संगीत का अर्थ
संगीत शब्द ‘गीत’ शब्द में ‘सम’ उपसर्ग लगाकर बना है। ‘सम’ यानि ‘सहित’ और ‘गीत’ यानि ‘गान’। ‘गान के सहित’ अर्थात् अंगभूत क्रियाओं (नृत्य) व वादन के साथ किया हुआ कार्य संगीत कहलाता है। स्वरों की ऐसी रचना जो कानों को मधुर और सुरीली मालूम हों एवं जो लोगों के चित्त को प्रसन्न करें उसे ही हम संगीत कहते हैं।
भारतीय संस्कृति, सभ्यता व परम्पराओं के अपरिहार्य अंग के रूप में संगीत को उल्लिखित किया गया है। भारतीय संगीत का इतिहास अति प्राचीन है। विश्व के अन्य देशों में लोगों को जब लोकसंगीत का ज्ञान भी नहीं था, तब भारतीय संगीत प्रतिष्ठित स्थान को प्राप्त हो चुका था। भारतीय संगीत द्वारा सम्पूर्ण विश्व को सुर व ताल समन्वित एक अमूल्य विद्या प्राप्त हुई। संगीत का शाब्दिक अर्थ– संगीत के शाब्दिक अर्थ पर विचार करें तो यह ‘सम्+गै:’ धातु से व्युत्पन्न हुआ है। जिसका अर्थ है अच्छे प्रकार से गाना।
संगीत शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृति ग्रन्थों में ‘‘सम्यक् गीतम्’’ से माना गया है। सम्यक का अर्थ है- ‘‘अच्छी प्रकार से’ तथा गीतं का अर्थ है- ‘गीत’ । अर्थात हर संभव ढंग से प्रभावषाली बनाकर सफलतापूर्वक गाया जाने वाला गीत ही ‘सम्यक-गीतम् है। वामन शिवराम आप्टे संस्कृत हिन्दी कोश के अनुसार सम् + गै + कत् संगीत शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार भी की जाती है-अर्थात संगीत शब्द ‘गीत’ में ‘सम्’ उपसर्ग लगाकर बना है। सम अर्थात सहित तथा गीत का अर्थ है- ‘गान’ यानि गान के सहित दूसरे शब्दों में हम कह सकते है कि संगीत एक अन्विति है, जिसमें गीत, वाद्य एवं नृत्य तीनों का समावेश है।
पाश्चात्य परम्परा में संगीत के लिए म्यूजिक (MUSIC) शब्द का प्रयोग करते है। म्यूजिक शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाशा के म्यूज से मानी जाती है। वस्तुत: म्यूजिक शब्द का मूल स्वत: म्यूज शब्द है। ग्रीक परंपरा में यह शब्द उन देवियों के लिये प्रयुक्त होता था, जो कि विविध ललित कलाओं की अधिश्ठात्री देवी मानी जाती है। पहले म्यूज शब्द का प्रयोग संगीतकला की देवी के संदर्भ में ही होता था, किंतु कालान्तर में प्रत्येक कला की देवी को म्यूज शब्द से संबोधित किया जाने लगा। मूसिकी’ अरबी परम्परानुसार संगीत का समानाथ्र्ाी शब्द है। ‘मूसिकी’ की व्युत्पत्ति ‘मूसिका’ शब्द से हुई है। यूनानी भाषा में ‘मूसिका’ आवाज को कहते है। इसलिये ‘इल्मेमूसिकी’ (संगीत कला) को आवाजों का इल्म कहा जाने लगा। सृष्टि के प्रारंभ से ही संगीत सट् चित् तथा आनंद का स्रोत बनकर अविरल गति से प्रवाहित होता रहा है।
संगीत की परिभाषा
श्री भातखण्डे जी के अनुसार- संगीत समुदायवाचक नाम है। इस नाम से तीनों कलाओं में संगीत का प्राधान्य है। अत: केवल संगीत का नाम ही चुन लिया गया है। संगीत के इस सार्वभौमिक अर्थ को स्वीकार करने पर भी गायन, वादन तथा नृत्य में से गायन को प्रमुख माना गया है।
‘संगीत रत्नाकर’ के अनुसार संगीत की परिभाषा इस प्रकार है- ‘गीतं वाद्यं तथा नृत्तं त्रयं संगीतमुच्यते’। अर्थात् संगीत एक अन्विति है, जिसमें गीत, वाद्य तथा नृत्य तीनों का समावेश है। ‘संगीत’ शब्द में व्यक्तिगत तथा समूहगत दोनों विधियों की अभिव्यंजना स्पष्ट है। इसी कारण व्यक्तिगत गीत, वादन तथा नर्तन के साथ समूहगान, समूहवादन तथा समूहनर्तन का समावेश इसके अन्तर्गत होता है।
कान्ट के अनुसार- संगीत समस्त जीवों के समूह को आनन्द का वरदान देकर अपनी ओर खींच लेता है।
हीगेल के अनुसार- संगीत हमारी आत्मा के सर्वाधिक निकट है। ध्वनि के रूप में संगीत का जन्म होता है और गीत के रूप में नृत्य की अनुभूति होती है।
महाराणा कुम्भा ने संगीत के अर्थ की व्याख्या इस प्रकार की है- ‘‘सम्यग्गीतं तु संगीतं गीतादित्रियं तुवा। समष्टि व्यष्टि भावेन शब्द नानेन गीयते।।’’ अर्थात् जो सम्यक रूप से गाया जाय वह संगीत है अथवा गीत, वाद्य और नृत्य इन तीनों की समष्टि और व्यष्टि भाव से अभिव्यक्त संगीत है
भारतीय संगीत का इतिहास
1. प्रागैतिहासिक काल –
इस काल में मनुष्य पूर्णरूपेण प्रकृतिस्थ प्राणि था मानव-मुख से नि:सृत स्वाभाविक ध्वनियांँ ही उसका संगीत थीं। पूर्व-पाशाणकाल में आधुनिक मंजीरा वाद्य के समान पत्थर से निर्मित अग्सा नामक वाद्य बनाया गया था। उत्तर-पाशाणकाल में संगीत का कुछ विकास हुआ। तत्पश्चात धातुयुग में संगीत का कुछ अधिक विकास हुआ। इस युग के लोग पर्वोत्सवों को गीत-नृत्य के साथ मनाते थे।
उपर्युक्त विवरण से यह सुस्पष्ट हो जाता है कि इस काल में गीतों का विकास हो चुका था तथा अनेक छन्द बन चुके थे, जोकि सांगीतिक रूप से गाये जाते थे। अत: स्पष्टतया कहा जा सकता है कि उस समय प्रागैतिहासिक-कालीन संगीत विकसित था एवं उसका स्तर भी उत्कृष्ट था।
2. सिन्धु घाटी की सभ्यता काल –
ईसा से सहस्रों वर्ष पूर्व सिन्धू नदी की घाटी में एक उन्नत एवं समृद्ध सभ्यता का प्रस्फुटन हुआ। यही भारत की प्रथम सभ्यता थी। संगीत कला का जितना गहरा एवं विषद ज्ञान इस सभ्यता में मिलता है इससे पूर्व कही नही मिलता मोहन जोदड़ों तथा हड़प्पा की खुदाई में प्राप्त पुरातत्वावषेशों से यह विदित होता है कि तत्कालीन जीवन में संगीत का पर्याप्त प्रचलन था। धार्मिक एवं लौकिक समारोंहों में गीत, वाद्य एवं नृत्य द्वारा मनोरंजन होता था। खुदाई में प्राप्त ताबीजों पर नृत्य और वाद्य के संकेत मिलते है तथा साथ ही नृत्य करती हुई स्त्रियों की मूर्तियाँ प्राप्त हुई है। चीनी मिट्टी का एक ऐसा ताबीज प्राप्त होता है जिस पर एक मनुष्य ढोल बजाते हुये तथा सामने कुछ मनुष्य नृत्य करते हुए दिखाई पड़ते है। इसके अतिरिक्त सतलज के किनारे अम्बाला से साठ मील उत्तर में रोपड़ नामक स्थान पर भी विविध प्रकार के संगीत-वाद्यों के चिन्ह प्राप्त हुए है। इस स्थान पर एक नृत्यरत नारी प्राप्त हुई है, जोकि चार तारों की वीणा पर वादन कर रही है। यहीं पर मिले कुछ सिक्कों पर वीणा के चित्र भी प्राप्त हुए है। ये सिक्के समुद्रगुप्त के समय है।
प्रसिद्ध इतिहासकार श्री कीर्डियल शोम्स ने सिन्धु घाटी की सभ्यता के विषय में लिखा है कि ‘‘भारतीय’’ संगीत विश्व के संगीत में पहले भी अग्रगणीय था। इस काल में नृत्य एवं गीत के साथ-साथ वाद्यों का भी पर्याप्त प्रचार था। मोहनजोदड़ों एवं हड़प्पा की खुदाई में उपलब्ध दो मुद्राओं में दीर्घाकार ढोलक अंकित है जिनके दोनों मुख चर्म में मढ़े हुये है। इस प्रकार उस समय संगीत का रूप विकसित एवं स्तर उत्कृष्ट था।
3. वैदिक काल –
ईसा से लगभग 2000 वर्ष पूर्व का वेदों का रचना-काल ‘‘वैदिक काल’’ कहलाता है। वैदिक काल में ऋग्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और यजुर्वेद-इन चतुर्वेदों की रचना हुई। आधुनिक भारतीय संगीत का प्रादुर्भाव वैदिक-कालीन सामगान से माना गया है। सामवेद पूर्णतया संगीतमय है। यही कारण है कि चारों वेदों में सामवेद का एक विशिष्ट स्थान है। श्रीमद्भागवदगीता में श्री कृष्ण ने ‘‘वेदानाम् सामवेदोंSस्मि’’ कहकर सामवेद की महत्ता की पराकाष्ठा को सुस्पष्ट कर दिया है। ‘‘साम’’ शब्द का मूल आधार गान अथवा गेय वस्तु रहा है। सामगान में वाणी की सुस्पश्टता का और उसको विविध प्रकार से गाने का विधान था। सामगान का प्रारम्भ और समापन दोनों ही ऊँ स्वर द्वारा सम्पन्न होते थे। इसके अतिरिक्त रिगवेद में गायन के साथ साथ वाद्यों के निरन्तर साहचर्य के उद्धरण भी मिलते । तैत्तरीय ब्राम्हण एवं सामण के भाश्य के अनुसार वैदिक काल के संगीतज्ञ ताल पद्धति से पूर्णत: परिचित थे। सामगान में प्रथमत: उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित का ही प्रयोग होता था।
कुछ अन्य विद्वानों के मतानुसार प्रारम्भ में मूल स्वर उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित ही है, जिनसे अन्य स्वरों का विकास हुआ पाणिनि ने भी उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित इन तीन मूल स्वरों के विकास के द्वारा ही अन्य स्वरों के तथ्य को स्वीकारते हुए अपने ग्रन्थ ‘‘सिद्धान्त-कौमुदी’’ में लिखा है कि ‘‘निषाद और गान्धार उदात्त, ऋषभ एवं धैवत अनुदात्त तथा शड्ज माध्यम एवं पंचम स्वरित स्वरों पर आधारित है। इस प्रकार स्पष्ट है कि वैदिक काल, से 1000 ईसा पूर्व ही ‘‘सा रे गा म प ध नि’’ ये सात स्वर प्रचार में आ गये थे। इनमें से प्रत्येक स्वर एक दूसरे से ऊँचा कहा गया है। नारद ने अपने ग्रन्थ ‘‘भरत-भाष्य’’ में स्वरों की उच्चता-नीचता को स्पष्ट किया है।
4. प्राचीन काल –
वैदिक युग के पश्चात पुराणों में यथा-मार्कण्डेय पुराण, वायु-पुराण एवं स्कन्द-पुराण आदि में तथा रामायण व महाभारत जैसे महाकाव्यों में संगीत सम्बन्धी चर्चा हुई है। इस काल में संगीत के प्रयोगात्मक पक्ष का विकास हुआ तथा नृत्य की नवीन “ौलियों का सृजन हुआ। इसी काल में लोक-संगीतों एवं लोक-नृत्यों का प्रचार-प्रसार भी बढ़ा। उत्सवों और मेलों में गायन, वादन एवं नृत्य का सामूहिक रूप से आनन्द लिया जाता था।
मार्कण्डेय-पुराण के 23 वें अध्याय में संगीत का विस्तृत विवेचन हुआ है। छान्दोग्य-उपनिषद् में गीत वाद्य एवं नृत्य इन तीनों का ही उल्लेख हुआ है। प्रतिषाख्य एवं शिक्षा ग्रन्थों में भी संगीत सम्बन्धी विवरण मिलते है।
रामायण महाकाव्य में दशरथ के पुत्रों के जन्मोत्सव एवं विवाह तथा राम के वनवास के पश्चात पुन: अयोध्या-आगमन जैसे मांगलिक अवसरों पर संगीत की मधुर स्वरलहरियों की एवं नृत्य के घुंघरुओं की झंकार सुनाई पड़ती है। इसी काल में रावण के द्वारा गज से बजाये जाने वाले वाद्य ‘‘रावणास्त्र‘‘ का भी आविष्कार हुआ। आधुनिक वायलिन इसी ‘‘रावणास्त्र‘‘ का ही परिष्कृत रूप है। नृत्य का प्रयोग वैदिक काल से ही यज्ञादि अवसरों पर होता था, परन्तु घुंघरू का प्रयोग सबसे पहले रामायण में ही मिलता है। रामायण में रागप्रणाली के प्रचलन के उदाहरण भी मिलते है।
महाभारत-काल में संगीत उत्तमता के चरमोत्कर्ष पर पहुंच चुका था। भगवान श्रीकृष्ण गायन, वादन एवं नृत्य तीनों में ही पारंगत थे। श्रीकृष्ण की वंशी ने समाज को संगीतमय बना दिया इस काल में संगीत के कलापक्ष के साथ ही साथ उसके शास्त्रपक्ष का भी विकास हुआ।
भरत मुनि कृत ‘‘नाट्यशास्त्र‘‘ इसी काल का संगीत विषयक विख्यात ग्रन्थ माना गया है। यद्यपि इसके रचनाकाल के सम्बन्ध में विद्वत्तजन एकमत नहीं है, फिर भी अधिकांश गुणीजन इसी काल में इसकी रचना मानते है। ‘‘नाटयशास्त्र‘‘ विशेषतया नाटयकला पर आधारित ग्रन्थ है, किन्तु भरत मुनि ने गायन को नाट्य का अभिन्न अंग स्वीकार करते हुए अपने ‘‘नाट्यशास्त्र‘‘ के 28वें से 33वें अध्यायों तक में संगीत विषयक विषद चर्चा की है। इस प्रकार भरत कृत ‘‘नाट्यशास्त्र‘‘ में जहां संगीत सम्बन्धी सामग्री उपलब्ध होती है, वहीं इससे यह भी सिद्ध होता है कि उस समय तक संगीत अत्यन्त ही विकसित अवस्था में था।
जैन एवं बौद्ध काल में भी संगीत जनसामान्य के जीवन का एक अभिन्न अंग बन गया था। राज्य सभा में गायक, वादक तथा नर्तक नियुक्त होते थे भगवान बुद्ध के समस्त सिद्धान्तों को गीतबद्ध करके उन्हें जनसामान्य में प्रचारित एवं प्रसारित किया गया। इस युग में संगीत अपने चरमोत्कर्ष पर था । बौद्धकालीन जातक-कथाओं में भारतीय संगीत के तत्कालीन नृत्य, गीत एवं वाद्यों के प्रसंगानुकूल उल्लेख प्राप्त होते है।
वैपुल्य-सूत्र में मृदंगादि विभिन्न लय वाद्यों का उल्लेख प्राप्त है। बौद्ध साहित्य में वाराणसी में एक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय का उल्लेख प्राप्त होता है। जिससे सम्बंद्ध संगीत-विद्यालय भी था। इस संगीत-विद्यालय में देष के श्रेष्ठ गुणीजनों को संगीत-शिक्षक के रूप में नियुक्त किया गया था। नालन्दा, तक्षषिला विक्रमषिला एवं तदन्तपरी विश्व-विख्यात विश्वविद्यालयों में संगीत-विभाग ‘‘गान्धर्व’’ विद्या के नाम से था।
अत: हम यह स्पश्टरूप से कह सकते है कि बौद्ध जैन काल में संगीत शास्त्र गुणों की संरक्षा, संगीत शास्त्र का परिष्कार और धर्म प्रचार में संगीत का लोक प्रचलन आदि महत्वपूर्ण कार्य हुये ।
जैन काल में बौद्धधर्म से भी अधिक जैन धर्म का प्रभाव संगीत पर पड़ा। जैन युग में संगीत साधना का मुख्य विषय बन गया। इस समय संगीत वर्ग-विषेश की धरोहर न होकर, सामाजिक उपयोग की कला बन गया था।
मौर्य काल में संगीत मनोरंजन का मुख्य साधन था। भारत का प्रथम सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य संगीतप्रेमी था। उसने संगीत के विकास के लिए बहुत प्रयत्न किया। इस काल में भारतीय एवं यूनानी संस्कृतियों का समन्वय हुआ। चन्द्रगुप्त के पश्चात उसके पुत्र बिन्दुसार के शासनकाल में संगीत के क्षेत्र में कोई विषेश परिवर्तन नहीं हुआ। बिन्दुसार के पश्चात सम्राट अशोक के काल में संगीत का आध्यात्मिक रूप सामने आया।
शुंगकाल में संगीत के क्षेत्र में कोई विषेश उन्नति नहीं हुई। गुजरात प्रान्त में गरवा नृत्य का प्रादुर्भाव शुंगकाल में ही हुआ। कनिष्क के काल में भारतीय संगीत का अच्छा विकास हुआ। कनिश्क-कालीन संगीत के काल को विकास की दृष्टि से हम ‘‘प्रगतिशील युग’’ कह सकते है।
गुप्तकालीन संगीत गुप्तकाल काव्य, संगीत सहित अन्य कलाओं के पल्लवन का काल कहा जा सकता है। सरीदाकार वीणा का प्रचलन परिलक्षित होता है।1 चन्द्रगुप्त प्रथम एवं समुद्रगुप्त आदि सम्राट संगीतप्रेमी थे। तत्कालीन एक स्वर्णमुद्रा में समुद्रगुप्त का वीणा सदृश वाद्य बजाते हुए चित्र प्रदर्शित है। महाराज विक्रमादित्य (चन्द्रगुप्त द्वितीय) ने बृहत नाटयशालाओं और संगीतशालाओं का निर्माण करवाया। महाकवि कालीदास के काव्य में एवं नाटकों में गुप्तकालीन संगीत का आंशिक परिचय मिलता है। कालिदास के ‘‘कुमारसम्भव’’, ‘‘मालविकाग्निमित्रम’’ एवं ‘‘अभिज्ञन-शाकुन्तलम’’ आदि ग्रन्थों में सांगीतिक शब्दों का प्रयोग मिलता है। भरतपुत्र दत्तिल ने ‘‘दात्तिलम’’ की रचना इसी काल में की। यह ग्रन्थ भी नाट्यषास्त्र के समान भारतीय संगीत की एक गौरवशाली रचना है।
हर्षवर्धन के काल में संगीत का विकास निर्बाध गति से चलता रहा। इसी काल में मतंगमुनि द्वारा ‘‘बृहददेशी’’ नामक ग्रन्थ की रचना हुई। उन्होंने जाति-गायन के स्थान पर राग-गायन का उल्लेख किया। नारद कृत ‘‘नारदीय-शिक्षा’’ का रचनाकाल भी यही है।
5. मध्यकाल –
संगीत जिसका मुख्य ध्येय ईष्वरोपासना था, वह इस काल में विलासिता के आवरण में प्रच्छन्न हो गयी। जिस गति से भारतीय संगीत विकास-क्षितिज की और अग्रसर हो गया था, अगर उसके मार्ग में मुस्लिम-प्रवेश-युग न आता तो फिर आज विश्व में भारतीय संगीत के गौरव की सुषमा अनिर्वचनीय एवं अवर्णनीय होती।
मुस्लिम आक्रमणों के परिणामस्वरूप मुगल-सभ्यता से प्रभावित होकर भारतीय संगीत अपनी प्राचीनता को विस्मृत करते हुए एक नवीन रूप में विकसित होने लगा। यह काल सांगीतिक दृष्टि से युगान्तकारी कहा जायेगा। संगीत के स्वरूप में इस समय कल्पनातीत परिवर्तन हुआ । संगीत पर आधारित ग्रंथों, कात्यादि का सृजन, पुरानी राग “ौलियों और पद्धतियों का परिष्कार, नवीन रागों की उद्भावना, नये वाद्यो और सांगीतिक उपकरणों का अविश्कार आदि के माध्यम से संगीत चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया था। परिणामत: भारतीय संगीत उत्तरी एवं दक्षिणी दो पद्धतियों में विभक्त हो गया। दक्षिण भारतीय संगीत अपने प्राचीन मौलिक रूप को अक्षुण रखते हुए उन्नति-पथगामी होता रहा, जबकि उत्तर भारतीय संगीत मुस्लिम-संगीत के सम्पर्क में आकर नित-नवरूपों में विकसित होने लगा।
संगीत की विकासयात्रा मध्यकाल में भी निर्बाध गति से चलती रही। संगीत एवं संगीतज्ञों को राजाश्रय प्राप्त होने के कारण संगीत सामंतषाही बन गया और जनसामान्य से दूर होता चला गया। सामंतषाही ऐश्वर्य के प्रवेश के कारण संगीत अपनी मौलिक मर्यादा से च्युत होकर श्रृंगार-प्रधान हो गया।
मध्यकाल के पूर्वार्ध में प्रबन्ध-गायन प्रचलित था, इसी कारण से यह प्रबन्ध-काल भी कहलाता है। इस काल में ‘‘संगीत-मकरंद’’ ‘‘गीतगोविन्द’’ एवं ‘‘मानसोल्लास’’ जैसे महत्वपूर्ण संगीत-ग्रन्थों की रचना हुई। सन 1290 ई0 से 1320 ई0 के बीच अलाउददीन खिलजी के शासनकाल में महान संगीतज्ञ शारंगदेव ने भारतीय संगीत के आधार एवं अमर ग्रन्थ ‘‘संगीत-रत्नाकर’’ की रचना की। यह कहना भी अत्युक्ति नहीं है कि भरत के नाट्य शास्त्र मे जो संगीत संबधी तीन अध्याय है, संगीत रत्नाकर उसी का विस्तृत भाश्य है।
चौदहवीं शताब्दी के प्रारम्भ से नवीन राग-रागिनियों का जन्म हुआ। तत्पश्चात बाबर के शासनकाल में ख्याल, गजल एवं कव्वाली आदि गायन-शैलियों का आरम्भ हुआ संगीत में शृंगारिकता समाविष्ट होने के बाद भी शास्त्रीय संगीत उन्नति होती रही। बाबर के समकालीन कल्लिनाथ पण्डित ने ‘‘संगीत-रत्नाकर’’ की एक विस्तृत टीका लिखी। रामामात्य कृत ‘‘स्वरमेल-कलानिधि’’ भी इसी काल में लिखा गया।
मध्यकालीन संगीत के इतिहास का विवेचन करने पर यह विदित होता है कि इस काल में संगीतकला की अत्यधिक उन्नति हुई, अनेक नये रागों एवं तालों की रचना हुई तथा तराना, गलज, टप्पा व ख्याल जैसी गायन-शैलियां प्रचार में आयी।
6. आधुनिक काल –
18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारतवर्ष पर यूरोप निवासियों के आधिपत्य के परिणामस्वरूप संगीत का विकास बाधित हो गया। इस काल में भारतीय संगीत को कोई आश्रयदाता नहीं मिला इस कारण उसके गुण एवं परिणाम में निश्चित कमी आयी। ब्रिटिषकाल के पूर्वार्ध में भारतीय संगीत की स्थिति अत्यन्त शोचनीय हो गयी थी। रियासती राजा पहले संगीत से विषेश प्रेम-स्नेह रखते थे, किन्तु अंग्रेजी संस्कृति के वशीभूत होकर वे भारतीय संगीत की उपेक्षा करने लगे। परिणामत: वंश-परम्परा के श्रेष्ठ संगीतज्ञ अपने वंशजों एवं प्रतिनिधियों के पास अपनी श्रेष्ठतम कला को छोड़कर न जा सके। यही कारण है कि आज देष में प्रथम श्रेणी के कलाकार गिने-चुने ही है। इस संक्रमण-काल में भी भारतीय संगीत से प्रभावित होकर कैप्टन बिलार्ड और सर विलियम जोन आदि अंग्रेजी विद्वानों ने संगीत के पुन: जीवित करने का प्रयास किया तथा ‘‘ए ट्रीटाइज आन दि म्यूजिक ऑफ हिन्दुस्तान’’ जैसे संगीत सम्बन्धी पुस्तकें लिखी, जिससे समाज के शिक्षित वर्ग पर अच्छा प्रभाव पड़ा। इसी समय सौरेन्द्र मोहन ठाकुर ने ‘‘यूनिवर्सल हिस्ट्री आफ म्यूजिक’ नामक संगीत-ग्रन्थ की रचना की।
रवीन्द्र संगीत के प्रतिश्ठाता रवीन्द्र नाथ टैगोर ने 7 हजार छंदो की रचना अनेक गीत नाट्य और नृत्य नाटिकाओं की रचना की तथा उन्होंने 1920 में कलकत्ता में शांतिनिकेतन विश्वविद्यालय की स्थापना की1 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में मुहम्मद रजा ने ‘‘नगमाते-आसफी’’ नामक संगीत का समीक्षा-ग्रन्थ लिखा। इसी शताब्दी के मध्य में कृश्णानन्द व्यास ने राग-कल्पद्रुम’’ की तथा जयपुर के राजा प्रतापसिंह देव ने ‘‘संगीत-सार’’ नामक ग्रन्थ की रचना की। इसी समय में शास्त्रीय बन्धनों में शिथिलता होने के कारण संगीत की एक पृथक धारा ‘‘सुगम संगीत’’ भी क्रमष: जनमानस में प्रचलित होने लगी।
19वीं शताब्दी के मध्य में लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में संगीत पुर्नप्रतिश्ठित हुआ।
19वीं शताब्दी के मध्य में संगीत-जगत में पं0 विष्णु नारायण भातखण्डे तथा पं0 विष्णु दिगम्बर पलुस्कर दो महान विभूतियों का पदार्पण हुआ। पं0 विष्णु दिगम्बर पलुस्कर जी ने संगीत के उन्नयन हेतु सतत प्रयत्न किये। पं0 पलुस्कर जी ने सन 1908 मे बम्बई मे एक ‘‘गान्धर्व संगीत महाविद्यालय’’ स्थापित किया। उन्होंने ‘‘संगीत-बाल-बोध’’ संगीत-बालप्रकाश’’, ‘‘स्वत्पालापगायन’’, ‘‘संगीत-तत्वदर्शक’’, ‘‘राग-प्रवेश’’ एवं ‘‘भजनामृत’’ आदि संगीत सम्बन्धी 60 से अधिक पुस्तकों की रचना की। उन्होंने एक पृथक स्वरलिप-पद्धति भी आविष्कृत की।
पं0 विष्णुनारायण भातखण्डे जी ने भी संगीत के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने अत्यन्त ही सरल एवं सुबोधगामी स्वरलिपि-पद्धति का आविष्कार किया, जोकि आज अत्यन्त लोकप्रिय है। उन्होंने लक्षण-गीत नामक नवीन गायनषैली की रचना की, जिसमें राग का नाम, स्वरूप आरोह-अवरोह एवं जाति आदि अनेक विशेषताएं दी जाती है। पं0 भातखंडे जी ने संगीत-कला को शास्त्रीय आधार प्रदान करके उसे उच्चस्तरीय स्वरूप प्रदान किया। उन्होंने विभिन्न घरानों और प्रतिष्ठित गायकों को सुनकर, उनकी स्वरलिपि तैयार करके, उनका संकलित रूप ‘‘क्रमिक-पुस्तक-मालिका’’ के रूप में प्रकाशित कराया। उन्होंने थाट-पद्धति विकसित करके नियमबद्ध प्रणाली से गायन-वादन की प्रेरणा दी तथा 10 थाटों में राग वर्गीकरण किया। उन्होंने संगीत-शिक्षा प्रदान करने हेतु अनेक स्थानों पर संगीत-विद्यालयों की भी स्थापना की।
स्वतन्त्रता – प्राप्ति के साथ भारतीय संगीत ने भी करवट बदली। रियासतों के विलीनीकरण के उपरान्त भारतीय सरकार ने संगीत को संरक्षण प्रदान किया। स्वतन्त्र भारत में कला संस्कृति का विकास हुआ। भारत सरकार ने संगीतकला को प्रोतसाहन प्रदान करने हेतु पदमश्री एवं पदमविभूषण जैसे सम्माननीय राश्ट्रीय पदक प्रदान करने आरम्भ किये। इसी क्रम में प्रख्यात गायिका एम0एस0 सुब्बुलक्ष्मी को सन 1997 में भारत सरकार के सर्वोच्च पुरस्कार ‘‘भारतरत्न’’ से सम्मानित किया गया। सन 1953 में ‘‘संगीत नाटक अकादमी’’ की स्थापना की गयी थी तथा सन 1954 में ‘‘ललितकला अकादमी’’ की स्थापना हुई।
इस प्रकार राष्ट्रीय संरक्षण मिलने पर संगीतज्ञों एवं कलाकारों में प्रगति की ओर उन्मुख होने की एक तीव्र इच्छा प्रदीप्त हो उठी। आकाशवाणी ने भी संगीतकला के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया। सन 1952 से आकाशवाणी के द्वारा ‘‘अखिल भारतीय संगीत’’ का कार्यक्रम प्रसारित किया जाने लगा। भारतीय संविधान में राष्ट्रपति को राज्यसभा में कलाकारों को नामांकित करने का अधिकार दिया गया। अन्तर्राश्ट्रीय जगत में भी सांस्कृतिक सम्बन्धों को सृदृढ़ता प्रदान करने हेतु यूरोपीय एवं एशियाई देशों में सांस्कृतिक-मण्डलों का आदान-प्रदान किया गया। राष्ट्रीय-संगीत-महोत्सव तथा संगीत सम्बन्धी गोष्ठियों का आयोजन केन्द्रीय प्रान्तीय सम्भागीय एवं मण्डलीय स्तरों पर होता रहता है।
संगीत के छात्रों को प्रोत्साहन करने हेतु केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों द्वारा विविध छात्र-वृत्तियॉ प्रदान की जाती है। प्रारम्भ से लेकर उच्च शिक्षा तक संगीत एक विशय के रूप में पाठ्यक्रम में सम्मिलित हो चुका है। प्रयाग संगीत समिति इलाहाबाद, भातखण्डे संगीत सम विश्वविद्यालय लखनऊ, गान्धर्व महाविद्यालय पूना, स्कूल आफ इण्डियन म्यूजिक बम्बई, इत्यादि आकाशवाणी एवं दूरदर्शन द्वारा शास्त्रीय संगीत तथा सुगम संगीत के अन्तर्गत भजन, गीत व गजल आदि प्रसारित किये जाते है।
आधुनिक युग में संगीत जन-साधारण के अत्यन्त निकट है। बम्बई की ‘‘सुर सिंगार संसद’’ नामक संस्था प्रत्येक वर्ष युवा कलाकारों के लिए ‘‘कल के कलाकार’’ नामक संगीत-सम्मेलन आयोजित करके उन्हें ‘‘सुर-मणि’’ एवं ‘‘ताल-मणि’’ आदि अलंकरणों से विभूषित कर प्रोत्साहित करती है। आज हमारा भारतीय संगीत पूर्णत: विकासोन्नमुख है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत सरकार ने भी संगीत के विकास की ओर ध्यान दिया, रेडियो, संगीत सम्मेलनों, परीक्षाओं के लिये संगीत संस्थाओं की स्थापना, संगीत नाटक अकादमियों सांस्कृतिक केन्द्रों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों के फलस्वरूप आज संगीत की झंकार प्राय: प्रत्येक घर में गूंज रही है, मधुर संगीत की दिव्य लहरियाँ आज प्राय: प्रत्येक घर में गूँज रही है।
संगीत की उत्पत्ति
विद्वानों ने बतलाया है कि ध्वनि दो प्रकार की होती है-
- संगीतोपयोगी ध्वनि जिसे हम ‘नाद’ कहते हैं।
- संगीतेतर ध्वनि जिसे हम ‘राव’ कहते हैं।
सभी प्रकार की ध्वनि द्रव्य के कम्पन्न से होती है। जब हम तबले में मढ़े हुये चमड़े पर थाप मारते हैं तो हम अनुभव कर सकते हैं कि सारे चमड़े में एक प्रकार का कम्पन्न उत्पन्न होता है। चाहे नाद हो या राव, कम्पन्न से ही ध्वनि उत्पन्न होती है। अन्तर यह है कि राव के उत्पादक का कम्पन नियमित और सतत् (लगातार) होता है। इसी प्रकार राव माध्यम को भी क्षणिक अभिधात से आन्दोलित का अनुभव करता है किन्तु नाद से मध्यम और कान के पर्दे में नियमित स्पन्दन होता है।
नाद दो प्रकार का होता है-
- अनाहत और
- आहत
अनाहत नाद बिना किसी आघात में होता है वह संगीत के लिए उपयोगी नहीं होता क्योंकि वह रंजक नहीं है। उसका गुरू के द्वारा उपदिष्ट मार्ग योगी लोग अभ्यास करते है। वह मुक्तिदायक होता है।
आहतनाद आघात से उत्पन्न होता है। उस आहत ध्वनि को जिसमें नियमित और सतत् कम्पन होता है, संगीत में नाद कहते हैं।
नियमित और सतत् कम्पन्न का यह वैशिष्टय है कि वह रंजकता पैदा करता है। भौतिक नियमों के कारण इस प्रकार की ध्वनि करता है। भौतिक दृष्टि से ध्वनि की नियमितता और सत्ततता से ही संगीत का उद्भव होता है। वस्तुत भौतिक शास्त्र में हमें संगीत का उद्भव नहीं बतलाता है यह तो जब संगीत उद्भव हो चुका है तब उसका भौतिक विश्लेषण करके यह बतलाता है कि ‘नाद’ के आवश्यक तत्व क्या है। यह नाद का उद्भव नहीं लक्षण बतलाता है।
भारतीय संगीत के प्रकार
- हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत –
हिन्दुस्तानी संगीत के ज्यादातर संगीतज्ञ स्वयं को तानसेन की परंपरा का वाहक मानते हैं। ध्रुपद, ठुमरी, ख्याल, टप्पा आदि शास्त्रीय संगीत की अलग-अलग विधाएँ हैं। ऐसा कहा जाता है कि तानसेन के संगीत में जादू का सा प्रभाव था। वे यमुना नदी की उठती हुई लहरों को रोक सकते थे और ‘मेघ मल्हार’ राग की शक्ति से वर्षा करवा सकते थे। वास्तव में आज भी भारत के सभी भागों में उनके सुरीले गीत रुचिपूर्वक गाये जाते हैं। अकबर के दरबार में बैजूबावरा, सूरदास आदि जैसे संगीतकारों को संरक्षण दिया गया था। कुछ अत्यंत लोकप्रिय राग हैं बहार, भैरवी, सिंधु भैरवी, भीम पलासी, दरबारी, देश, हंसध्वनि, जय जयंती, मेघमल्हार, तोड़ी, यमन पीलू, श्यामकल्याण, खम्बाज आदि। भारत में वाद्य संगीत की बहुत विधएँ हैं। इनमें सितार, सरोद, सन्तूर, सारंगी जैसे प्रसिद्ध वाद्य हैं। पखावज, तबला, और मृंदगम ताल देने वाले वाद्य हैं। इसी प्रकार बाँसुरी, शहनाई और नादस्वरम् आदि मुख्य वायु वाद्य हैं।
हिन्दुस्तानी शास्त्रीय-संगीत के संगीतज्ञ सामान्यत: एक घराने या एक विशिष्ट विधि से संबंधित होते हैं। ‘घराना’ संगीतज्ञों की वंशानुगत संबद्धता से जुड़ा हुआ शब्द है, जो किसी खास संगीत विधि के सारभाग को सूचित करता है तथा अन्य रागों से विभिन्नता प्रदर्शित करता है। घराना, गुरु-शिष्य परंपरा से निर्धारित होते हैं, अर्थात् एक विशेष गुरु से संगीत की शिक्षा प्राप्त शिष्य समान घराने के कहलाते हैं। ग्वालियर घराना, किरण घराना, जयपुर घराना आदि जाने माने घराने हैं।
कीर्तन, भजन, राग जैसे भक्तिपूर्ण संगीत ‘आदिग्रंथ’ में समाहित हैं।
- कर्नाटक संगीत –
कर्नाटक संगीत की रचना का श्रेय सामूहिक रूप से तीन संगीतज्ञों श्याम शास्त्री, थ्यागराजा और मुत्थुस्वामी दीक्षितर को दिया जाता है, जो 1700 ई. से 1850 ई. के बीच के काल के थे। पुरंदरदास, कर्नाटक संगीत के एक दूसरे महत्त्वपूर्ण रचनाकार थे। थ्यागराजा का सम्मान एक महान कलाकार और संत दोनों रूपों में किया जाता है। वे कर्नाटक संगीत के साक्षात् मूर्त्त प्रतीक हैं। उनकी मुख्य रचनाओं को ‘‘कृति’’ के रूप में जाना जाता है, जो भक्ति प्रकृति की है। तीन महान संगीतज्ञों ने नए तरीकों का प्रयोग किया।
महावैद्यनाथ अययर (सन् 1844-93), पतनम सुब्रह्मण्यम आयंगर (सन् 1854-1902 ई.), रामनद श्रीनिवास आयंगर (सन् 1860-1919 ई.) आदि कर्नाटक संगीत के अन्य महत्त्वपूर्ण संगीतज्ञ हैं। बाँसुरी, वीणा, नादस्वरम्, मृदगम्, घटम् कर्नाटक संगीत में प्रयुक्त मुख्य वाद्ययंत्रा हैं।
हिन्दुस्तानी और कर्नाटक संगीत में कुछ असमानताओं के बावजूद उनमें कुछ समान विशेषताएं मौजूद है, जैसे कर्नाटक संगीत का ‘आलपन’ हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के ‘आलाप’ के समान है। कर्नाटक संगीत में व्यवहृत ‘तिलाना’ हिन्दुस्तानी संगीत के ‘तराना’ से मिलता जुलता है। दोनों संगीत विधएं ‘ताल’ या तालम् पर जोर देते हैं।
- आधुनिक भारतीय संगीत –
अंग्रेजी शासन के साथ पश्चिमी संगीत भी हमारे देश में आया। भारतीय संगीत की मांग को संतुष्ट करने के लिए भारतीयों ने वायलिन और शहनाई वाद्ययंत्रों को अपनाया। मंच पर संगीत का वृन्दवादन एक नया विकास है। कैसेटों के उपयोग ने धुनों और रागों के मौखिक प्रदर्शन को प्रतिस्थापित कर दिया है। संगीत, जो कुछ सुविधा-सम्पन्न ध्नी लोग के बीच ही सीमित था, अब व्यापक जनता को उपलब्ध है। देश में मंचीय प्रदर्शनों के द्वारा हजारों संगीत प्रेमी आनंद उठा सकते हैं।
संगीत की शिक्षा अब गुरु-शिष्य व्यवस्था पर ही निर्भर नहीं है, अब इसकी शिक्षा संगीत सिखाने वाले संस्थानों में भी दी जाती है। अमीर खुसरो, सदारंग अदरंग, मियां तानसेन, गोपाल नायक, स्वामी हरिदास, पंडित वी. डी. पलुस्कर, पंडित वी.एन. भातखंड़े, थ्यागराजा, मुत्थुस्वामी दीक्षितर, पंडित ओंकारनाथ ठाकुर, पंडित विनायक राव पटवर्द्धन, पंडित भीमसेन जोशी, पंडित वुफमार गंध्र्व, केसरबाई केरकर तथा श्रीमती गंगूबाई हंगल आदि प्रमुख संगीत गायक हैं।
वादकों में पंडित रविशंकर प्रमुख संगीतज्ञ हैं।
- लोक संगीत –
शास्त्रीय संगीत के अतिरिक्त भारत के पास लोक संगीत या लोकप्रिय संगीत की एक समृद्ध विरासत है। यह संगीत जनभावनाओं को प्रस्तुत करता है। साधरण गीत, जीवन के प्रत्येक घटनाओं को चाहे वह कोई पर्व हो, नई त्रतु का आगमन हो, विवाह या किसी बच्चे के जन्म का अवसर हो, ऐसे उत्सव मनाने के लिए रचे जाते हैं। राजस्थानी लोकसंगीत जैसे मांड़, भाटियाली और बंगाल की भटियाली पूरे देश में लोकप्रिय है। रागिनी हरियाणा का प्रसिद्ध लोक गीत है।
लोक गीतों का एक खास अर्थ तथा संदेश होता है। वे अक्सर ऐतिहासिक घटनाओं और महत्त्वपूर्ण अनुष्ठानों का वर्णन करते हैं। कश्मीरी ‘गुलराज’ सामान्यत: एक लोक कथा है। मध्य प्रदेश का ‘पंड्याणी’ भी एक कथा है, जिसे संगीतबद्ध कर प्रस्तुत किया जाता है।