अध्याय-9: क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण
चेर और मलयालम भाषा का विकास –
- महोदरपुरम का चेर राज्य प्रायद्वीप के दक्षिण-पश्चिमी भाग में, जो आज के केरल राज्य का एक हिस्सा है, नौवीं शताब्दी में स्थापित किया गया।
- मलयालम भाषा इस इलाके में बोली जाती थी।
- a) इस भाषा एवं लिपि का प्रयोग शासको ने अपने अभिलेखों में किया।
- b) सरकारी अभिलेखों में क्षेत्रीय भाषा का प्रयोग यह पहला उदहारण है।
- केरल का मंदिर रंगमंच संस्कृति महाकाव्यों पर आधारित था।
- मलयालम की पहली साहित्यिक कृत ( बारहवीं सदी में ) संस्कृति की ऋणी है।
- चौदहवीं शताब्दी का ग्रंथ लीला तिलकम ( व्याकरण तथा काव्यशास्त्र विषयक ) मणि प्रवालम शैली में लिखा गया था।
- a) मणि प्रवालम का शाब्दिक अर्थ -हीरा और मूँगा
- b) संस्कृति या क्षेत्रीय भाषा में।
जगन्नाथी संप्रदाय ( पूरी उड़ीसा में )–
- इसका शाब्दिक अर्थ दुनिया का मालिक जो विष्णु का पर्यायवाची है।
- जगन्नाथ की काष्ठ प्रतिमा स्थानीय जनजातीय लोगो द्वारा बनाई जाती है।
- a) जगन्नाथ मूलतः एक स्थानीय देवता थे, जिन्हे आगे चलकर विष्णु का एक रूप मान लिया गया।
- बारहवीं शताब्दी में गंग वंश के राजा अनंतवर्मन ने पूरी में जगन्नाथ के लिए एक मंदिर बनवाने का निश्चय किया।
- 1230 में राजा अनंगभीम तृतीय ने अपना राज्य जगन्नाथ को अर्पित कर स्वयं को जगन्नाथ का ‘ प्रतिनियुक्त घोषित किया।
राजपूत और शूरवीरता की परम्पराएँ –
- उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिटिश लोग जहाँ आज का अधिकाँश राजस्थान स्थित है, उसे राजपुताना कहते थे।
- राजपूतों की कहानियाँ काव्यों और गीतों में सुरक्षित है जो चारण-भाटो द्वारा गाई जाती है।
कत्थक नृत्य –
- कत्थक शब्द कथा से निकला है। जिसका प्रयोग संस्कृत तथा अन्य भाषाओँ में कहानी के लिए किया जाता है।
- कत्थक मूल रूप से उत्तर भारत के मंदिरो में कथा यानी कहानी सुनाने वाली एक जाति थी।
- पंद्रहवीं से सोलहवीं शताब्दी में भक्ति आंदोलन के प्रसार के साथ कत्थक ने नृत्य शैली का रूप धारण कर लिया।
- कत्थक में राधा-कृष्ण के आख्यान ( कहानियां ) लिक नाट्य रूप में प्रस्तुत किया जाता था, जिन्हे ‘ रासलीला’ कहा जाता था।
- मुग़ल बादशाहों के शासनकाल में कत्थक नृत्य राजदरबार में प्रस्तुत किया जाता था।
- आगे चलकर कत्थक दो घरानों में 1 ) राजस्थान ( जयपुर ) 2 ) लखनऊ में।
- अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह के संरक्षण में यह एक कला के रूप में उभरा।
- 1850 से 1875 के दौरान यह नृत्य शैली के रूप में पंजाब, हरियाणा, जम्मू और कश्मीर, बिहार तथा मध्य प्रदेश के निकटवर्ती इलाकों में फैला।
- उन्नीसवीं तथा बीसवीं शताब्दी में ब्रिटिश प्रशासको द्वारा न पसंद परन्तु गणिकाओं द्वारा प्रस्तुत किया जाता रहा
- स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इसे छह शास्त्री नृत्यों के रूप में मान्यता मिल गई।
- नोट-नृत्य रूप में जिन्हे इस समय शास्त्रीय रूप माना जाता है –
1 कत्थक –
2 भरतनाट्यम 3 कथाकली 4 ओडिसी 5 कुचिपुड़ी 6 मणिपुरी |
उत्तर भारत में
तमिलनाडु केरल उड़ीसा आँध्रप्रदेश मणिपुर |
लघु चित्रों की परंपरा –
- प्राचीनतम लघुचित्र, तालपत्रों अथवा लकड़ी की तख्तियों पर चित्रित किये गए थे।
- सर्वाधिक सुन्दर चित्र पश्चिम भारत में जैन ग्रंथो को सचित्र बनाने के लिए प्रयोग किए गए।
- मुग़ल बादशाह , अकबर , जहाँगीर , शाहजहाँ ने इतिहास और काव्यों की पांडुलिपियाँ चित्रित करने वालो को संरक्षण प्रदान किया हुआ था।
- a) पांडुलिपियों में दरबार के दृश्य , लड़ाई तथा शिकार के दृष्य और सामाजिक जीवन के पहलू चित्रित किए जाते थे।
- मेवाड़ जोधपुर , बूंदी , कोटा और किशनगढ़ जैसे केन्द्रो में पौराणिक कथाओं तथा काव्यों के विषयो का चित्रण बराबर जारी रहा।
- सत्रहवीं शताब्दी के बाद वालो वर्षो में हिमालय की तलहटी में एक साहसपूर्ण एवं भाव प्रवण शैली का विकास हुआ जिसे ‘बसोहली ‘ शैली कहा जाता है।
- a) यहाँ जो सबसे लोकप्रिय पुस्तक चित्रित की गई वह थी-भानुदत्त की रसमंजरी।
- 1739 में नादिरशाह के आक्रमण और दिल्ली विजय के परिणामस्वरूप मुग़ल कलाकार, मैदानी इलाकों से पहाड़ी क्षेत्रों की ओर पलायन कर गए। जिसके फलस्वरूप चित्रकारी की कागंड़ा शैली विकसित हुई।
बांग्ला भाषा का विकास –
- बांग्ला बंगाली संस्कृत से निकली हुई भाषा मानी जाती है।
- बंगाली प्रारंभिक साहित्य को दो श्रेणियों में बांटा गया है।
- 1 ) पहली संस्कृत की श्रेणी-इसमें संस्कृत महाकाव्यों के अनुवाद, मंगल काव्य और भक्ति साहित्य जैसे-गौड़ीय वैष्णव आंदोलन के नेता श्री चैतन्य देव की जीवनियां आदि शामिल है।
- 2) नाथ साहित्य –जैसे मैनामती -गोपीचंद के गीत , धर्म ठाकुर की पूजा से सम्बंधित कहानियाँ , परीकथाएं लोक कथाएँ और गाथा गीत।
पीर-
- पीर फारसी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ आध्यात्मिक मार्गदर्शक।
- पीर श्रेणी में संत या सूफी और अन्य महानुभाव, साहसी , उपनिवेशी, देवी-देवता और यहाँ तक की जीवात्माएँ भी शामिल थे।
- पीरों की पूजा पद्धतिया बहुत ही लोक प्रिय हो गई और उनकी मजारें बंगाल में सर्वत्र पाई जाती है।
बंगाल में मंदिरों का निर्माण –
- पंद्रहवीं शताब्दी के बाद वाले वर्षों में मंदिर बनाने का दौर जोरो पर रहा जो उन्नीसवीं शताब्दी में आकर समाप्त हो गया।
- बंगाल में साधारण ईंटो और मिटटी-गारे से अनेक मंदिर ‘निम्न ‘ सामाजिक समूहों जैसे कालू ( तेली ) , कंसारी ( घंटा धातु के कारीगर ) आदि के समर्थन से बने थे।
- इन मंदिरों की आकृति बंगाल की छप्परदार झोपड़ियों की तरह दो चाला ( दो छतों वाली ) या चौचाला ( चार छतों वाली ) होती थी।
- मंदिर आमतौर वर्गाकार चबूतरे पर बनाए जाते थे। उनके भीतरी भाग में कोई सजावट नहीं होती थी, लेकिन अनेक मंदिरों की बाहरी दीवारें चित्रकारियों , सजावटी टाइलों अथवा मिटटी की पत्तियों से सजी होती थी।
- पश्चिम बंगाल के बाकुरा जिले में विष्णुपुर के मंदिरों में अत्यंत उत्क्रष्ट कोटि की सजावट की गई।