्टि, क्षत्र, तोरण आदि स्तूप वास्तु के प्रमुख अंग होते थे । वी. एस. अग्रवाल ने स्तूप को त्रिलोक का प्रतीक बताया है । उनकी मान्यता है कि प्रदक्षिणापथ, मेधि तथा हर्मिका की वेदिकायें क्रमशः पृथ्वी, अन्तरिक्ष तथा द्यु: (आकाश) की द्योतक है ।

वे स्तूप वास्तु की तुलना वैदिक कालीन यज्ञीय यूप-वास्तु से करते हुए इसे विविध अंगों, जैसे मेधि, अण्ड, हर्मिका तथा छत्र को क्रमशः पितृ लोक, मनुष्य लोक, देवलोक तथा साध्य देवों के प्रतीकात्मक अंगों से समीकृत करते हैं जो कालान्तर में हिन्दु मन्दिरों के चार अंगों-जंगली गर्भगृह, शिखर तथा आमलक के रूप में व्यक्त हुई ।

मौर्य काल के पूर्व बुद्ध की शरीर धातु पर निर्मित कराये गये आठ स्तूपों में से केवल पिपरहवा स्तूप के अवशेष ही प्राप्त होते हैं । स्तूप निर्माण का वास्तविक कार्य अशोक के समय में प्रारम्भ हुआ तथा रूपों का विस्तार सम्पूर्ण देश में किया गया ।

बौद्ध परम्परा अशोक को 84 हजार स्तूपों के निर्माण का श्रेय प्रदान करती है । सातवीं शताब्दी ईस्वी के चीनी यात्री हुएनसांग ने तक्षशिला, श्रीनगर, थानेश्वर, मथुरा, कन्नौज, प्रयाग, कौशाम्बी, श्रावस्ती, वाराणसी, सारनाथ, वैशाली, गया, कपिलवस्तु आदि स्थानों में इन रूपों को देखा था ।

परन्तु दुर्भाग्यवश आज ये सभी नष्ट हो चुके हैं । प्रारम्भिक स्तूपों में सांची का रूप-समूह प्रसिद्ध है । साँची की पहाड़ी, मध्य प्रदेश के रायसेन जिला मुख्यालय से 25 कि. मी. की दूरी पर ऐतिहासिक नगरी विदिशा के समीप स्थित है ।

1818 ई. में सर्वप्रथम जनरल रायलट ने यहाँ के स्मारकों की खोज की थी । 1888 में मेजर कोल ने पहाड़ी के ऊपर का जंगल साफ करवाया तथा स्तूप संख्या-1 को भरवाने के साथ ही उसके दक्षिणी-पश्चिमी तोरण द्वारों तथा स्तूप के तीन गिरे हुए तोरणों को पुन: खड़ा करवाया था ।

यहाँ से एक बड़ा तथा दो छोटे स्तूप मिले हैं । मार्शल के अनुसार महास्तूप का निर्माण अशोक के शासन-काल में हुआ था । यह ईंटों का बना था जिसके चारों ओर लकड़ी का बाड़ लगायी गयी थी । इसके अतिरिक्त सारनाथ तथा तक्षशिला स्थित ‘धर्मराजिका स्तूप’ का निर्माण भी मूलत: अशोक के समय में ही करवाया गया था जिन्हें परवर्ती शासकों ने परिवर्धित करवाया । मौर्यकालीन स्तूप ईंटों के बने थे ।

सारनाथ स्थित धर्मराजिका स्तूप के चारों ओर छोटे-छोटे पूजार्थक स्तूप बनवाये गये थे जिनके ध्वंसावशेष मिलते हैं । उसी के पास अशोक का स्तम्भ लेख है । दोनों रूपों के ध्वंसावशेष यह सूचित करते हैं कि इनका आकार काफी विशाल रहा होगा ।

3. पाषाण वेदिका:

मौर्ययुगीन स्तूप तथा विहार वेदिकाओं से घिरे होते थे । इनमें से कुछ के भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं । अशोक अपने रूमिन्देई (लुम्बिनी) स्तम्भ लेख में स्वयं कहता है कि उसने पत्थर की विशाल दीवार (शिला विगड भीचा) बनवाई थी । घोसुण्डी लेख में इस प्रकार के बाड़े को ‘प्रकार’ कहा गया है ।

बोधगया से एक वेदिका के अवशेष मिले हैं । इनका निर्माण अशोक के समय में हुआ था । इसे ‘बोधिमण्ड’ कहा जाता है । वेदिका के खम्भों तथा उनके जोड़ने वाली लम्बी पाषाण शिलापट्टिकाओं पर कमल की आकृति बनी है । कहीं-कहीं अश्व, हाथी, मकर आदि की आकृतियाँ भी उत्कीर्ण मिलती हैं । सारनाथ से भी अशोक के समय की एक पाषाण वेदिका मिली है । इसे एक ही पत्थर में काटकर चौकोर बनाया गया है ।

इसके दो स्तम्भों के बीच में तीन सूचियाँ हैं तथा स्तम्भों के ऊपर उष्णीश हैं । यह आकर्षक, सुन्दर एवं चिकनी है । पाटलिपुत्र की खुदाई से तीन वेदिकाओं के टुकड़े मिले हैं जो अपनी चमकीली पालिश के कारण मौर्ययुगीन माने जाते हैं । साँची से मौर्ययुगीन स्तूप की ईंटों के अतिरिक्त पाषाण का एक खण्डित छत्र भी प्राप्त होता है । पाषाण वेदिकाओं के अवशेष इस बात के प्रमाण हैं कि इस समय वास्तु में पत्थर का प्रयोग प्रारम्भ हो गया था ।

4. गुहा-विहार:

मौर्ययुग में पर्वत गुफाओं को काटकर निवास-स्थान बनाने की कला का पूर्ण विकास हुआ । अशोक तथा उसके पौत्र दशरथ के समय में बराबर तथा नागार्जुनी की पहाड़ियों को काटकर आजीविका के लिये आवास बनाये गये थे । इन गुफाओं की छतों और दीवारों पर चमकीली पालिश हैं ।

अशोक के समय बराबर पहाड़ी की गुफाओं में ‘सुदामा की गुफा’ तथा ‘कर्ण चौपड़’ नामक गुफा सर्वप्रसिद्ध है । प्रथम का निर्माण अशोक ने अपने शासन-काल के बारहवें वर्ष में तथा द्वितीय का उन्नीसवें वर्ष में करवाया था ।

सुदामा की गुफा में दो कोष्ठ हैं । इनकी छत ढोलाकार है । दोनों कोष्ठों की दीवारों तथा छतों पर शीशे के समान चमकीली पालिश हैं । इससे सूचित होता है कि इस गुफा की रचना अशोक के समय में ही की गयी थी ।

दशरथ के समय बनी गुफाओं में ‘लोमश ऋषि’ नाम की गुफा उल्लेखनीय है । यह बराबर-समूह की सबसे प्रसिद्ध गुफा है जिसका वास्तु-विन्यास सुदामा की गुफा के ही समान है । अन्तर केवल यही है कि इसका आन्तरिक कोष्ठ वर्गाकार न होकर अण्डाकार है ।

इसका निर्माण-कार्य बड़ी सावधानी से हुआ है तथा यह कालान्तर के चैत्यगृहों के अग्रभाग को सुसज्जित करने वाले अलंकरणों की हद योजना के प्रारम्भ का प्रतिनिधित्व करने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । इस गुफा का प्रवेशद्वार सर्वोत्तम है ।

दोनों पंखों पर तिरछे खड़े दो स्तम्भ है जिनके ऊपर गोल मेहराब बने हुए हैं । इनके बीचों-बीच एक स्तूप तथा दोनों किनारों पर हाथियों की आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं । हाथी स्तूप की पूजा करते हुए दिखाये गये हैं । बराबर पहाड़ी की चौथी गुफा को ‘विश्व झोपड़ी’ कहा जाता है । इसका निर्माण भी अशोक के शासन काल के बारहवें वर्ष हुआ था । इसमें दो कोष्ठ हैं । इनकी दीवारों पर चमकीली पालिश मिलती है । नागार्जुनी पर्वत पर कुल तीन गुफायें खोदी गयी है ।

नागार्जुनी समूह में ‘गोपिका गुफा’ महत्वपूर्ण है जिसे दशरथ ने अपने अभिषेक-वर्ष में बनवाया था । यह सुरंग के आकार की है जिसके दोनों सिरों पर दो गोल-मण्डप बने हैं । इनमें एक गर्भगृह तथा दूसरा मुखमण्डप जान पड़ता है । इसमें मौर्यकालीन गुहा-स्थापत्य की सभी विशेषतायें प्राप्त होती हैं ।

दूसरी वहियक तथा तीसरी वडघिक नाम से जानी जाती है । वहियक में केवल एक प्रकोष्ठ है जिसके सम्मुख छोटा मुखमण्डप बना है । तीसरी अर्थात वडघिक गुफा भी लम्बाई में वहियक के ही समान है किन्तु इसकी दीवारें वक्राकार हैं ।

इन सभी का निर्माण दशरथ के समय में करवाया गया था । इनके अतिरिक्त राजगृह से तेरह मील की दूरी पर स्थित सीतामढ़ी गुफा है । यह किसी पहाड़ी पर नहीं है अपितु इसे स्वतंत्र रूप से ग्रेनाइट पत्थर को भीतर खोदकर बनाया गया है ।

इसमें आयताकार कक्ष तथा दो द्वार स्तम्भ हैं । इसे भी मौर्यकालीन माना जाता है । इम प्रकार मौर्य युग में गुहा-स्थापत्य का पूर्ण विकास हुआ । कालान्तर में इन्हीं गुफाओं के अनु-करण पर पश्चिमी भारत में अनेक चैत्यगृहों का निर्माण किया गया ।

मूर्ति-कला:

मौर्ययुगीन मूर्तिकला के सर्वोत्तम नमूने अशोक स्तम्भों को मण्डित करने वाली विभिन्न पशुओं की आकृतियों में दर्शनीय है । उड़ीसा की धौली चट्टान को काटकर बनाई गयी हाथी की आकृति पाषाण मूर्तिकला की उत्कृष्टता को सूचित करती है ।

हाथी अत्यन्त विशाल आकार का है जिसके अग्रभाग को उकेरा गया है । उसके सूँड़, पैर आदि की गढ़न अत्यन्त स्वाभाविक है । ऐसा प्रतीत होता है कि यह अपनी सूंड़ में कोई वस्तु लपेट कर उठा रहा है । हाथी चट्टान से बाहर निकलते हुए जान पड़ता है ।

इसी प्रकार कालसी (देहरादून उ. प्र.) की चट्टान पर एक हाथी की आकृति खुदी हुई मिलती है । हाथी के पैरों के बीचों-बीच मौर्यकालीन ब्राह्मी लिपि में ‘गजतमे’ (गजोत्तम:) अर्थात सर्वोत्तम हाथी खुदा हुआ है । हाथी को दोनों ही आकृतियाँ उत्कीर्ण (रिलीफ) मूर्तिकला का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करती हैं ।

लोककला:

मौर्ययुगीन कलाकारों ने लोकरुचि की वस्तुओं का भी निर्माण किया । इनका तत्कालीन सामाजिक-धार्मिक जीवन में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान था । लोककला के अन्तर्गत हम सर्वप्रथम विभिन्न स्थानों से मिली हुई पाषाण निर्मित विशालकाय यक्ष-यक्षिणी प्रतिमाओं का उल्लेख कर सकते हैं ।

इनका विवरण इस प्रकार है:

  1. मथुरा जिले के परखम ग्राम से मिली यक्ष मूर्ति जिसे ‘मणिभद्र’ कहा गया है ।
  2. मथुरा जिले के बड़ोदा ग्राम से मिली यक्ष-प्रतिमा ।

iii. मथुरा के झींग-का-नगरा ग्राम से प्राप्त यक्षी की प्रतिमा ।

  1. मथुरा से प्राप्त यक्ष प्रतिमा ।
  2. पदमावती (ग्वालियर, म. प्र.) से प्राप्त यक्ष-प्रतिमा ।
  3. पटना नगर में दीदारगंज से प्राप्त चामर ग्राहिणी यक्षी की प्रतिमा ।

vii. पटना से प्राप्त दो यक्ष प्रतिमायें ।

viii. बेसनगर (विदिशा) से प्राप्त यक्षी की प्रतिमा ।

  1. राजघाट (वाराणसी) से प्राप्त त्रिमुख यक्ष की प्रतिमा ।
  2. विदिशा से प्राप्त यक्ष-प्रतिमा ।
  3. शिशुपालगढ़ (उड़ीसा) से प्राप्त यक्ष प्रतिमायें ।

xii. कुरुक्षेत्र में आमींन से प्राप्त यक्ष-प्रतिमा ।

xiii. मेहरौली से प्राप्त यक्षी की प्रतिमा ।

उपर्युक्त सभी प्रतिमायें विशाल आकार-प्रकार की हैं जिन्हें सभी ओर से तराशकर तैयार किया गया है । इनके शरीर पर वस्त्र तथा आभूषण अत्यन्त मनोहर हैं । विद्वानों का विचार है कि इन्हीं यक्ष-यक्षी प्रतिमाओं के आधार पर कालान्तर में बुद्ध, बोधिसत्व तथा जैन तीर्थकरों की विशाल मूर्तियों का निर्माण किया गया था ।

यक्ष-यक्षी प्रतिमायें लोकधर्म का प्रमुख आधार थीं । इन्हें सर्वत्र देवी-देवताओं के रूप में पूजा जाता था । इन मूर्तियों के अतिरिक्त पटना के निकट लोहानीपुर से दो जैन दिगम्बरों की प्रतिमाओं के धड़ तथा सारनाथ से दो पुरुष मूर्तियों के मसाक प्राप्त होते हैं जिनकी चिकनी पालिश तथा चुनार के बलुए पत्थर के आधार पर उन्हें मार्शल, आर. पी. चन्दा, कुमारस्वामी आदि विद्वानों ने मौर्यकालीन बताया है ।

इसी प्रकार सारनाथ, अहिच्छत्र, मथुरा, हस्तिनापुर, कौशाम्बी, बुलन्दीबाग, वसाढ़, कुम्हराहार आदि अनेक स्थानों से विभिन्न पशु-पक्षियों जैसे हाथी, घोड़ा, बैल, भेड़, कुत्ता, हिरण, पक्षियों तथा नर-नारियों की बहुसंख्यक मिट्टी की मूर्तियाँ मिली हैं जिन्हें हाथ से साँचे में ढालकर बनाया गया है । इन मृण्मूर्तियों को भी विद्वान मौर्यकालीन मानते हैं ।

परन्तु नीहार रंजन राय उपर्युक्त मूर्तियों को उनकी कल्पना तथा शैली के आधार पर मौर्य-युग का नहीं मानते हैं । उनके अनुसार- ‘पत्थर पर शीशे की तरह चमकीली पालिश लगाने की कला मौर्य कलाकारों ने हखामनियों से सीखी थी । मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद भी यह कला जीवित रही तथा शिल्पी कुछ समय बाद तक चुनार के पत्थरों का ही प्रयोग करते रहे ।’

अत: “पूर्ण आकार की साँचे में ढली हुई गोल मूर्तियाँ भारतीय कला के भिन्न-भिन्न स्तरों से सम्बन्धित हैं । ये सभी आकार-प्रकार, शैली तथा बनावट में भारतीय है मौर्यों की दरबारी कला से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है ।”

 

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