जॉन लॉक का जीवन परिचय
सामाजिक समझौता सिद्धान्त के प्रतिपादक जॉन लॉक का जन्म 29 अगस्त, 1632 में सामरसेंट शायर के रिंग्टन नामक स्थान पर एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ। जब लॉक का जन्म हुआ, उस समय हॉब्स की आयु 43 वर्ष थी और ब्रिटिश संसद अपने अधिकारों के लिए राजा के साथ संघर्ष कर रही थी। जब लॉक की आयु 12 वर्ष थी, इंगलैण्ड में गृहयुद्ध शुरू हो गया। अपनी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही प्राप्त करके लॉक ने 15 वर्ष की आयु में वेस्ट मिन्स्टर स्कूल में प्रवेश किया।
लॉक ने 1652 ई0 में 20 वर्ष की आयु में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा की प्राप्ति हेतु गया। उसने वहाँ यूनानी भाषा, दर्शनशास्त्र तथा अलंकारशास्त्र का अध्यापक कार्य किया, परन्तु उस समय के संकीर्ण अनुशासन ने औपचारिक अध्ययन के लिए उसके उत्साह को मन्द कर दिया। उसने 1656 में बी0 ए0 तथा 1658 में एम0 ए0 की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में यूनानी भाषा, काव्यशास्त्र और दर्शनशास्त्र के अध्यापक के रूप में कार्य किया। इसके बाद लॉक ने एक चर्च में बिशप बनने का प्रयास किया, लेकिन उसको सफलता नहीं मिली।
1660 में डेविड टॉमस नामक डॉक्टर के सम्पर्क में आने पर उसने चिकित्साशास्त्र का ज्ञान प्राप्त करके इस क्षेत्र में अपनी रुचि बढ़ाई और एक सफल चिकित्सक बन गया। चिकित्सक के नाते सन् 1666 में उसके सम्बन्ध उस समय के सुप्रसिद्ध राजनीतिज्ञ और विग दल के संस्थापक लार्ड एश्ली से हुए। इसके बाद आगामी 15 वर्षों तक लॉक उनका निजी डॉक्टर रहा। उसने इस दौरान एश्ली के विश्वस्त सचिव के रूप में भी कार्य किया। इससे उसको ब्रिटिश राजनीति और राजनीतिज्ञों को जानने का मौका मिला।
1672 में एश्ली चांसलर बने तथा लॉक ने उनकी कृपा से कतिपय महत्त्वपूर्ण शासकीय पदों पर कार्य किया। परन्तु रोमन कैथोलिक चर्च का पक्ष लेने की राजा की प्रवृत्ति का विरोध करने के कारण उसे 1673 में चांसलर के पद से हटा दिया गया। लॉक पर भी इसका प्रभाव पड़ा। लॉक इसके बाद 1675 में स्वास्थ्य लाभ हेतु फ्रांस चला गया और 1679 तक वहाँ रहा। वापिस लौटने पर उसे पुराने पद पर बिठाया गया। इस दौरान इंगलैण्ड में राजनीतिक विद्रोह की आग फिर से भड़क गई और राजा ने एश्ली से नाराज होकर 1681 में उसे पद से हटा दिया और प्रोटैस्टैण्ट धर्म का समर्थ करने के कारण उसे राजद्रोह का दोषी मानकर उस पर मुकद्दमा चलाया गया। बाद में मुक्त होकर वह हालैण्ड पहुँचा और 1688 तक वहीं रहा। इस दौरान उसने हालैण्ड में देश निर्वासित राजनीतिज्ञों से भेंट की। इस दौरान वह विलियम ऑफ ऑरेंज के सम्पर्क में आया।
1688 में इंगलैण्ड की रक्तहीन क्रान्ति ;ठसववकेमसस त्मअवसनजपवदद्ध के सफल होने पर तथा विलियम ऑफ ऑरेंज द्वारा निमन्त्रण भेजे जाने पर वापिस इंगलैण्ड लौट आया। वहाँ पर लॉक को ‘कमिश्नर ऑफ अमील्स’ का पद दिया गया। 1700 में स्वास्थ्य की कमजोरी के कारण उसने इस पद से त्याग-पत्र दे दिया और 1704 में 72 वर्ष की उम्र में इस महान दार्शनिक की मृत्यु हो गई।
जॉन लॉक की महत्त्वपूर्ण रचनाएँ
हालैण्ड से लौटकर लॉक ने लेखन कार्य प्रारम्भ किया। लॉक ने राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र, शिक्षा, दर्शनशास्त्र आदि विषयों पर 30 से अधिक ग्रन्थ लिखे। यद्यपि उसकी सारी कृतियाँ 50 वर्ष की आयु के पश्चात् प्रकाशित हुर्इं। उसके महत्त्वपूर्ण लेखन कार्य के कारण उसकी गिनती इगलैण्ड के महान् लेखकों में की जाती है। लॉक के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं :-
- मानव स्वभाव के सम्बन्ध में निबन्ध : इस पुस्तक की रचना लॉक ने 1687 में की लेकिन यह 1690 में प्रकाशित हुई।
- शासन पर दो निबन्ध : यह रचना लॉक की सबसे महत्त्वपूर्ण रचना है। पहले निबन्ध में लॉक ने फिल्मर द्वारा प्रतिपादित राजा के दैवीय अधिकारों का खण्डन किया है। दूसरे निबन्ध में राजा की निरंकुशता का विरोध किया गया है। इस ग्रन्थ में लॉक ने हॉब्स के निरंकुशवाद का विरोध तथा 1688 की रक्तहीन क्रान्ति के बाद इंगलैण्ड के सिंहासन पर राजा विलियम के सत्तारूढ़ होने के औचित्य को सिद्ध करने का प्रयास किया है। वॉहन ने लॉक की इस रचना को दोनाली बन्दूक कहा है, जिसकी एक नली फिल्मर द्वारा लिखित पुस्तक ‘पेट्रो आर्का’ में प्रतिपादित राजा के दैवी अधिकारों का खण्डन करने के लिए तथा दूसरी नली हॉब्स द्वारा लिखित ‘लेवियाथन’ में प्रतिपादित निरंकुशवाद का विरोध करने के लिए है। लॉक का दूसरा निबन्ध राजनीतिक चिन्तन की दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें सरकार के मूल प्रश्नों को उठाया गया है तथा राजसत्ता व कानून के औचित्य को सिद्ध करके बताया गया है कि राज्य की आज्ञा का पालन क्यों अनिवार्य है। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रो0 पीटर लॉस्लेट ने कहा है कि यह पुस्तक 1683 में ही लिखी गई लेकिन स्टुअर्ट सम्राटों के दण्ड के भय से प्रकाशित नहीं की गई। यह ग्रन्थ 1688 ई0 की इंगलैण्ड की गौरवपूर्ण क्रान्ति को सैद्धान्तिक आधार प्रदान करती है।
लॉक ने स्वयं इस ग्रन्थ के प्राक्कथन में लिखा है- “यह पुस्तक विलियम ऑफ ऑरेंज के सत्तारूढ़ होने का औचित्य सिद्ध करने का प्रयास है।”
- सहिष्णुता पर पहला पत्र : 1689 ई0 में लॉक ने हालैण्ड में ही लैटिन भाषा में यह पुस्तक प्रकाशित करवाई।
- सहिष्णुता पर दूसरा पत्र
- सहिष्णुता पर तीसरा पत्र
- सहिष्णुता पर चौथा पत्र
- कैरोलिना का मौलिक संंविधान
- शिक्षा से सम्बन्धित कतिपय विचार : यह लॉक की अन्तिम रचना है।
उपर्युक्त सभी ग्रन्थों में लॉक की सबसे महत्त्वपूर्ण रचना ‘शासन पर दो निबन्ध’ है।
जॉन लॉक की पद्धति
जहाँ हॉब्स की पद्धति तार्किक, दार्शनिक एवं चिन्तनात्मक है, वहाँ लॉक की पद्धति अनुभववादी व बौद्धिक है। लॉक के अनुसार मानव ज्ञान, अनुभव द्वारा सीमित होता है। अनुभव के बिना ज्ञान की कल्पना नहीं की जा सकती। लॉक के अनुसार अनुभव ज्ञान का स्रोत है और अनुभव से ही ज्ञान की उत्पत्ति होती है। लॉक के अनुसार मानव मस्तिष्क एक कोरे कागज की तरह है, जिसमें जन्मजात कोई विचार नहीं होता। सभी विचारों की उत्पत्ति दो स्रोतों से होती है :
- संवेदना से और
- प्रत्यक्ष बोध से। इन स्रोतों द्वारा प्राप्त अनुभव मनुष्य के मस्तिष्क में प्रवेश करते हैं जो उसमें चेतना तथा प्रतिबिम्ब उत्पन्न करते हैं। बुद्धि द्वारा मस्तिष्क में तब उन विचारों का विश्लेषण होता है एवं तुलना होती है। फलस्वरूप जटिल विचार उत्पन्न होकर ज्ञान का साधन बनते हैं। ज्ञान तब उत्पन्न होता है जब बुद्धि अपने विचारों की परस्पर तुलना करके उनके परस्पर मतैक्य तथा मतवैभिन्य देखती है। यही ज्ञान लॉक की अनुभववादी पद्धति का आधार है।
लॉक की अनुभववादी पद्धति में तीन मुख्य बातें हैं। ;पद्ध ज्ञान की उत्पत्ति का एक मात्र स्रोत अनुभव है। कोई भी विचार अंतर्जात नहीं होता। स्वत: साक्ष्य विश्वसनीय नहीं है। विचार इन्द्रिय सापेक्ष होता है और उसकी उत्पत्ति अनुभव से होती है। ;पपद्ध ज्ञान का स्वभाव विवेकसम्मत होता है। वास्तविक ज्ञान तभी प्राप्त होता है जबकि बुद्धि विचारों में पारस्परिक सम्बन्धों की स्थापना करती है। ;पपपद्ध ज्ञान का क्षेत्र उसके अज्ञान के क्षेत्र से बहुत छोटा है। लॉक के अनुसार मनुष्य एक ससीम प्राणी है जो इस अनंत, असीम और महान् ब्रह्माण्ड की सभी बातों को जान नहीं सकता है। इसलिए व्यक्ति का ज्ञान उसके अज्ञान की तुलना के स्वल्प है।
लॉक की अध्ययन पद्धति हॉब्स की अध्ययन पद्धति से भिन्न थी। लॉक हॉब्स की तरह एक दार्शनिक नहीं है। उसमें हॉब्स की तरह मौलिकता नहीं है। लॉक का विचार न तो गहन अध्ययन का प्रतिफल है, न तर्क का। वह सिर्फ व्यावहारिक बुद्धि का धनी है। जहाँ हॉब्स ने वैज्ञानिक, भौतिक, मनोवैज्ञानिक तथा तार्किक पद्धति को अपनाया, वहीं लॉक की अध्ययन और विचार-पद्धति अनुभवजन्य, मनोवैज्ञानिक तथा बुद्धिपरक है।
लॉक ने प्रबुद्ध विचारकों के विचारों व विश्वासों को सरल, गम्भीर और हृदयग्राही वाणी दी है। इसके बाद भी लॉक की पद्धति में कुछ दोष हैं। प्रथम, यद्यपि लॉक ने यह बताया है कि विचार की उत्पत्ति अनुभव से होती है, तथापि उसने समपूर्ण अनुभूतिजन्य ज्ञान की निश्चितता को स्वीकार नहीं किया। द्वितीय, लॉक की पद्धति की मौलिक त्रुटि यह भी है कि वह संगत नहीं है। शुद्ध तर्क की दृष्टि से उसके विचार पूर्णतया असंगत हैं।
इस प्रकार लॉक ने ज्ञान के क्षेत्र को उसके अज्ञान के क्षेत्र से बहुत छोटा माना है। यदि अनुभव आधारित ज्ञान का क्षेत्र सीमित है, तो उस पर विश्वास क्यों किया जाए। लॉक ने बहुत सी अनुभव प्रधान मान्यताओं को स्वयंसिद्ध मानकर गलती की है। अत: उसके विचार अपूर्ण तथा असंगत होने के दोषी हैं। लेकिन संगीत के अभाव में भी विचार पूर्णत: गलत नहीं हो सकता। लॉक की अनुभववादी पद्धति अपने दोषों के बाद भी एक महत्त्वपूर्ण पद्धति है।
राज्य का सिद्धान्त : सीमित राज्य
लॉक का राज्य व्यक्तियों के पारस्परिक समझौते की उपज है। लॉक ने प्राकृतिक अवस्था की कमियों को दूर करने के लिए अपने राज्य की स्थापना की है। प्राकृतिक अवस्था के दोषों को दूर करके मानव द्वारा राज्य की स्थापना करके शांति और सुव्यवस्था कायम करने के उद्देश्य से लॉक ने अपने सीमित राज्य की व्यवस्था की है। लॉक के समझौते द्वारा राजनीतक समाज की व्यवस्था उत्पन्न की जाती है। प्राकृतिक समाज में रहने वाले व्यक्तियों द्वारा सर्वोच्च समुदाय अथवा राजनीतिक समाज या राज्य की उत्पत्ति की जाती है।
लॉक के राज्य में प्रभुसत्ता समुदाय के पास रहती है, लेकिन इसका उपभोग बहुमत द्वारा किया जाता है। राज्य निरंकुशता के साथ कार्य कर सकता है, किन्तु जनहित के लिए। इसके कानूनों को प्राकृतिक तथा ईश्वरीय कानों को अनुरूप होना चाहिए। इसे तुरन्त दिए गए आदेशों का पालन नहीं करना चाहिए बल्कि कानूनों तथा अधिकृत जजों के माध्यम से ही करना चाहिए। विधायिका कानून बनाने की शक्ति को हस्तान्तरित नहीं कर सकती। समुदाय अपनी इच्छानुसार न्यासधारियों को बदल सकता है। लॉक के सामाजिक समझौते द्वारा स्थापित राज्य की निम्न विशेषताएँ हैं :-
- संवैध्ैाानिक राज्य : लॉक का राज्य एक संवैधानिक राज्य है। इसका अर्थ यह है कि राज्य कानून के द्वारा अनुशासित, अनुप्राणित और संचालित होता है। लॉक की मान्यता है कि जहाँ मनुष्य अनिश्चित, अज्ञात एवं स्वेच्छाचारी इच्छा के अधीन रहते हैं, वहाँ उन्हें राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं हो सकती। विधानसभा प्राकृतिक कानून की सीमा के अन्तर्गत रहकर कानून निर्माण का कार्य करती है। जहाँ राज्य संचालन कानूनों द्वारा होता है, वहाँ नागरिकों की राजनीतिक स्वतन्त्रता सुरक्षित रह सकती है। लॉक का कहना है- “समाज तथा शासन के उद्देश्यों के साथ निरंकुश स्वेच्छाचारी शक्ति अर्थात् बिना निश्चित स्थापित कानूनों के शासन करने की धारणा कोई संगति नहीं रखती।” लॉक का कहना है कि प्रत्येक राज्य में कार्यपालिका के पास संकटकालीन शक्तियाँ होती हैं। इन शक्तियों को विशेषाधिकार कहा जाता है। ये विशेषाधिकार कानून का पूरक होते हैं। इस प्रकार लॉक विशेषाधिकार के महत्त्व को कानून की सत्ता के अनुपूरक के रूप में ही स्वीकार करता है। अत: लॉक संवैधानिक राज्य का प्रबल प्रवक्ता है। इसलिए लॉक ने कहा है- “जहाँ कानून का अंत होता है, वहीं निरंकुशता का प्रारम्भ होता है।”
- जनकल्याण का उद्देश्य : लॉक के राज्य की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता ‘राज्य जनता के लिए, जनता राज्य के लिए नहीं’ है। लॉक ने इस बात पर जोर दिया कि सरकार का उद्देश्य मानव-समुदाय का कल्याण करना है। लॉक ने लिखा है- “सम्पत्ति को नियमित करने और उसका परिरक्षण करने के लिए दण्ड सहित कानून बनाने तथा उन कानूनों को क्रियान्वित करनेके लिए समुदाय की सैनिक शक्ति प्रयुक्त करने के अधिकार . . . यह सिर्फ जनता की भलाई के लिए है।” लॉक ने राज्य का यन्त्रवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए राज्य को उपकरण मानते हुए जनता के कल्याण की बात कही है। राज्य का उद्देश्य मनुष्य के प्राकृतिक अधिकारों – जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति की रक्षा करना है। अत: राज्य का उद्देश्य जनकल्याण है।
- सहमति पर आधारित : लॉक के राज्य की उत्पत्ति जनसमुदाय की व्यापक सहमति पर ही होती है। प्राकृतिक अवस्था में सभी मनुष्य स्वतन्त्र और समान हैं, इसलिए किसी को उसकी इच्छा के विपरीत राज्य का सदस्य बनने के लिए विवश नहीं किया जा सकता। जो लोग राज्य की व्यवस्था से बाहर प्राकृतिक अवस्था में रहना चाहें वे प्राकृतिक अवस्था में रह सकते हैं। लॉक के अनुसार मनुष्यों की सहमति स्पष्ट और प्रत्यक्ष न होकर मौन भी हो सकती है। फिर भी लॉक इस बात पर जोर देता है कि राज्य समस्त जनता की सहमति है एवं जनकल्याणार्थ राज्य को सहमति प्रदान करती है और उसकी आज्ञा का पालन करती है। लॉक के अनुसार जन-इच्छा पर आधारित राज्य को मान्य होने के लिए उसे पुन: स्वीकार करना आवश्यक है। जन्म लेते समय मनुष्य किसी राज्य या सरकार के अधीन नहीं होता परन्तु अगर वयस्क होने के बाद मानव अपने जन्म के देश की सरकार द्वारा सेवाओं को स्वीकार करते हैं तो यह उसकी सहमति का परिचायक है। यदि शासक जनहित में कार्य करे तो जनता को उसके विरुद्ध विद्रोह करने का भी अधिकार है।
- धर्मनिरपेक्ष राज्य : लॉक का राज्य धर्म सहिष्णु राज्य है। लॉक का मानना है कि विभिन्न धर्मावलम्बियों के रहने से राज्य की एकता नष्ट नहीं होती है। लॉक के लिए धर्म व्यक्तिगत वस्तु है। धर्म का सम्बन्ध व्यक्ति की भावना तथा आत्मा से होता है। लॉक व्यक्ति को उसके अन्त:करण की भावना के अनुसार उपासना की स्वतन्त्रता प्रदान करता है। अत: राज्य के लोगों के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। परन्तु यदि मानव की धार्मिक गतिविधियों से समाज पर बुरा प्रभाव पड़ता है या शान्ति भंग होती है तो लॉक के अनुसार राज्य उनकी धार्मिक गतिविधियों पर प्रतिबन्ध लगा सकता है। धर्म और राज्य दोनों के अलग-अलग कार्य होते हैं। हॉब्स की तरह लॉक न तो राज्य को धर्मवादी और न चर्च को राज्य के अधीन रखने का पक्षपाती है। वह धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण अपनाता है।
- उदारवादी राज्य : लॉक का राज्य उदारवादी है। वह जनसहमति पर आधारित है। उसका उद्देश्य जनकल्याण है, वह संवैधानिक है, वह मर्यादित है, वह सहिष्णु है एवं जनता को कुछ स्थितियों में राज्य के विरुद्ध विद्रोह करने का अधिकार प्रदान करता है। लॉक ने शासकों को नैतिक बन्धन में बाँधकर उन्हें शासितों या प्रजा के प्रति उत्तरदायी बनाया है। लॉक ने शासन को विधि के अधीन कर, पृथक्करण के सिद्धान्त का बीजारोपण कर, बहुमत के निर्णय में अपनी आस्था प्रकट कर एवं हिंसक सुधारों के बदले शान्तिपूर्ण सुधारों का प्रतिपादन कर लॉक ने उदारवाद का परिचय दिया है।
- सीमित राज्य : लॉक का राज्य सीमित और मर्यादित है, असीम और निरंकुश नहीं। लॉक ने राज्य पर सीमाएँ लगाकर उसे मर्यादित बना दिया है। लॉक ने कहा कि राज्य जनता द्वारा प्रदत्त अधिकारों का ही प्रयोग कर सकता है। राज्य तो जनता का मात्र अभिकर्ता है। राज्य को विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए धरोहर के रूप में शक्ति प्रदान की है। राज्य उनसे हटकर कोई कार्य नहीं कर सकता। लॉक का मत है कि नागरिक कानून प्राकृतिक कानून का अंग है। नागरिक कानून प्राकृतिक कानून की व्याख्या करके अनुचित कार्यों के लिए शीघ्र दण्ड की व्यवस्था करता है। प्राकृतिक कानून सर्वदा उचित-अनुचित का मापदण्ड होता है। विधानपालिका प्राकृतिक कानून के अनुसार अपने कानून का निर्माण करती है। इस प्रकार राज्य प्राकृतिक कानून द्वारा सीमित होता है। राज्य कभी सम्पत्ति के अधिकार का हरण नहीं कर सकता। लॉक का कथन है- “राज्य को निश्चित उद्देश्यों की प्राति हेतु न्यासधारी शक्तियाँ ही प्राप्त हैं।” लॉक की रचना ‘शासन पर दो निबन्ध’ में प्रमुख उद्देश्य शासन की सत्ता को मर्यादित करना है। अत: लॉक सीमित एवं मर्यादित शासन पर बल देता है।
- निषेध्ेाात्मक राज्य : लॉक का कार्यक्षेत्र निषेधात्मक है। राज्य सिर्फ सुरक्षा, शान्ति और न्याय सम्बन्धी कार्यों को पूरा करता है। नागरिकों को शिक्षा, स्वास्थ्य एवं नैतिक बनाना राज्य का दायित्व नहीं है। वह स्वेच्छा से नागरिकों की सम्पत्ति पर कर नहीं लगा सकता। वेपर के अनुसार- “राज्य केवल उन्हीं असुविधाओं और कठिनाइयों को दूर करने की कोशिश करता है। जो प्राकृतिक अवस्था में थी। वह केवल सुरक्षा, सुव्यवस्था और न्याय के तीन कार्य करता है। इसके अतिरिक्त् शिक्षा देना, उनका स्वास्थ्य सुधारना, उन्हें सुसंस्कृत और नेतिक बनाने का कार्य कोई राज्य नहीं कर सकता।” लॉक का राज्य न तो नागरिकों के चरित्र सुधारने का प्रयास करता है और न ही उनके जीवनयापन की व्यवस्था करता है। निषेधात्मक होते हुए भी लॉक का राज्य स्वार्थ को परमार्थ में बदलने के लिए सक्षम है। लॉक का राज्य कृत्रिम दण्डों का प्रावधान कर मनुष्यों का अधिकाधिक सुख, सुविधा और प्रसन्नता का उपभोग करने में सहायता करता है। लॉक ने अपने राज्य की स्थापना करके राजनीति विज्ञान की कुछ गम्भीर समस्याओं को सुलझाने का प्रयास किया है; जैसे – राज्य का उद्देश्य क्या है और राज्य का आदेश व्यक्ति क्यों मानता है ? लॉक ने इन समस्याओं का स्पष्ट उत्तर अपने इस सिद्धान्त के माध्यम से दिया है। लॉक राज्य का उद्देश्य जनकल्याण को बताता है। राज्य व्यक्ति के अधिकारों का संरक्षक है, इसिलए व्यक्ति स्वेच्छानुसार राज्य की बात मानते हैं। इस प्रकार लॉक ने सीमित एवं मर्यादित राज्य की स्थापना द्वारा जनकल्याणकारी रूप का वर्णन किया है। अत: लॉक का राज्य उदारवादी, कल्याणकारी, जनसहमति पर आधारित राज्य है। यह सीमित और मर्यादित राज्य है जिसका वैधानिक और संवैधानिक आधार है। अत: लॉक को इस सिद्धान्त की स्थापना से एक उदारवादी चिन्तक के रूप में मान्यता मिली है। लॉक की इस देन को कभी नकारा नहीं जा सकता। आधुनिक चिन्तन में लॉक की उदारवादी विचारधारा का महत्त्वपूर्ण योगदान है।
सरकार का सिद्धान्त : सीमित सरकार
लॉक के अनुसार प्राकृतिक अवस्था को मनुष्यों ने समझौते द्वारा समाप्त करके नए समाज की स्थापना की है। इसकी स्थापना का उद्देश्य अपनी कठिनाइयों को दूर करना तथा अपने प्राकृतिक अधिकारों की रक्षा करना था। जनता ने शासक को सभी अधिकार नहीं सौंपे, केवल वही अधिकार दिए जिससे जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति की रक्षा हो सके। लॉक ने सरकार को सरकार न कह कर ट्रस्ट का नाम दिया जिसे जनता के समान अधिकार प्राप्त नहीं हैं। सरकार के तो जनता के प्रति कर्त्तव्य हैं कि ट्रस्ट के अनुसार काम करे और यदि सरकार ट्रस्ट की मर्यादाओं का अतिक्रमण करती है तो समुदाय को सरकार को भंग करने का अधिकार प्राप्त है। लॉक के राजदर्शन में राज्य एवं सरकार में कोई स्पष्ट अन्तर नहीं किया है। उसके अनुसार सामाजिक समझौते से राज्य का निर्माण होता है न कि सरकार का।
सरकार की स्थापना
लॉक के अनुसार सामाजिक समझौते के माध्यम से नागरिक समुदाय अथवा समाज की स्थापना हो जाने के बाद सरकार की स्थापना किसी समझौते द्वारा नहीं, बल्कि एक विश्वस्त न्यास या ट्रस्टी द्वारा हुई। लॉक का सरकार को समाज के अधीन रखना इस बात पर जोर देना है कि सरकार जनहित के लिए है। अपने कार्य में असफल रहने पर सरकार को बदला जा सकता है। लॉक के अनुसार- “राज्य एक समुदाय है जो लोगों के समझौते द्वारा संगठित किया जाता है। परन्तु सरकार वह है जिसे यह समुदाय अपने कर्त्तव्यों को व्यावहारिक स्वरूप देने के लिए एक न्यास की स्थापना करके स्थापित करता है।” लॉक का मनना है कि समुदाय बिना सम्प्रभु के सहयोग के इस ट्रस्टी की स्थापना करता है। लॉक ने कहा है कि शासन के विघटन होने पर भी राज्य कायम रहता है। लॉक का शासन या सरकार सिर्फ जनता का ट्रस्टी है और वह जनता के प्रति उत्तरदायी होता है। इसकी शक्तियों का स्रोत जनता है, मूल समझौता नहीं।
सरकार के कार्य
सरकार की स्थापना के बाद लॉक सरकार के कार्यों पर चर्चा करता है। लॉक ने सरकार को प्रत्येक व्यक्ति के जीवन, सम्पत्ति तथा स्वतन्त्रता की रक्षा करने का कार्य सौंपा है। लॉक ने कहा है- “मनुष्यों के राज्य में संगठित होने तथा अपने आपको सरकार के अधीन रखने का महान् एवं मुख्य उद्देश्य अपनी-अपनी सम्पत्ति की रक्षा करना है।” लॉक के अनुसार सरकार के तीन कार्य हैं :-
- सरकार का प्रथम कार्य व्यवस्थापिका के माध्यम से समस्त विवादों का निर्णय करना, जीवन को व्यवस्थित करना, उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय का मापदण्ड निर्धारित करना है।
- सरकार के कार्यपालिका सम्बन्धी कार्य जैसे युद्ध की घोषणा करना, नागरिकों के हितों की रक्षा करना, शान्ति स्थापित करना तथा अन्य राज्यों से सन्धि करना व न्यायपालिका के निर्णयों को क्रियान्वित करना है।
- सरकार का तीसरा प्रमुख कार्य व्यवस्थापिका सम्बन्धी कार्य है। यह कार्य एक ऐसी निष्पक्ष शक्ति की स्थापना से सम्बन्धित है जो कानूनों के अनुसार विवादों का निर्णय कर सके।
लॉक के अनुसार सरकार अपने अधिकारों का प्रयोग स्वेच्छा से नहीं कर सकती। सरकार की शक्तियाँ धरोहर मात्र हैं। वह जनता द्वारा स्थापित न्यास है, जिसे समाज को वापिस लेने का अधिकार है। जब सरकार ईमानदारी से अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह न करे तो उसे बदलने का अधिकार जनता के पास है। लॉक के अनुसार कार्यों के अलग-अलग होने से सरकार के तीन अंग इनका सम्पादन करते हैं।
सरकार के अंग
लॉक ने प्राकृतिक अवस्था की असुविधाओं को दूर करने के लिए सरकार के तीन अंगों को कार्य सौंपकर उनका निराकरण किया। ये तीन अंग हैं:-
- विधानपालिका शक्ति : सरकार न्याय तथा अन्याय का मापदण्ड तथा समस्त विवादों का निर्णय करने के लिए एक सामान्य मापदण्ड निर्धारित करती है। विधानपालिका समुदाय की सर्वोच्च शक्ति को धरोहर के रूप में प्रयोग करती है। फिर भी शासन के अन्दर वह सबसे महत्त्वपूर्ण और सर्वोच्च होती है। शासन के स्वरूप का निर्धारण इसी बात से होता है कि विधायिनी शक्ति का प्रयोग कौन करता है। लॉक का मानना है कि यदि वह शक्ति निरंकुश शासक के हाथ में हो तो जनता का जीवन कष्टमय हो जाता है। लॉक ने कहा कि विधानपालिका की शक्ति निरंकुश नहीं है। उसे मर्यादा में रहकर कार्य करना पड़ता है। वह मनमानी नहीं कर सकती। उसकी शक्तियों का प्रयोग केवल जनता की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही हो सकता है। वह केवल समाज हित में कार्य करेगी, किसी व्यक्ति को उसकी सम्पत्ति से वंचित नहीं कर सकती। इसे नागरिकों के प्राकृतिक अधिकारों का सम्मान करना पड़ता है और वह अपनी वैधानिक शक्तियों का प्रयोग दूसरे को नहीं दे सकती। विधानपालिका सर्वसम्मति के सिद्धान्त के अनुसार ही कार्य करती है।
- कार्यपालिका शक्ति : यह शासन का दसरा प्रमुख अंग है। लॉक इसे कानून लागू करने के अतिरिक्त न्याय करने का भी अधिकार प्रदान करता है। अतएव कार्यपालिका को न्यायपालिका से अधिक शक्तियाँ प्रदान की हैं। यह एक ऐसी निष्पक्ष शक्ति है जो कानून के अनुसार व्यक्तियों के आपस के झगड़ों का निर्णय करती है। प्राकृतिक अवस्था में प्राकृतिक कानून को लागू करते समय यह सम्भावना रहती थी कि मनुष्य अपने स्वार्थ, प्रतिशोध और क्रोध से प्रभावित हो सकता है। उसकी सहानुभूति संसद के साथ होते हुए भी उसने शासक की निरंकुशता पर रोक लगाने के लिए शक्तियों का विभाजन किया। उसने कार्यपालिका को न्याय सम्बन्धी अधिकार इसलिए दिये क्योंकि विधानपालिका तो कुछ समय के लिए सत्र में रहती है जबकि कार्यपालिका की तो सदा जरूरत पड़ सकती है। इसलिए कार्यपालिका को जनकल्याण में कानून की बनाने का अधिकार है। यह उसका विशेषाधिकार है। वस्: लॉक की कार्यपालिका विधानपालिका की उसी प्रकार ट्रस्टी है, जिस प्रकार उसकी विधानपालिका समस्त समुदाय की।
- संघपालिका शक्ति: इस अंग का कार्य दूसरे देशों के साथ सन्धियाँ करना है। इसका सम्बन्ध विदेश नीति से है। यह अंग दूसरे लोगों की सुरक्षा और हितों की रक्षा के लिए विदेशों में प्रबन्ध करती है। युद्ध की घोषणा करना, शान्ति स्थापना तथा दूसरे राज्यों से सन्धि करना, इस संघपालिका की शक्ति के अन्तर्गत आते हैं। संघपालिका शक्ति के क्रियान्वयन के लिए शासन के पृथक् अंग की व्यवस्था न कर लॉक इसे कार्यपालिका के अधीन ही रखने का सुझाव देता है। लॉक का मानना है कि विधानपालिका के कानूनों द्वारा संघीय शक्ति का संचालन नहीं हो सकता। इसका संचालन तो प्रखर बुद्धि और गहन विवेक वाले व्यक्तियों पर ही निर्भर करता है।
सरकार के तीन रूप
लॉक के अनुसार सरकार का स्वरूप इस बात पर निर्भर करता है कि बहुमत समुदाय अपनी शक्ति का किस प्रकार प्रयोग करना चाहता है। इस आधार पर सरकार के तीन रूप हो सकते हैं :-
- जनतन्त्र : यदि व्यवस्थापिका शक्ति समाज स्वयं अपने हाथों में रखता है तथा उन्हें लागू करने के लिए अधिकारियों की नियुक्ति करता है तो शासन का स्वरूप जनतन्त्रीय है।
- अल्पतन्त्र : यदि समाज की व्यवस्थापिका शक्ति बहुमत द्वारा कुछ चुने हुए व्यक्तियों या उनके उत्तराधिकारियों को दी जाती है तो सरकार अल्पतन्त्र सरकार कहलाती है।
- राजतन्त्र : यदि व्यवस्थापिका शक्ति केवल एक व्यक्ति को दी जाती है तो शासन का रूप राजतन्त्रात्मक है।
शक्ति पृथक्करण की व्यवस्था
लॉक ने सरकार के तीन अंगों की स्थापना करके विधायिका तथा कार्यपालिका में स्पष्ट और अनिश्चित पृथक्कता स्वीकार की और कार्यपालिका को विधायिका के अधीनस्थ बनाया। लॉक इन दोनों शक्तियों के एकीकरण पर असहमति जताते हुए कहा- “जिन व्यक्तियों के हाथ में विधि निर्माण की शक्ति होती है, उनमें विधियों को क्रियान्वित करने की शक्ति अपने हाथ में ले लेने की प्रबल इच्छा हो सकती है क्योंकि शक्ति हथियाने का प्रलोभन मनुष्य की एक महान् दुर्बलता है।” लॉक ने कहा कि कार्यपालिका का सत्र हमेशा चलना चाहिए। विधानपालिका के लिए ऐसा आवश्यक नहीं। यद्यपि लॉक शक्तियों का पृथक्करण की बात करता है, परन्तु कार्यपालिका व विधानपालिका के कार्य एक ही अंग को सौंपने को तैयार है। वेपर का मत है- “लॉक ने उस शक्ति पृथक्करण की अवधारणा का प्रतिपादन नहीं किया है जिसे हम आगे चलकर अमेरिकी संविधान में पाते हैं। अमेरिकी संविधान में निहित शक्ति पृथक्करण का तात्पर्य है कि शासन का कोई भी अंग अन्य अंगों से सर्वोच्च नहीं है, जबकि लॉक ने विधायिका की सर्वोच्चता का प्रतिपादन किया था।” अत: लॉक का दर्शन शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त का असली जनक नहीं है। उसके दर्शन में तो बीज मात्र ही है।
सरकार की सीमाएँ
लॉक कानूनी प्रभुसत्ता के सिद्धान्त का प्रतिपादन नहीं करता। वह कानूनी सार्वभौम को लोकप्रिय सार्वभौम को सौंप देता है। वह एक ऐसी सरकार के पक्ष में है जो शक्ति विभाजन के सिद्धान्त पर आधारित है तथा बहुत सी सीमाओं से सीमित है। लॉक की सरकार की प्रमुख सीमाएँ हैं:-
- यह सरकार जनहित के विरुद्ध कोई आदेश नहीं दे सकती।
- वह व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों का उल्लंघन, उन्हें कम या समाप्त नहीं कर सकती।
- वह निरंकुशता के साथ शासन नहीं कर सकती। उसके कार्य कानून के अनुरूप ही होने चाहिएं।
- यह प्रजा पर बिना उसकी सहमति के कर नहीं लगा सकती।
- इसके कानून प्राकृतिक कानूनों तथा दैवीय कानूनों के अनुसार होने चाहिएं।
आलोचनाएँ
लॉक की सीमित सरकार की प्रमुख आलोचनाएँ हैं :-
- सरकार व राज्य में भेद को स्पष्ट नहीं किया। लॉक ने इनके प्रयोग में स्पष्टता नहीं दिखाई। कभी दोनों का समान अर्थ में प्रयोग किया, कभी राज्य को सरकार के अधीन माना है।
- लॉक के राज्य का वर्गीकरण अवैज्ञानिक है। उनका वर्गीकरण राज्य का नहीं सरकार का है, क्योंकि उसने विधायनी शक्ति जो सरकार का तत्त्व है, के आधार पर राज्य का वर्गीकरण किया है।
- विधायिका शक्ति का समुचित प्रयोग नहीं कर सकती। लॉक के सिद्धान्त में समुदाय की शक्ति ट्रस्ट के रूप में सरकार की विधानपालिका शक्ति के पास आती है, परन्तु उसे अपनी श्रेष्ठता को प्रदर्शित करने का मौका नहीं मिलता। समुदाय की शक्ति तभी सक्रिय होती है जब सरकार का विघटन होता है।
- लॉक के पास सरकार हटाने का कोई ऐसा मापदण्ड नहीं है जिसके आधार पर निर्णय किया जा सके कि सरकार ट्रस्ट का पालन कर रही है या नहीं। यह भी प्रश्न है कि यह कौन निर्णय करे कि सरकार ट्रस्ट के विरुद्ध काम कर रही है। इसके बारे लोगों की राय कैसे जानी जाए ?
उपर्युक्त आलोचनाओं के बाद कहा जा सकता है कि लॉक का यह सिद्धान्त एक सैद्धान्तिक संकल्पना मात्र है, व्यावहारिक नहीं। फिर भी आधुनिक शासन प्रणालियों में सरकार के जिन अंगों और कार्यों को मान्यता मिली है। वे लॉक के दर्शन का महत्त्व सिद्ध करते हैं। अत: लॉक का सीमित सरकार का सिद्धान्त आधुनिक युग में महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है।
लॉक एक व्यक्तिवादी के रूप में
राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में लॉक का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। लॉक का मानना है कि पृथ्वी और उस पर विद्यमान सभी संस्थाएँ व्यक्ति के लिए ही हैं, व्यक्ति उनके लिए नहीं है। लॉक के दर्शन का आधार यह है कि व्यक्ति के कुछ मूल तथा अपरिवर्तनीय अधिकार होते हैं, जो स्वाधीनता, जीवन तथा सम्पत्ति के अधिकार हैं, जिन्हें उनसे छीना जा सकता है। लॉक को उपर्युक्त व्यवस्था के कारण ही उसे व्यक्तिवाद का अग्रदूत कहा जाता है। जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति के इन अधिकारों की सुरक्षा के लिए राज्य को संरक्षक बना सकता है। लॉक एक स्पष्टवादी विचारक है। वह अपने व्यक्ति को समाज तथा राज्य दोनों से पहले रखता है। लॉक के लिए यदि कोई सार्वभौम है तो वह राज्य न होकर व्यक्ति ही है। राज्य एक साधन है तथा व्यक्ति उसका लक्ष्य है। राज्य एक सुविधा है तथा सर्वशक्तिमान व्यक्तियों का सेवक है। यह व्यक्तियों के अधीन उनका एक एजेण्ट अथवा प्रतिनिधि है।
लॉक का सम्पूर्ण दर्शन व्यक्ति के इर्द-गिर्द ही घूमता है। हर कार्य इस प्रकार से होता है कि व्यक्ति की सार्वभौमिकता कायम रहती है। लॉक का मानना है कि व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करना राज्य का कर्त्तव्य है और राज्य को व्यक्ति की सहमति के बिना कोई कार्य करने की अनुमति नहीं देता है। लॉक के अनुसार व्यक्ति की इच्छा के विरुद्ध राज्य का सदस्य बनने के लिए बाध्य नहीं जा सकता। राज्य के दुव्र्यवहार अथवा अधिकार का दरुपयोग करने पर व्यक्ति को उसका विरोध करने का अधिकार है। व्यक्ति राज्य से पहले है। एक व्यक्तिवादी के रूप में लॉक का दावा निम्न बातों पर निर्भर करता है।
- व्यक्ति के जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति के अधिकार प्राकृतिक उसके जन्मजात तथा प्राकृतिक अधिकार है। प्राकृतिक कानून विवेक पर आधारित होने के कारण यह सभी व्यक्तियों को समान मानता है। ये अधिकार व्यक्ति के निजी अधिकार हैं। इनके स्वाभाविक व जन्मसिद्ध होने के कारण राज्य कभी भी इनसे विमुक्त नहीं हो सकता।
- राज्य का उद्देश्य व्यक्ति के अधिकारों का संरक्षण है। लॉक के अनुसार राज्य का उद्देश्य जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति के प्राकृतिक अधिकारों की रक्षा करता है। इसी से राज्य का औचित्य सिद्ध हो सकता है। लॉक ने कह कि यदि इन अधिकारों की रक्षा होती तो राज्य का अस्तित्व कायम रह सकता है। राज्य का जन्म इन अधिकारों को सुरक्षित बनाने के लिए ही होता है।
- व्यक्तियों की सहमति ही राज्य का आधार है। यह सहमति मौन भी हो सकती है। लॉक का सहमति सिद्धान्त उनके व्यक्तिवाद पर ही आधारित है। लॉक ने कहा है कि व्यक्तियों का आपसी सहमति तथा इच्छा ने ही राज्य की संरचना की है और किसी को राज्य की सदस्यता स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। लॉक ने भावी पीढ़ियों को राज्य की सदस्यता स्वीकार करने या न करने की छूट दी है जो उसके व्यक्तिवाद का परिचायक है। प्राकृतिक अवस्था के लोगों को समझौते में शामिल होकर नहीं होते, वे प्राकृतिक अवस्था में ही बने रहते हैं। इस प्रकार इसकी सदस्यता के सम्बन्ध में लॉक ने प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा का आदर किया है।
- लॉक ने व्यक्ति को राज्य का विरोध करने का अधिकार दिया है। लॉक के अनुसार- “समुदाय की सर्वोच्च शक्ति अन्तिम रूप से समाज में ही निहित होती है जिससे आवश्यकता पड़ने पर समाज उसका प्रयोग कर भ्रष्ट शासकों को अपदस्थ कर नये शासकों का चुनाव कर सकता है। लॉक के अनुसार राज्य का निर्माण जनकल्याण के लिए किया गया है। राज्य एक ट्रस्ट के समान है। वह जनता की सहमति पर आधारित तथा वैधानिक होता है। अत: यदि वह निर्धारित उद्देश्यों को पूरा करने में असफल रहता है तो उस स्थिति में जनता को उसके विरुद्ध विद्रोह करने का अधिकार है।
- लॉक का व्यक्तिवाद उसके नकारात्मक राज्य की अवधारणा द्वारा प्रमाणित होता है। राज्य के कार्य नकारात्मक कर्त्तव्यों तक ही सीमित हैं। राज्य केवल तभी हस्तक्षेप करता है, जब व्यक्ति के अधिकारों का उल्लंघन होता है। नैतिकता, बुद्धि तथा शिक्षा के क्षेत्र में व्यक्ति को अकेला छोड़ दिया जाता है। राज्य का उद्देश्य केवल जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति के अधिकार की रक्षा करने तक ही सीमित है। बाकी सारे अधिकार व्यक्ति की अपनी इच्छानुसार संरक्षित होते हैं। इसलिए नकारात्मक राज्य का सिद्धान्त लॉक को सर्वश्रेष्ठ व्यक्तिवादी सिद्ध करता है।
- लॉक ने धार्मिक सहिष्णुता का विचार देकर व्यक्तिवादी होने का परिचय दिया है। लॉक ने कहा है कि सभी धर्मों और सम्प्रदायों को अपने विकास का अवसर दिया जाना चाहिए, बशर्ते उससे राज्य में अव्यवस्था न फैलती हो। लॉक धर्म को एक व्यक्तिगत चीज मानता है। इसलिए राज्य को व्यक्तियों के धर्म और विश्वास में किसी तरह से हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। इस प्रकार लॉक प्रत्येक व्यक्ति को अपने अन्त:करण के अनुसार धार्मिक पूजा और उपासना की स्वतन्त्रता प्रदान करता है।
- लॉक के चिन्तन में उपयोगितावाद स्पष्ट दिखाई देता है। वह मानता है कि प्राकृतिक अवस्था के दु:खों को दूर करने के लिए तथा सुखों की प्राप्ति के लिए ही राजनीतिक समाज की स्थापना होती है और इनकी उपयोिता इसी में निहित है कि वह व्यक्तियों को अधिक सुख पहुँचाये। इस प्रकार लॉक व्यक्ति के सुख को प्राथमिकता देता है।
- व्यक्तिगत सम्पत्ति के कट्टर समर्थक लॉक ने कहा कि श्रम द्वारा अर्जित या जहाँ व्यक्ति अपना श्रम लगाता है वह वस्तु उसकी व्यक्तिगत सम्पत्ति हो जाती है और राज्य व्यक्ति की अनुमति के बिना उससे उसका एक भी हिस्सा नहीं ले सकता। लॉक का कहना है कि व्यक्ति उन वस्तुओं का मालिक बन जाता है जिनमें वह अपना शारीरिक श्रम मिला देता है। यह व्यक्ति या वैयक्तिकता का महत्त्व स्पष्ट करता है। अत: लॉक का श्रम सिद्धान्त उसके व्यक्तिवाद की ही पहचान है।
- लॉक का क्रान्ति का सिद्धान्त बिना किसी सन्देह के लॉक के व्यक्तिवादी होने का प्रबल पक्षधर है। लॉक का कहना है कि राज्य अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करता है तो शासन करने का अधिकार समाप्त हो जाता है। व्यक्ति को उसका तख्ता पलटने का पूरा अधिकार प्राप्त हो जाता है। लॉक ने व्यक्ति को राज्य की तुलना में प्राथमिकता देकर व्यक्तिवादी होने का ही परिचय दिया है।
- लॉक के राजनीतिक दर्शन में व्यक्ति ही राज्य से श्रेष्ठतर स्थान पर लेता है। राज्य का औचित्य केवल इस बात में है कि वह व्यक्तियों द्वारा सौंपे गए अधिकारों को प्राकृतिक नियमानुकूल प्रयोग करे तथा न सौंपे गए अधिकारों की रक्षा करे।
- लॉक का मानना है कि शासक समाज के प्रतिनिधि हैं। वे उतने ही अधिकार रखते हैं जो व्यक्तियों द्वारा दिये जाते हैं। इस प्रकार लॉक ने व्यक्तिवाद की आधारशिला को मजबूत बनाया है। डनिंग ने स्वीकार किया है कि व्यक्तिवाद की आधारशिला मनुष्य को प्राकृतिक अधिकारों तथा चिन्तन के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान दिलाती है। लॉक ने व्यक्ति को ही अपनी सम्पूर्ण व्यवस्था का केन्द्रबिन्दु बनाया है। बार्कर के शब्दों में “लॉक में व्यक्ति की आत्मा की सर्वोच्च गरिमा स्वीकार करने वाली तथा सुधार चाहने वाली महान् भावना थी।” मैक्सी के अनुसार- “लॉक ने व्यक्तिवाद को अजेय राजनीतिक तथ्य बनाया है।” लॉक का व्यक्तिवाद उदारवाद तथा उपयोगितावाद का जन्मदाता माना जा सकता है।
आलोचनाएँ
लॉक का व्यक्तिवाद कुछ आलोचनाओं का शिकार हुआ है। (i) लॉक व्यक्ति को सम्पूर्ण प्रभुसत्तासम्पन्न मानता है। यदि वह सम्पूर्ण प्रभुसत्ता सम्पन्न है तो उसे अपने स्वयं के निर्णय का परित्याग करने के लिए बाध्य किया जा सकता है, क्योंकि बहुमत उसके साथ नहीं है। (ii) लॉक ने अत्याचारी शासन के विरुद्ध व्यक्तियों को विद्रोह का अधिकार दिया है, वह भी बहुसंख्यकों को दिया है, अल्पसंख्यक वर्ग को नहीं। परन्तु इन आलोचनाओं के बावजूद भी लॉक व्यक्तिवाद का अग्रदूत कहलाता है।
प्रो0 वाहन के अनुसार- “लॉक की व्यवस्था में हर वस्तु व्यक्ति के चारों ओर चक्कर काटती हुई दिखाई देती है। प्रत्येक वस्तु को इस प्राकर से व्यवस्थित किया गया है कि व्यक्ति की सर्वोच्च सत्ता सब प्रकार से सुरक्षित रह सके। इसलिए कहा जा सकता है कि लॉक उदारवाद व उपयोगितावाद को आधार प्रदान करता है और उसकी राजनीतिक चिन्तन में व्यक्तिवाद के रूप में अमूल्य देन है।
लॉक का महत्व और देन
किसी भी राजनीतिक विचारक के सिद्धान्तों के आधार पर ही उसके महत्त्व को स्वीकार किया जाता है। लॉक के दर्शन का अवलोकन करने से उसके दर्शन में अनेक कमियाँ नज़र आती हैं। लॉक का दर्शन मौलिक भी नहीं था। उसके सिद्धान्तों में तर्कहीनता तथा विरोधाभास पाए जाते हैं। लॉक हाब्स की तरह ज्यादा बुद्धिमत्ता का परिचय नहीं देते हैं। उकना चिन्तन विभिन्न स्रोतों से एकत्रित विचारों का पुंज माना जा सकता है। इसलिए उसे विचारों को एकत्रित करके क्रमबद्ध करने के लिए महान् माना जाता है। लॉक के दर्शन का सबसे महत्त्वपूर्ण गुण सामान्य बोध है। लॉक ने सरल व हृदयग्राही भाषा में जनता के सामने अपने विचार प्रस् किये। उसके महत्त्व को सेबाइन ने समझाते हुए कहा है- “चूँकि उसमें अतीत के विभिन्न तत्त्व सम्मिलित थे, इसलिए उत्तरवर्ती शताब्दी में उनके राजनीतिक दर्शन से विविध सिद्धान्तों का आविर्भाव हुआ।” लॉक बाद में महान् और शक्तिशाली अमरीका तथा फ्रांससी क्रान्तियों के महान् प्रेरणा-स्रोत बन गए। लॉक का महत्त्व उनकी महत्त्वपूर्ण दोनों के आधार पर स्पष्ट हो जाता है।
लॉक की देन
लॉक की राजनीतिक चिन्तन में महत्त्वपूर्ण देन है :-
- प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धान्त : लॉक की यह धारणा कि मनुष्य जन्म से ही प्राकृतिक अधिकारों से सुशोभित है, उसकी राजनीतिक सिद्धान्त की सबसे बड़ी देन है। उसने जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति के अधिकारों को मनुष्यों का विशेषाधिकार मानते हुए, उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी शासन पर छोड़ी है। किसी भी शासक को उनका उल्लंघन करने का अधिकार नहीं है। व्यक्ति का सुख तथा उसकी सुरक्षा शासक के प्रमुख कर्त्तव्य हैं। इनके आधार पर ही राज्य को साधन तथा व्यक्ति को साध्य माना गया है। यदि राज्य व्यक्ति का साध्य बनने में असफल रहता है तो जनता को विद्रोह करने का पूरा अधिकार है। प्रो0 डनिंग के अनुसार- “लॉक के समान अधिकार उसके राजनीतिक संस्थाओं की समीक्षा में इस प्रकार ओत-प्रोत हैं कि वे वास्तविक राजनीतिक समाज के असितत्व के लिए ही अपरिहार्य दिखलाई पड़ते हैं।” लॉक की प्राकृतिक अधिकारों की धारणा का आगे चलकर जैफरसन जैसे विचारकों पर भी प्रभाव पड़ा। आधुनिक देशों में मौलिक अधिकारों के प्रावधान लॉक की धारणा पर ही आधारित है।
- जनतन्त्रीय शासन : लॉक के दर्शन की यह सबसे महत्त्वपूर्ण देन है। जन-इच्छा पर आधारित सरकार तथा बहुमत द्वारा शासन की उसकी धारणा। लॉक के संवैधानिक शासन सम्बन्धी विचार ने 18 वीं शताब्दी के मस्तिष्क को बहुत प्रभावित किया। मैक्सी के अनुसार- “निर्माण करने वाला हाथ, कहीं वाल्पील का, कहीं जैफरसन का और कहीं गम्बेटा का अथवा कहीं केवूर का था, किन्तु प्रेरणा निश्चित रूप से लॉक की थी।” उसने जनसहमति पर आधारित शासन का प्रबल समर्थन किया। आधुनिक राज्यों में संविधानवाद की धारणा उसके दर्शनपर ही आधारित है।
- उदारवाद का जनक : लॉक की दार्शनिक और राजनीतिक मान्यताएँ उनके उदारवादी दृष्टिकोण का ही प्रतिनिधित्व करती हैं। लॉक ने दावा किया कि राज्य का उद्देश्य नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा करना है। वेपर के शब्दों में- “उन्होंने उदारवाद की अनिवार्य विषय वस्तु का प्रतिपादन किया था अर्थात् जनता ही सारी राजनीतिक सत्ता का स्रोत है, जनता की स्वतन्त्र सहमति के बिना सरकार का अस्तित्व न्यायसंगत नहीं, सरकार की सभी कार्यवाहियों का नागरिकों के एक सक्रिय संगठन द्वारा आंका जाना आवश्यक होगा। यदि राज्य अपने उचित अधिकार का अतिक्रमण करे तो उसका विरोध किया जाना चाहिए। लॉक का सीमित राज्य व सीमित सरकार का सिद्धान्त उदारवाद का आधार-स्तम्भ है।
- व्यक्तिवाद का सिद्धान्त : लॉक की सबसे महत्त्वपूर्ण देन उसकी व्यक्तिवादी विचारधारा है। लॉक के दर्शन का केन्द्र व्यक्ति और उसके अधिकार हैं। वाहन के शब्दो में- “लॉक की प्रणाली में प्रत्येक चीज का आधार व्यक्ति है, प्रत्येक व्यवस्था का उद्देश्य व्यक्ति की सम्प्रभुता को अक्षुण्ण रखना है।” लॉक ने प्राकृतिक अधिकारों को गौरवान्वित कर, व्यक्ति की आत्मा की सर्वोच्च गरिमा को स्वीकार कर, सार्वजनिक हितों पर व्यक्तिगत हितों को महत्त्व देकर उसने व्यक्तिवाद की पृष्ठभूमि को महबूत बनाया है। लॉक ने व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर बल दिया तथा व्यक्ति को साध्य तथा राज्य को साधन माना है। उसके बुनियादी विचारों पर व्यक्तिवाद आधारित है।
- शक्ति-पृथक्करण का सिद्धान्त : लाकॅ की महत्त्वपण्ू ार् दने उसका शक्ति-पृथक्करण का सिद्धान्त है। इसका मान्टेस्क्यू पर गहरा प्रभाव पड़ा है। ग्रान्सियान्स्की के अनुसार- “मान्टेस्क्यू का सत्ताओं के पृथक्करण का सिद्धान्त लॉक की संकल्पना का ही आगे गहन विकास था।” लॉक का यह मानना था कि शासन की समस्त शक्तियों का केन्द्रीयकरण, स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए सही नहीं है। व्यक्ति की स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखने के साधन के रूप में इस सिद्धान्त का प्रयोग करने वाला लॉक शायद पहला आधुनिक विचारक था। लॉक सरकारी सत्ता को विधायी, कार्यकारी तथा संघपालिका अंगों में विभाजित करता है ताकि शक्ति का केन्द्रीयकरण न हो। लास्की के अनुसार- “मान्टेस्क्यू द्वारा लॉक को अर्पित की गई श्रद्धांजलि अभी अशेष है।”
- कानून का शासन : लॉक की राजनीतिक शक्ति की परिभाषा का महत्त्वपूर्ण तत्त्व यह है कि इसे कानून बनानेका अधिकार है। लॉक कानून के शासन को प्रमुखता देता है तथा कानून के शासन का उल्लंघन करने वाले शासक को अत्याचारी मानता है। लॉक के शब्दों में “नागरिक समाज में रहने वाले एक भी व्यक्ति को समाज के कानूनों का अपवाद करने का अधिकार नहीं है।” वह निर्धारित कानूनों द्वारा स्थापित शासन को उचित मानता है। आधुनिक राज्य कानून का पूरा सम्मान करते हैं।
- क्रान्ति का सिद्धान्त : लॉक का मानना है कि यदि शासक अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करने में असफल हो जाए या अत्याचारी हो जाए तो जनता को शासन के विरुद्ध विद्रोह करने का अधिकार है। लॉक के इस सिद्धान्त का अमेरिका तथा फ्रांस की क्रान्तियों पर गहरा प्रभाव पड़ा। लॉक का कहना है कि सरकार जनता की ट्रस्टी है। यदि वह ट्रस्ट का उल्लंघन करे तो उसे हटाना ही उचित है। लॉक के इसी कथन ने 1688 की गौरवमयी क्रान्ति का औचित्य सिद्ध किया है और अमेरिका व फ्रांस में भी परोक्ष रूप से क्रान्तियों के सूत्रधारों को इस कथन ने प्रभावित किया।
- धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा : लॉक व्यक्ति को उसके अन्त:करण के अनुसार उपासना की स्वतन्त्रता देता है। लॉस्की के अनुसार- “लॉक वास्तव में उन अंग्रेजी विचारकों में प्रथम था जिनके चिन्तन का आधार मुख्यत: धर्मनिरपेक्ष है।” लॉक के राज्य में पूर्ण सहिष्णुता थी। लॉक का मानना है कि राज्य व चर्च अलग-अलग हैं। राज्य आत्मा व चर्च के क्षेत्रधिकार से परे है। राज्य को धार्मिक मामलों में तटस्थ होना चाहिए। यदि कोई धार्मिक उन्माद उत्पन्न हो तो राज्य को शान्ति का प्रयास करना चाहिए। इसलिए लॉक ने धर्मनिरपेक्षता का समर्थन किया। उसके सिद्धान्त में चर्च को एक स्वैच्छिक समाज में पहली बार परिवर्तित किया गया।
- उपयोगितावादी तत्त्व : लॉक का सिद्धान्त उपयोगितावादी तत्त्वों के कारण उपयोगितावादी विचारक बेन्थम को भी प्रभावित करता है। लॉक ने कहा, “वह कार्य जो सार्वजनिक कल्याण के लिए है वह ईश्वर की इच्छा के अनुसार है।” लॉक ने राज्य का उद्देश्य व्यक्ति के अधिकतम सुखों की सुरक्षा बताया। लॉक राज्य को व्यक्ति की सुविधाओं का यन्त्र मात्र मानते हैं। अत: बेन्थम लॉक के बड़े ऋणी हैं।
- आधुनिक राज्य की अवधारणा : लॉक की धारणाएँ समाज की प्रभुसत्ता, बहुमत द्वारा निर्णय, सीमित संवैधानिक सरकार का आदर्श तथा सहमति की सरकार आदि आदर्श आधुनिक राज्यों में प्रचलित हैं। आधुनिक राज्य लॉक की इन धारणाओं के किसी न किसी रूप में अवश्य प्रभावित है। आधुनिक विचारक किसी न किसी रूप में लॉक के प्रत्यक्ष ज्ञान का ऋणी है।
- रूसो पर प्रभाव : लॉक के समाज को सामान्य इच्छा के सिद्धान्त पर लॉक का स्पष्ट प्रभाव है। लॉक के अनुसार सर्वोच्च सत्ता समाज में ही निवास करती है। रूसो की सामान्य इच्छा लॉक के समुदाय की सर्वोच्चता के सिद्धान्त पर आधारित है।
यद्यपि लॉक के विचारों में विरोधाभास एवं अस्पष्टता पाई जाती है, किन्तु राजनीतिक सिद्धान्त पर लॉक का अमिट प्रभाव पड़ा है। उसके जीवनकाल में उसकी धारणाओं का बहुत सम्मान था। भावी पीढ़ियों को भी लॉक ने प्रभावित किया। लॉक की विचारधारा ने उसे मध्यवर्गीय क्रान्ति का सच्चा प्रवक्ता बना दिया था। लॉक की राजनीतिक चिन्तन की मुख्य देन व्यक्तिवाद, लोकप्रभुता, उदारवाद, संविधानवाद और नागरिकों के मौलिक अधिकार हैं। लॉक की महत्ता का मापदण्ड उनके राजनीतिक विचारों द्वारा परवर्ती राजनीतिक चिन्तन को प्रभावित करता है। अत: हम कह सकते हैं कि लॉक का राजनीतिक चिन्तन को योगदान अमूल्य व अमर है।