सुभाष चंद्र बोस का जीवन परिचय
सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी, 1897 ई. को उड़ीसा में हुआ था। सुभाष चंद्र बोस के पिता का नाम जानकी नाथ बोस था और माता प्रभावती थी। सुभाष चंद्र बोस के पिता वकील थे। सुभाष चंद्र बोस अपने चौदह भाई बहनों में छठें पुत्र और नवीं संतान थे। सुभाष चंद्र बोस का परिवार एक मध्यमवर्गीय परिवार था।
लगभग 5 वर्ष की उम्र में सुभाष चंद्र बोस को स्कूल भेजा गया उस समय वे बहुत खुश हुए। कटक के ही प्रोस्टेन्ट यूरोपियन मिशनरी स्कूल में सुभाष का दाखिला करा दिया गया। वे अपने प्रधानाध्यापक बेनी माधव दास से बहुत प्रभावित हुए। स्कूली शिक्षा समाप्त करने के पश्चात कलकत्ते के प्रसिद्ध प्रेसीडेन्सी कॉलेज में उन्होंने दाखिला लिया। यह सरकारी कॉलेज था साथ इसका बहुत नाम भी था। इस में सभी प्रकार के छात्र पढ़ते थे।
15 सितम्बर, 1919 को सुभाष चंद्र बोस इंग्लैण्ड रवाना हो गए। उनकी इच्छा देशसेवा करने की थी न कि ब्रिटिश सरकार की नौकरी। परंतु माता-पिता की इच्छा को शिरोधार्य कर उन्होंने इंग्लैण्ड जाने का मन बना लिया। इंग्लैण्ड का खुला वातावरण सुभाष चंद्र बोस को बहुत रास आया उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में दाखिला लिया सुभाषचंद्र का मन अभी देश सेवा के लिए ही तड़प रहा था। I.C.S की परीक्षा में जुटने के साथ-साथ भारत की दुर्दशा पर सुभाष का मन रोता। सुभाष चंद्र बोस को आई.सी.एस. की परीक्षा की तैयारी हेतु केवल 8 माह का समय मिला परंतु अपनी प्रतिभा के दम पर कम समय में ही उन्हें चौथा स्थान प्राप्त हुआ। सबसे पहले उन्होंने अपने माता-पिता को यह सूचना दी।
उल्लेखनीय है कि यह फैसला स्वयं सुभाष का नहीं था अत: वे प्रसन्न नहीं थे। पुन: उनके मन में उथल-पुथल चल रही थी अब किस विकल्प को चुना जाए। यह फैसला अत्यंत महत्वपूर्ण भी था। ब्रिटिश सरकार की नौकरी करें या देश सेवा जिसका स्वप्न बचपन से ही सुभाषचंद्र के मन में बसा था। कई तरह से पारिवारिक, ऐशो आराम की जिंदगी आदि का दबाव बनाया गया परंतु सभी प्रयास असफल रहे और अंतत: सुभाष चंद्र बोस ने I.C.S से त्यागपत्र देकर भारत आने का निर्णय किया।
1921 में सुभाष चंद्र बोस ने त्यागपत्र देकर भारत आने का फैसला किया। भारत आने से पूर्व उन्होंने देशबंधु चितरंजन दास से संपर्क किया। इस प्रकार अब भारत में आकर उन्होंने राष्ट्र सेवा का मन बना लिया और इस तरह भारतीय राजनीति में आने की उनकी भूमिका तैयार हो गई।
सुभाष चंद्र बोस का भारतीय राजनीति में प्रवेश
मुंबई आगमन व गाँधी जी से भेंट –
सुभाष चंद्र बोस विदेश में रहते हुए भी स्वदेश की तत्कालीन राजनैतिक उथल-पुथल से अनभिज्ञ न थे। उनका मन-मस्तिष्क हर समय देश की समस्याओं के प्रति जागरूक और उत्सुक बना रहता था। अंतत: I.C.S की परीक्षा में सफलता के पश्चात त्यागपत्र दे देना देशप्रेम व मातृभूमि के प्रति अपने कर्तव्य पालन का अद्वितीय उदाहरण था। I.C.S में चयन के बाद उन्हें भारतीय राजनीति में प्रवेश करना था। इसी दौरान वे भारत वापिस आ गए। राजनीतिक प्रवेश से पूर्व संपूर्ण भारतीय राजनीति की जानकारी अर्जित करना आवश्यक था इसके लिए उन्होंने विभिन्न भारतीय नेताओं से संपर्क करने का निश्चय किया। उस समय भारतीय राजनीति के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति थे महात्मा गाँधी। अत: उन्होंने सबसे पहले उन्हीं से मिलना उचित समझा।
16 जुलाई, 1921 को सुभाष चंद्र बोस बंबई पहुँचे। इसी दिन उन्होंने महात्मा गाँधी से मुलाकात की। वे गाँधी जी के विचारों से अवगत होना चाहते थे। अपनी पहली मुलाकात पर बोस ने कुछ इस तरह विचार व्यक्त किए हैं। “मुझे बस दोपहर की अच्छी तरह याद है जब मैं गाँधी जी से मिलने मणि भवन गया, जहाँ वह बंबई आने पर सदैव ठहरते थे। जिस कमरे में वह बैठे थे उसमें फर्श पर कालीन बिछी हुई थी और गाँधी जी दरवाजे की ओर अपना मुख किये अनेक शिष्यों के साथ कमरे के बीच में बैठे हुए थे। कमरे में खादी से बने सामान थे। मैं जब कमरे में घुसा तो मुझे इस बात से बड़ी ग्लानि हुई कि मैं विदेशी वस्त्र पहने हुए हूँ। इसके लिए मैं स्वयं अपने को क्षमा नहीं कर सकता था। गाँधी जी ने मुस्कान के साथ मेरा स्वागत किया और मुझे बैठने को कहा। उन्होंने मुझसे बात की मैंने उनसे भारत में विदेशी प्रभुत्व समाप्त करने की योजना के बारे में पूछा और कहा कि इस संबंध में वे कौन सा रास्ता अपनायेंगे। मैंने प्रश्नों की झड़ी लगा दी पर उन्होंने बड़े धैर्य के साथ मेरे प्रत्येक प्रश्न का उत्तर दिया।”
महात्मा गांधी ने सुभाष चंद्र बोस के सभी प्रश्नों का उत्तर दिया परंतु बोस संतुष्ट न हो सके। उस समय महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन संपूर्ण वेग पर था। असहयोग आंदोलन से संबंधित प्रश्न भी उन्होंने पूछे किस प्रकार वे एक वर्ष में स्वराज दिला देंगे आदि प्रश्नों के उत्तर उन्होंने चाहे गांधी जी के जबाबों से वे संतुष्ट न हो सके। उल्लेखनीय है कि सुभाष चंद्र बोस ने भारत में और विदेश में रहते हुए क्रांतिकारियों के विचारों को पढ़ा, क्रांतिकारी आंदोलनों, उनके कार्य कार्य प्रणाली, और विचारों का अध्ययन किया। वैसे भी सुभाष चंद्र बोस का झुकाव अहिंसा की नीति में नहीं था अत: स्वाभाविक है कि वे अहिंसा के पुजारी के जबावों से असंतुष्ट रहे। बोस ने अपनी आत्मकथा The Indian Struggle में लिखा है जिस समय वे गांधी जी से मिले उस समय उनकी आयु 24 वर्ष थी और गांधी जी 52 वर्ष के थे लगभग 28 वर्ष का भारी अंतर भी था। सुभाष चंद्र बोस का मानना था कि स्वयं गांधी जी के मन में अपने ही कार्यक्रम की कोई स्पष्ट रूपरेखा नहीं थी। गांधी जी भी यह बात भांप गए कि बोस उनसे संतुष्ट नहीं है अत: उन्होंने सुभाषचंद से देशबंधु चितरंजन दास से भेट करने कि सलाह दी।
देशबंधु चितरंजन दास से भेंट व राजनीतिक गुरू बनाना –
उल्लेखनीय है कि सुभाषचंद्र कॉलेज के विवाद के समय भी चितरंजन दास से मिल चुके थे। उन्होंने इग्लैण्ड से भी उन्हें पत्र I.C.S से त्यागपत्र देने की बात से अवगत करा कर भारत आने पर कार्य करने कि इच्छा प्रकट की थी। देशबंधु ने सुभाषचंद्र को यह आश्वासन भी दिया था कि उन्हें भारत आने पर काम की कमी नहीं होगी। सुभाष चंद्र बोस ने यह समाचार भी सुन रखा था कि देशबंधु ने अपनी चलती वकालत छोड़कर अपना सारा समय व जीवन देश के नाम कर दिया है और अपनी सारी संपत्ति उन्होंने राष्ट्र के नाम कर दी। इससे बोस बहुत प्रभावित हुए। सुभाषचंद्र जब देशबंधु चितरंजन से मिलने पहुंचे तो उनसे भेंट न हो सकी परंतु उनकी पत्नी वासंती देवी से मिल कर उनके व्यवहार से बहुत प्रभावित हुई जिस का वर्णन सुभाषचंद्र ने कुछ इस तरह से किया “यह वह मि. दास नहीं थे, जिनके पास मैं परामर्श के लिए तब गया था जब वे कलकत्ता के बैरिस्टर थे और मैं राजनीतिक कारणों से कॉलेज से बहिष्कृत एक छात्र। यह वह मि. दास नहीं थे जो दिन भर में हजारों रूपये लुटाते और घंटों में हजारों रूपये कमाते थे। हालांकि यह वहीं मि. दास थे जो सदा ही युवाओं के मित्र बने रहे, उनकी आकाक्षांओं और तकलीफों को समझते रहे और उनके प्रति हमदर्दी से पेश आते रहे। उनके साथ वार्ता के क्रम में मुझे यह एहसास होने लगा था कि ये एक ऐसे इंसान हैं जिन्हें अपना मकसद बखूबी मालूम था, जो अपना सर्वस्व अर्पण कर सकते थे और दूसरों से भी अपना सब कुछ मांग सकते थे। जब हमारी बातचीत समाप्त हुई तो मेरा मन तैयार हो चुका था। मुझे ऐसा महसूस हुआ कि जैसे मुझे वह आदमी मिल गया जिसे में अपना नेता मान सकता हू। मैंने उनका अनुसारण करने का पक्का इरादा बना लिया।”
इस तरह चिरंजन दास से मिलने पर सुभाषचंद्र को अपना रास्ता मिल गया जिस पर चल कर उन्हें आजादी का रास्ता तय करना था। अब यह निश्चित हो गया था कि राजनीति में वे गांधीवादी विचार धारा के अनुरूप कार्य न करके क्रांतिकारी रास्ता ही अपनायेंगे। अपने विचारों को कार्यरूप में परिणित करने हेतु भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में प्रवेश हेतु अध्ययन प्रारंभ किया।
कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में सुभाष चंद्र बोस
कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में हरिपुरुरा अधिवेशन 1938 ई. और त्रिपुरुरी अधिवेशन 1939 ई.
सुभाष चंद्र बोस के विचारों से युवा वर्ग बहुत प्रभावित होता जा रहा था। गैर समझौतावादी नेता के रूप में वे प्रसिद्ध होते गए। अपने कार्यों को करने के लिए उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद स्वीकार किया। इस समय सुभाष चंद्र बोस ने अध्यक्ष पद सुशोभित किया। इस समय सुभाष चंद्र बोस के विचार परिपक्व हो चुके थे और कांग्रेस के मंच पर पहुंच चुके थे। 28 जनवरी, 1938 को कांग्रेस के महामंत्री जे.बी. कृपलानी ने घोषणा की कि सुभाष चंद्र बोस कांग्रेस के 51 वें अधिवेशन के अध्यक्ष निर्वाचित किए गए हैं। यह अधिवेशन गुजरात के हरिपुरा में संपन्न हुआ। यह अधिवेशन 1938 में हुआ। सुभाष चंद्र बोस ने अपने अध्यक्षीय भाषण में देश के शहीदों को श्रद्धांजलि दी और इस बात पर बल दिया कि कोई भी साम्राज्य स्थायी नहीं है। रोमन, तुर्की, आस्ट्रिया, हंगरी आदि साम्राज्य पश्चिम के महान साम्राज्य थे लेकिन वे भी नहीं रहे। इसी तरह स्वयं भारत में शक्तिशाली मौर्य, गुप्त और मुगल साम्राज्य धूल में मिल गए। अत: यह निश्चित है कि ब्रिटिश साम्राज्य का अंत भी होगा।
सुभाष चंद्र बोस का मानना था कि ब्रिटिश सरकार पर मुसीबत के समय हमला करना चाहिए और ब्रिटिश सरकार के शत्रुओं को अपना मित्र मानना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि “अगर हम किसी और समय लड़ाई प्रारंभ करेंगे तो ब्रिटिश साम्राज्यवाद आंदोलन के दमन के लिए अपनी सारी सैनिक ताकत झौंक देगा। मगर अभी चूंकि वह विभिन्न मोर्चों पर उलझा हुआ है, इसलिए वह ऐसा नहीं कर पायेगा। शत्रु जब कमजोर हो, तभी उस पर हमला कर उसे पराजित करना आसान होता है।” सुभाष चंद्र बोस के अध्यक्ष बनने से गांधीवादी चिंतित थें दूसरी ओर सुभाष चंद्र बोस पुन: अध्यक्ष बनना चाहते थे साथ ही युवा वर्ग व अन्य नेताओं का भी मत था कि सुभाष चंद्र पुन: अध्यक्ष पद पर आसीन हों। सुभाष चंद्र बोस को पराजित करने हेतु दूसरे उम्मीदवार को खड़ा किया गया।
21 जनवरी, 1939 को अपनी उम्मीदवारी घोषित करते हुए उन्होंने कहा कि वे नए विचारों और नई विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा उन समस्याओं और कार्यक्रमों का भी, जिनका आविर्भाव भारत में साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष के क्रमश: तेज होने से हुआ है। उल्लेखनीय है कि पट्टाभिसीता रमैया का नामांकन बगैर उनकी जानकारी में हुआ। पट्टाभिसीता रमैया महात्मा गांधी के उम्मीदवार थे। सरदार वल्लभ भाई पटेल और राजेन्द्र प्रसाद जैसे कई नेताओं ने सुभाष चंद्र बोस को अपना नाम वापिस लेने को भी कहा परंतु बोस अपने विचार पर दृढ़ रहे। सुभाष चंद्र बोस 1377 के मुकाबले 1580 मतों से जीत गए। समस्त गांधी वादियों में निराशा छा गई दूसरी ओर सुभाष चंद्र बोस के पक्ष मे खुशियां का माहौल बन गया। महात्मा गांधी ने डॉ. पट्टाभिसीता रमैया की हार को अपनी हार माना। इस समय गांधी जी और बोस के मध्य मतभेद बना रहा। इन सब के बाद भी सुभाष चंद्र बोस ने बयान दिया कि “गुलामी और गरीबी ये दोनों आज देश के समक्ष मुख्य समस्या के रूप में हैं। अब गुलामी की बेड़ियां टूटेंगीं और उसके स्थान पर स्वाधीनता की बुनियाद का निर्माण होगा। राजनीतिक स्वराज के साथ-साथ हमें आर्थिक स्वराज भी चाहिए।”
गाँधीवादियों से मतभेद और पंत प्रस्स्ताव –
सुभाष चंद्र बोस का विरोध लगातार बढ़ता ही जा रहा था। गाँधीवादी किसी तरह से बोस का सहयोग नहीं कर रहे थे जबकि सुभाष चंद्र बोस चुनाव तो जनता के सहयोग से ही जीते परंतु उन्हें अपनी नीतियों को कार्य रूप में करने के लिए किसी भी प्रकार का सहयोग नहीं मिल रहा था। सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में यह प्रस्ताव रखा कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को छ: महीने के भीतर स्वतंत्रता की माँग करते हुए सरकार को एक अल्टीमेटम भेजना चाहिए व संघर्ष हेतु तैयारी भी प्रारंभ करनी चाहिए। लेकिन गाँधीवादियों ने इसका प्रबल विरोध किया और इसे अस्वीकार दिया।
इसी दौरान गाँधीवादियों ने पंत प्रस्ताव पारित किया। कांग्रेस के संविधान के अनुसार कार्यसमिति के सदस्यों के मनोनयन का अधिकार एकमात्र निर्वाचित अध्यक्ष को ही था। मगर इस अधिवेशन में गोविन्द वल्लभ पंत ने यह प्रस्ताव पेश किया कि कांग्रेस का अध्यक्ष चाहे कोई भी हो, कार्यसमिति के मनोनयन से पहले उन्हें गाँधी जी की अनुमति लेनी होगी। दूसरे शब्दों में, चाहे अध्यक्ष कोई भी हो, कार्यसमिति गाँधीवादियों के ही कब्जे में होगी। अंतत: ‘पंत प्रस्ताव’ पारित हो गया। अब सुभाष चंद्र बोस के समक्ष दो ही मार्ग थे या तो वे गाँधीवादियों की कठपुतली बन कर कार्य करें या फिर अपने सिद्धांतों पर दृढ़ रहते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दें।
कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र और फॉरवर्ड ब्लाक की स्थापना
गांधीवादियों का असहयोग, अस्वस्थता व त्याग-पत्र –
इस प्रकार दृष्टिगोचर होता है कि सुभाष चंद्र बोस को अपने सिद्धांतों से समझौता करने के लिए बाध्य किया जा रहा था, परंतु सुभाष जैसे व्यक्तित्व हिमालय कि भांति होते हैं जिन्हें अनैतिक तरीके से झुकाया नहीं जा सकता। स्वाभाविक रूप से सुभाष चंद्र बोस को दूसरा रास्ता अर्थात् कठपुतली अध्यक्ष कि अपेक्षा त्याग-पत्र देना अधिक उचित प्रतीत हुआ और अंतत: उन्होंने इस्तीफा दे दिया। सुभाष चंद्र बोस यदि चाहते तो अध्यक्ष पद कि लालसा में देश सेवा को अनदेखा कर सकते थे, परंतु राष्ट्र सेवा से बढ़ कर उनके लिए कुछ नहीं था। सुभाष चंद्र बोस ने कहा कि “त्रिपुरी में वाकई हमारी हार हुई थी। परंतु यह बारह प्रभावशाली व पुराने नेताओं, सात प्रांतीय मंत्रियों, जवाहर लाल नेहरू और महात्मा गांधी के नाम प्रभाव और प्रतिष्ठा के खिलाफ बिस्तर पर पड़े एक अकेला बीमार व्यक्ति का संघर्ष था।” उल्लेखनीय है कि उस समय बोस तीव्र ज्वर से पीड़ित थे। बोस ने बार-बार गांधी जी से अनुरोध भी किया कि इस संकट में हस्तक्षेप कर इसे समाप्त करें, परंतु उन्होंने किसी प्रकार की बात नहीं सुनी।
देश सेवा के लिए फॉरवर्ड ब्लाक की स्थापना –
गांधीवादियों कि अटकलों से बोस को लगने लगा कि कांग्रेस से अधिक उम्मीद करना अब ठीक नहीं होगा। इसलिए कांग्रेस के अंदर सभी वामपंथी ताकतों को एकजुट करने के मकसद से सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस के अंदर एक और प्रगतिशील एवं क्रांतिकारी पार्टी तैयार करने के बारे में सोचा। इस तरह ‘फॉरवर्ड ब्लाक’ की स्थापना हुई। इस नये संगठन के निर्माण के पश्चात् सुभाष ने अंग्रेजों के विरूद्ध एक समझौताहीन आंदोलन चलाने का आहवान किया। फलस्वरूप उन पर अनुशासन भंग करने का आरोप लगाया गया और उन्हें छ: वर्षों के लिए निलंबित कर दिया गया। अजीब बात तो यह रही कि कांग्रेस में सुभाष का अध्यक्ष पद पर चुनाव ही इसलिए हुआ था कि वे अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष को नेतृत्व प्रदान कर सकें आज उसी कांग्रेस से उन्हें उसी संघर्ष को तेज करने के ‘अपराध’ में निकाला जा रहा है।
एक बात उल्लेखनीय है कि सुभाष चंद्र बोस का व्यक्तित्व विपरीत परिस्थितियों में विचलित नहीं हुआ बल्कि इस संघर्ष ने उन्हें और मजबूत बना दिया। तमाम किस्म के दबाव, द्वन्द और विरोध के बीच एक निडर, निभ्र्ाीक और अदम्य व्यक्तित्व के रूप में उनका चरित्र और व्यक्तित्व खिल उठा। उन्होंने स्वयं कहा है, “अध्यक्ष पद का चुनाव और उसका परिणाम यद्यपि दुर्भाग्यपूर्ण था पर इससे मेरी राजनीतिक चेतना को तेज होने में काफी मदद मिली। आगे बढ़ने के लिए आखिरकार यह एक प्रेरणा स्त्रोत के रूप में ही सिद्ध हुआ।”
इस प्रकार सुभाष चंद्र बोस के लिए कांग्रेस अध्यक्ष पद कांटों के ताज के समान रहा। गांधीवादियों के असहयोग के कारण उन्हें कार्य करने में कई मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था। ऐसी स्थिति में गतिरोध से राष्ट्र का भी अहित ही हो रहा था। और ब्रिटिश सरकार पुन: हमारी फूट का लाभ उठाने को तैयार थी। अत: सुभाष चंद्र बोस ने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देकर कुछ हद तक गतिरोध दूर करने का प्रयत्न किया। सुभाष चंद्र बोस ने समस्त असहयोगियों की मदद से फॉरवर्ड ब्लाक की स्थापना की और देश की आजादी के लिए प्रयास करने लगे।
सुभाष चंद्र बोस व आई.एन.ए.
सुभाषचंद्र बोस द्वारा भारत छोड़ना –
सुभाष चंद्र बोस का मानना था कि यदि आजादी प्राप्ति हेतु विदेशी सहायता की आवश्यकता पड़े तो बिना संकोच विदेशी मदद लेनी चाहिए चाहे वह मदद ऋण के रूप में ही क्यों न हो। सुभाष चंद्र बोस कि गतिविधियों से ब्रिटिश सरकार अत्यंत भयभीत रहती थी इसी कारण उनकी प्रत्येक गतिविधि पर सरकार कि पैनी दृष्टि रहती थी। कांग्रेस का अधिवेशन रायगढ़ में हुआ। सुभाष चंद्र बोस ने ‘समझौता विरोधी सम्मेलन’ का आयोजन किया। इससे कांग्रेस के नेता और असंतुष्ट हो गए। द्वितीय विश्व युद्ध के बादल घिर चुके थे। महात्मा गांधी व्यक्तिगत सत्याग्रह प्रारंभ करने पर विचार कर रहे थे। दूसरी तरफ सुभाष चंद्र बोस ने बंगाली जनता को हालवेल-स्मारक को हटा देने एवं सामूहिक आंदोलन प्रारंभ करने के लिए एकजुट कर लिया था। ब्रिटिश सरकार को समझते देर नहीं लगी कि सुभाषचंद्र किसी तूफान की तैयारी कर रहे हैं। इस कारण उन्हें जेल में डालना ही उचित था। सुभाषचंद्र जेल में रहकर नहीं जीना चाहते थे अत: उन्होंने अनशन प्रारंभ कर दिया और उन्हें रिहा कर दिया गया। परंतु उनके घर पर सरकार की कड़ी निगरानी थी। लेकिन फिर भी वे भागने में सफल रहे।
सुभाष चंद्र बोस द्वारा उपवास प्रारंभ किए जाने के कारण उनकी हालत खराब होती जा रही थी। सरकार को भय था कि सुभाष चंद्र बोस को यदि कुछ हो गया तो भारतीय जनता को काबू करना कठिन हो जायेगा और सरकार के लिए यह खतरनाक साबित हो सकता है। अत: 1940 में उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया। वे कलकत्ता में अपने पूर्वजों के मकान में ही रहने लगे। सरकार उन पर नजर रखे हुए थी परंतु पठान का वेश बना कर वे भाग गए। सुभाष चंद्र बोस को घर से भागने में सहायता उनके भतीजे शिशिर कुमार बोस ने की थी। बोस कि कलकत्ते से बर्लिन तक की यात्रा महत्वपूर्ण थी। इस घटना की तुलना हम शिवाजी द्वारा औरंगजेब की कैद से भाग निकलने से कर सकते हैं। दाढ़ी बड़ी करके सुभाष चंद्र बोस कभी बस तो कभी रेल यात्रा करते हुए पेशावर पहुंच गए। दाढ़ी ने पुलिस की आंखों में खूब धूल झोंकी और पठान जियाउद्दीन के वेश में उन्होंने एक काफिले के साथ सीमा पार की और काबुल पहुंच गए। अंत में एक व्यक्ति के पासपोर्ट का उपयोग करके सुभाष चंद्र बोस जर्मनी पहुंच गए।
सुभाष द्वारा INA का नेतृत्व संभालना –
जून, 1943 में सुभाष चंद्र बोस टोकियो आ गये। 4 जुलाई को श्री रासबिहारी बोस ने सविधि उन्हें ‘आजाद हिंद फौज’ का सेनापति बना दिया। इसके पश्चात् सुभाष की अद्भुत संगठन शक्ति को सारे विश्व ने सराहा। वस्तुत: आजाद हिंद फौज का गठन 1941 में प्रसिद्ध क्रांतिकारी रास बिहारी बोस ने किया था। सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज को संगठित कर दिल्ली चलो का नारा दिया। सुभाष बिग्रेड, गांधी ब्रिगेड, नेहरू ब्रिगेड और आजाद ब्रिगेड- इस प्रकार चार ब्रिगेडों में सेना का वितरण किया गया था। कैप्टन लक्ष्मी सहगल की देख-रेख में महिलाओं की अलग ‘झांसी रानी रेजीमेंट’ का गठन किया गया। सुभाष चंद्र बोस ने ‘दिल्ली चलो’ और ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूंगा’ का नारा दिया। सुभाष की अदुभुत नेतृत्व क्षमता से INA सुसज्जित हो गई थी।
स्वाधीनता आंदोलन में आई.एन.ए. की भूमिका
आई.एन.ए. की कार्यवाही –
सुभाष चंद्र बोस मे लोगों को संगठित करने की विशेष क्षमता थी। इसका परिचय आई.एन.ए. को संगठित करने में मिलता है। आजाद हिंद सेना में अधिकांश वे सैनिक शामिल थे जो ब्रिटिश सेना के सदस्य थे और जिन्हें जापानियों ने पराजित करके बंदी बना लिया था। ब्रिटिश सेना से लड़ने के लिए जापान सरकार ने इन भारतीय सैनिकों को स्वतंत्र करके उन्हें ब्रिटिश विरोधी संगठन बनाने की अनुमति दे दी थी। सैनिक दृष्टि से कुशल न होने के बावजूद सुभाष चंद्र बोस के प्रभावशाली व्यक्तित्व, संगठन क्षमता एवं ओजस्वी भाषण से प्रेरित होकर आजाद हिंद फौज के सैनिकों ने अंग्रेजों के खिलाफ बहादुरी से लड़ाई लड़ी। ये सैनिक वर्मा को विजित करते हुए असम तक पहुंच गये। उन्होंने मणिपुर को भी अपने प्रभाव में ले लिया। अण्डमान-निकोबार द्वीप भी स्वतंत्र किए जा चुके थे। अण्डमान द्वीप का नाम ‘शहीद द्वीप’ व निकोबार द्वीप का नाम ‘स्वराज द्वीप’ रखा गया। 21 अक्टूबर, 1943 को सुभाष चंद्र बोस ने सिंगापुर में आजाद भारत की अस्थाई सरकार की घोषणा कर दी। जापान, जर्मनी, इटली, चीन आदि विभिन्न सरकारों ने आजाद हिंद सरकार की स्वतंत्र सत्ता को एकमत से स्वीकार कर लिया। आजाद हिंद सेना के सैनिक स्वयं को हिन्दू-मुस्लिम, सिख-ईसाई नहीं मानते थे बल्कि स्वयं को भारतीय मानकर कार्य कर रहे थे। आजाद हिंद सेना के पास साधनों की कमी थी हौसले की नहीं। सुभाष चंद्र बोस भाषणों द्वारा धन एकत्र करते उपहार में आई चीजों को नीलाम करके जो धन प्राप्त होता उसे आजाद हिंद सेना पर खर्च करते। वस्तुत: यह पर्याप्त नहीं होता था।
सुभाष चंद्र बोस सेना में उत्साह भर देते थे। आपस में अभिवादन के लिए वे एक दूसरे से ‘जय हिंद’ का प्रयोग करते। जिससे राष्ट्रीय भावना का प्रचार बढ़ता। सेना में नवीन उत्साह का संचार होता। सुभाष चंद्र बोस ने ‘दिल्ली चलो’ ‘तुम मुझे खून दो में तुम्हें आजादी दूंगा’ ‘जय हिंद’ का नारा दिया। आजाद हिंद सेना ने सुभाष चंद्र बोस के अनेक ऐसे गुणों पर भी प्रकाश डाला है जो अब तक छिपे ही रहते। उनकी संगठन शक्ति का ऐसा परिचय पहले कभी नहीं मिला था उनके द्वारा 18-18 घंटे तक निरंतर काम करने की क्षमता का ज्ञान भी सबको न हो पाया था। यह बात सत्य है कि यदि सुभाष चंद्र बोस को आजाद हिंद फौज का नेतृत्व करने का अवसर प्राप्त न होता तो उनके व्यक्तित्व के विशिष्ट पहलू से हम अनभिज्ञ ही रहते।
सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु
आजाद हिंद फौज की वीरता को कम नहीं कहा जा सकता क्योंकि जिन परिस्थितियों में उसने कार्य किया उनका प्रयास सराहनीय था। आजाद हिंद फौज की प्रासंगिकता और उसकी कार्यप्रणाली तथा सफलता, असफलताओं पर विभिन्न मत प्रकट किये गए हैं। इतिहासकार सुमित सरकार के अनुसार ‘केवल सैन्य दृष्टि से तो आजाद हिंद फौज का महत्व अधिक नहीं रहा और यदि वह अधिक प्रभावी रही भी होती तो उसका आगमन बहुत देर से हुआ था, क्योंकि 1944 तक धुरी शक्तियां सर्वत्र पीछे हटने लगी थी।’ इतिहासकार ताराचंद्र ने आजाद हिंद फौज के महत्व पर कई प्रकार से प्रकाश डाल है उनके अनुसार -”भारत का प्रबल ब्रिटिश साम्राज्य के संकुचित दायरे से निकल कर अंतराष्ट्रीय राजनीति के विस्तृत क्षेत्र में चला गया।” आजाद हिंद फौज के कार्यों को सदैव इतिहास में विशिष्ट स्थान प्राप्त रहेगा। जिस प्रकार आजाद हिंद सेना का प्रयास रहा संभवत: वैसा प्रयास दूसरा दृष्टिगोचर नहीं होता है।
वस्तुत: हमें दृष्टिगोचर होता है कि लगातार विपरीत परिस्थितियों में कार्य करते हुए भी आजाद हिंद फौज प्रयासरत थी परंतु जापानी सेना के पीछे हटने से आजाद हिंद फौज को भी पीछे हटना पड़ा और उनका प्रयास असफल हो गया। सुभाष चंद्र बोस और आजाद हिंद फौज के प्रयासों को सफलता-असफलता से जोड़ कर देना अनुचित होगा। सेना के सामने कई तरह कि दिक्कतें थीं जिससे निश्चित रूप में उनका कार्य व प्रयास प्रभावित हुआ। एक तरफ साधनों से सुसज्जित सेना थी तो दूसरी ओर साधनहीन सैनिक। आजाद हिंद सेना के पास धन, परिवहन, चिकित्सा, हथयारों, बंदूकों, तोपखानों आदि की कमी थी। रसद संबंधी परेशानियों से भी दो चार होना पड़ा। इतिहासकार ताराचंद ने इस बात पर प्रकाश डालते हुए कहा “आजाद हिंद फौज के पास न तो वायुयान था न तोपखाना था उसके पास मोर्टर अर्थात् छोटी बंदूक भी नहीं थी जिनसे बड़े गोले फेंके जा सकें। इसकी मशीनगनें मध्यम आकार की थी और उनकी मरम्मत के लिए अतिरिक्त पुर्जे नहीं थे। अत्यंत आवश्यक संचार व्यवस्था के साधन नहीं थे और चिकित्सा की सुविधायें भी नहीं थे।” अत्यन्त आवश्यक संचार व्यवस्था के साधन नहीं थे और चिकित्सा की सुविधायें भी नहीं थी। “इस प्रकार आजाद हिंद सेना के पास देश भक्ति और देश पर मर मिटने का हौसला था परंतु युद्ध में विजय श्री का वरण करने के लिए केवल इतना ही काफी नहीं था।”
सुभाष चंद्र बोस और आजाद हिंद फौज के संघर्ष को भुलाया नहीं जा सकता। संघर्ष करने का जो मनोवैज्ञानिक असर आजाद हिंद फौज ने छोड़ा उसका प्रभाव स्पष्ट रूप से विपरीत से विपरीत समय में धैर्य रखकर कार्य करना अपने लक्ष्य में सफलता प्राप्ति तक प्रयास करने की प्रेरणा हमें देता है। आजाद हिंद फौज और सुभाष चंद्र बोस के प्रयासों की प्रशंसा उनके आलोचक भी करते हैं। जापानी सेना के पीछे हटने के कारण आजाद हिंद सेना भी पीछे हटने लगी व उसकी पराजय हुई। ऐसी स्थिति में सुभाष चंद्र बोस ने स्थान छोड़ने का निर्णय किया।
आजाद हिंद सेना की शौर्य गाथा समाप्ति पर थी कि अचानक सबको चौका देने वाली बात सामने आई। सिंगापुर से जापान जाते हुए 18 अगस्त, 1945 को फारमोसा में विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गयी। बोस की मृत्यु पर किसी को विश्वास नहीं हुआ। यह सब इतनी तीव्र गति से हुआ कि अकल्पनीय ही था। भारतीय जनता अपने प्यारे नेता के विषय में ऐसी खबर सुन कर विसमित थी।
सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु किस प्रकार हुई इस विषय पर जानकारी मिली कि बोस को हवाई जहाज द्वारा मंचूरिया के डेरिन नगर ले जाने का विचार किया गया क्योंकि अभी भी वह जापान के कब्जे में था। लेकिन समस्या इस बात की थी कि यह यात्रा एक छोटे बमवर्षक यान से करनी थी। जो आपत्तिपूर्ण था। विमान चालक ने भी विरोध किया पर फिर भी बोस ने यात्रा प्रारंभ कर दी। जापान के विरूद्ध स्थिति थी। जहाज ने पेट्रोल के तीन टैंकों के साथ उड़ान भरने का प्रयत्न किया और उड़ान भरते ही दुर्घटनाग्रस्त हो गया। इसी दुर्घटना में बोस की मृत्यु हो गयी।
सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु एक रहस्य बनी रही है। सुरेश बोस के अनुसार 18 अगस्त, 1946 को ताइवान में किसी भी प्रकार की विमान दुर्घटना नहीं हुई। समय-समय पर अखबारों और पत्र पत्रिकाओं में उनके जीवित होने की खबर छपती रही। उनकी मृत्यु कि जांच हेतु ‘शहनवाज समिति’ को भी गठित किया गया। उत्तर-बंगाल में शालापारी आश्रम में किसी साधू को देखा गया जो बोस की तरह ही दिखते थे। इस तरह सुभाष चंद्र बोस के जीवित होने पर कई सार्वजनिक सभाएं आयोजित की गई और कई अंग्रेजी और बंगाली पत्र-पत्रिकाओं में इस संबंध में लेख छपते रहे हैं। वर्तमान समय तक बोस की मृत्यु एक अनसुलझा प्रश्न बना हुआ है, परंतु अब समय इतना अधिक निकल चुका है कि सुभाष चंद्र बोस को जीवित होना असंभव ही है।