दबाव समूह का अर्थ

दबाव समूह का अर्थ साधारण शब्दों में दबाव समूह लोगों के उस संगठित समूह को कहा जाता है जो अपने सदस्यों के हितों की सिद्धि के लिए सरकार की निर्णयकारिता को प्रभावित करता है। यद्यपि दबाव समूह के लिए कुछ विद्वान हित समूह का भी प्रयोग करते हैं, लेकिन बिना राजनीतिक प्रक्रिया को प्रभावित किए कोई भी हित समूह दबाव नहीं कहला सकता। हित समूह में प्रभावकारिता की शक्ति आ जाने पर ही वह दबाव समूह का रूप लेता है। यही प्रभावकारिता समूह के हितों को प्राप्त करने में मददगार होती है।

हित समूह व दबाव समूह में अन्तर

यद्यपि कुछ विद्वान हित समूह और दबाव समूह में कोई अन्तर नहीं मानते, लेकिन दोनों में आधारभूत समानताएं होने के बावजूद भी अन्तर है। जब कोई समूह अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए राजनीति को प्रभावित करने को तैयार हो जाता है तो उसे हित समूह कहा जाता हैं जब कोई हित समूह अत्यधिक सक्रिय होकर अन्य हित समूहों को पीछे धकेलकर अपने हितों की सिद्धि के लिए सरकार पर अपने दबाव बढ़ा लेता है तो उसे दबाव समूह की संज्ञा दी जाती है।

कार्टर और हर्ज ने दबाव समूह और हित समूह में अन्तर बताते हुए लिखा है-”विभिन्न आर्थिक व्यावसायिक, धार्मिक, नैतिक और अन्य समूहों से परिपूर्ण आधुनिक बहुलवादी समाज के सामने अनिवार्य रूप से एक बड़ी समस्या यही है कि इन विभिन्न हितों तथा शासन और राजनीति के बीच में सम्बन्ध कैसे हों एक स्वतन्त्र समाज में हित समूहों को स्वतन्त्र रूप में संगठित होने की अनुमति होती है और जब ये समूह सरकारी तन्त्र और प्रक्रिया पर प्रभाव डालने का प्रयास करते हैं और इस प्रकार कानूनों, नियमों और प्रशासकीय कार्यों को अपने अनुकूल ढालने की चेष्टा करते हैं तो वे हित-समूह, दबाव समूहों में बदलकर सरकार पर दबाव डालने वाले हो जाते हैं।”

दबाव समूह और हित समूह में प्रमुख अन्तर हैं :-

  1. हित समूह अपनी हित सुरक्षा के लिए अनुनयनी तरीके काम में लाते हैं। अर्थात् वे सरकार से प्रार्थना करते हैं। इसके विपरीत दबाव समूह अपने हितों की पूर्ति के लिए सरकार पर दबाव के तरीके प्रयोग करते हैं।
  2. हित समूह राजनीति से प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं रखते, जबकि दबाव समूह राजनीतिक गतिविधियों से प्रत्यक्ष सम्बन्ध रखते हैं और सदैव राजनीतिक प्रक्रिया को प्रभावित करने की चेष्टा करते रहते हैं।
  3. हित समूहों का सम्बन्ध सामाजिक संरचना व प्रक्रिया से होता है। उनका लक्ष्य तो सदैव सामाजिक गतिशीलता है। इसके विपरीत दबाव समूह राजनीतिक प्रक्रिया को प्रभावित करने का प्रयास करते रहते हैं, क्योंकि यही गुण उन्हें हित समूहों से अलग करता है।
  4. समाज में हित समूह तो अनेक होते हैं, लेकिन दबाव समूह संख्या में कम होते हैं, क्योंकि सभी हित समूह राजनीतिक प्रक्रिया को प्रभावित करने में सक्षम नहीं होते।
  5. हित समूहों का सम्बन्ध सामाजिक गतिशीलता से है, जबकि दबाव समूहों का सम्बन्ध राजनीतिक व्यवस्था को गतिशील बनाने से है।
  6. हित समूह अपने लक्ष्य में कम सफल रहते हैं, क्योंकि उनके पास प्रभावशीलता का गुण नहीं होता। इसके विपरीत दबाव समूह प्रभावशीलता के गुण के कारण अपने लक्ष्य को आसानी से प्राप्त कर लेते हैं।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि हित समूह और दबाव समूह में कुछ अन्तर है, इसलिए दोनों को एक मानना भारी भूल है। लेकिन फिर भी राजनीतिक अध्ययन में इन दोनों का समानार्थी प्रयोग ही होता आया है। आज तक किसी ने भी हित समूह और दबाव समूह को सर्वथा अलग करके अध्ययन करने की चेष्टा नहीं की, इसी कारण इनके समानार्थी प्रयोग की विसंगति जारी है।

दबाव समूह व राजनीतिक दल में अन्तर

किसी भी राजनीतिक व्यवस्था में दबाव समूह और राजनीतिक दल दोनों ही विद्यमान होते हैं। दोनों ही राजनीतिक गतिशीलता में अपनी अहम् भूमिका निभाते हैं। दोनों आपस में भी घनिष्ठ रूप से सम्बन्ध रखते हैं। दबाव समूह राजनीतिक दलों के साथ सहयोग करते हैं और राजनीतिक दल दबाव समूहों के। इसके बावजूद भी दोनों में अन्तर हैं :-

  1. राजनीतिक दल समुदाय के बहुत सारे वर्गों के बहुत सारे हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं, यहां तक कि वे पूरे राष्ट्र के हितों की चिन्ता करते हैं। इसके विपरीत हित समूहों या दबाव समूहों के उद्देश्य सीमित होते हैं और वे विशेष समूह के हितों की ही देखरेख करते हैं।
  2. राजनीतिक दल अपने विशिष्ट हितों को प्राप्त करने के लिए सत्ता प्राप्त करने का प्रयास करते हैं, जबकि दबाव समूह सत्ता प्राप्त करने या सरकार का निर्माण करने की बजाय सरकार को प्रभावित करने तक ही सीमित रहते हैं।
  3. राजनीतिक दलों के संगठन का आधार व्यापक होता है, जबकि दबाव समूह का संगठन सीमित होता है। उसके सदस्यों की संख्या राजनीतिक दल की तुलना में कम होती है।
  4. राजनीतिक दलों की स्पष्ट राजनीतिक विचारधारा होती है, जबकि दबाव समूह की कोई राजनीतिक विचारधारा या कार्यक्रम नहीं होता। उसका सम्बन्ध तो हितों की प्राप्ति तक ही सीमित रहता है।
  5. राजनीतिक दल चुनावों में अपने प्रत्याशी खड़े करते हैं और उनको सफलता दिलाने के लिए हर सम्भव प्रयास करते हैं। इसके विपरीत दबाव समूह चुनावों में अपने प्रत्याशी खड़े नहीं करते, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक दलों के प्रत्याशियों की ही मदद करते हैं।
  6. राजनीतिक दल एक राजनीतिक संगठन है, जबकि दबाव समूह गैर-राजनीतिक संगठन है।
  7. राजनीतिक दलों की सदस्यता अनन्य होती है अर्थात् एक व्यक्ति एक ही समय में केवल एक ही राजनीतिक दल का सदस्य बन सकता है, जबकि एक व्यक्ति एक ही समय में अनेक हित या दबाव समूहों का सदस्य हो सकता है।
  8. राजनीतिक दल सरकार के अन्दर तथा बाहर दोनों जगह कार्य करते हैं, जबकि दबाव समूह सरकार के बाहर ही कार्य करते हैं।
  9. राजनीतिक दल दीर्घकालिक लक्ष्य रखते हैं जबकि दबाव समूहों के लक्ष्य अल्पकालिक होते हैं। इसी कारण राजनीतिक दलों की तुलना में उनकी प्रकृति कम स्थायी है।
  10. राजनीतिक दलों का कार्यक्षेत्र व्यापक होता है, जबकि दबाव समूहों का सम्बन्ध मानव जीवन के किसी विशेष पहलु से होता है। इस तरह राजनीतिक दलों की तुलना में दबाव समूहों का कार्यक्षेत्र संकुचित व विशिष्ट होता है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि दबाव समूह और राजनीतिक दलों में काफी अन्तर है। लेकिन फिर भी राजनीतिक समाज में दोनों की भूमिका महत्वपूर्ण है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और राजनीतिक व्यवस्था को गतिशील बनाने में समान भागीदार हैं। दबाव समूहों और राजनीतिक दलों में स्पष्ट अन्तर तो विकसित देशों में ही देखने को मिलता है, विकासशील देशों में नहीं, क्योंकि विकासशील देशों मेंं तो दबाव समूह आंतरिक संगठन की दृष्टि से कमजोर है।

दबाव समूह की विशेषताएं

  1. दबाव समूह औपचारिक रूप से संगठित व्यक्ति समूह होते हैं।
  2. दबाव समूह के निर्माण का आधार स्वहित होता है और इसी की प्राप्ति करना इसका ध्येय भी होता है।
  3. दबाव समूह सरकार में भाग नहीं लेते, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से सरकार की नीतियों को प्रचारित करते हैं।
  4. दबाव समूह सदस्य संख्या, उद्देश्य, चुनाव आदि की दृष्टि से राजनीतिक दल से अलग होता है।
  5. दबाव समूहों का कार्यक्षेत्र राजनीतिक दलों की तुलना में सीमित होता है।
  6. दबाव समूह सरकार पर अपना प्रभाव राजनीतिक दलों के माध्यम से ही डालते हैं।
  7. दबाव समूह सभी प्रकार की राजनीतिक व्यवस्थाओं में पाए जाते हैं। इसी कारण इनकी प्रकृति सर्वव्यापी होती है।
  8. दबाव समूहों की सदस्यता ऐच्छिक होती है। एक व्यक्ति एक समय में अनेक दबाव समूहों का सदस्य बन सकता है।
  9. दबाव समूहों का कार्यकाल अनिश्चित होता है।
  10. दबाव समूहों गैर-राजनीतिक संगठन होते हैं।

दबाव समूह के प्रकार

आज विश्व के सभी देशों में दबाव समूहों की संख्या इतनी अधिक है कि उनका वर्गीकरण करना कठिन हो गया है। इनमें से आकार, उद्देश्य, प्रकृति की दृष्टि से सभी दबाव समूह अलग-अलग भागों में बांटे जा सकते हैं। फ्रेडरिक, राबर्टस सी0 बोन, ब्लौण्डल, ऑमण्ड आदि विद्वानों ने दबाव समूहों को वर्गीकृत किया है :-

  1. ब्लौण्डल का वर्गीकरण
  2. ऑमण्ड का वर्गीकरण
  3. राबर्ट सी0 बोन का वर्गीकरण
  4. कार्ल फ्रेडरिक का वर्गीकरण

1. ब्लौण्डल का वर्गीकरण –

ब्लौण्डल ने दबाव समूहों के निर्माण के प्रेरक तत्वों के आधार पर इन्हें दो भागों में बांटा है। यह वर्गीकरण (i) साम्प्रदायिक दबाव समूह (ii) साहचर्य दबाव समूहों के रूप में है। ब्लौण्डल का कहना है कि साम्प्रदायिक दबाव समूह सामाजिक सम्बन्धों के आधार पर बनते हैं। इनके निर्माण में परिवार, प्रगति, धर्म, वर्ग आदि तत्वों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। ऐसे समूहों की सदस्यता जन्म से ही प्राप्त होती है। ब्लौण्डल ने सामप्रदायिक दबाव समूहों को भी दो भागों – प्रथागत तथा संस्थागत दबाव समूहों में बांटी है। प्रथागत दबाव समूह प्रथाओं, रीति-रिवाजों व रुढ़ियों पर आधारित होते हैं।

भारत में ऐसे ही दबाव समूह हैं। जब एक धर्म व जाति के लोग औपचारिक रूप से संगठित होकर संस्था का निर्माण कर लेते हैं तो उससे संस्थागत दबाव समूहों का जन्म होता है। भारत में जाति व धर्म के आधार पर अनेक दबाव समूह सरकार की नीति को प्रभावित करते हैं। ब्लौण्डल ने दबाव समूह का दूसरा प्रकार साहचर्य दबाव समूह बताया है। इस प्रकार के दबाव समूहों का लक्ष्य विशिष्ट होता है। औद्योगिक विकास के साथ-साथ ऐसे दबाव समूहों की संख्या में भी वृद्धि हुई है।

इन समूहों का विशिष्ट लक्ष्य साधन के रूप में राजनीतिक व्यवस्था में इनकी मांगों को प्रवेश कराने में समर्थ होता है। यह दबाव समूह साम्प्रदायिक दबाव समूहों से सदस्यता की प्रेरणा के दृष्टिकोण से अलग होता है। ये दबाव समूह भी साम्प्रदायिक दबाव समूहों की तरह – संरक्षाणात्मक व उत्थानात्मक दबाव समूह, दो तरह के होते हैं। संरक्षणात्मक दबाव समूह अपने सदस्यों के सामान्य हितों की रक्षा करता है, जबकि उत्थानात्मक दबाव समूह विशिष्ट लक्ष्यों के साथ जन्म लेता है। गौर संरक्षण संघ, नारी स्वतन्त्रता संघ इसके प्रमुख उदाहरण हैं। श्रमिक कल्याण संघ संरक्षात्मक दबाव समूह का, हरिजन सेवक संघ प्रथागत का तथा सैनिक-कल्याण परिषद संस्थात्मक दबाव समूह का प्रमुख उदाहरण है।

2. ऑमण्ड का वर्गीकरण –

ऑमण्ड ने संरचना और हित संचारण के आधार पर दबाव समूहों को चार भागों – (i) संस्थात्मक (ii) प्रदर्शनात्मक (iii) असमुदायात्मक (iv) समुदायात्मक में बांटा है। ऑमण्ड ने संस्थागत दबाव समूहों में उनको लिया है जो किसी राजनीतिक दल या अन्य समान हितों वाले वर्गों का भी प्रतिनिधित्व करते हैं। भारत में संसद, नौकरशाही तथा राजनीतिक दलों में ऐसे ही समूह पाए जाते हैं। इसका उद्देश्य सामाजिक और राजनीतिक हितों की पूर्ति करना होता है। ये दबाव समूह विकसित देशों में अधिक पाए जाते हैं। मजबूत संगठन के स्वामी होने के कारण ये हितों का स्पष्टीकरण करने में अधिक सफल रहते हैं। दबाव समूहों का दूसरा प्रकार प्रदर्शनात्मक दबाव समूहों का है जो भीड़, जलूस, दंगों, धरनों, हड़तालों आदि के ्ररूप में अचानक ही राजनीतिक व्यवस्था में प्रवेश कर जाते हैं। इन्हें चमत्कारिक दबाव समूह भी कहा जाता है।

ये दबाव समूह अस्त-व्यस्त प्रकृति के होते हैं। ये शासनतन्त्र को भ्रमग्रस्त करके अपने हितों की प्राप्ति करने में सफल व असफल दोनों हो सकते हैं। भारत, फ्रांस, इटली आदि देशों में इनका बहुत प्रभाव है। तीसरा वर्ग असमुदायात्मक या असाहचर्य दबाव समूहों का है। इनका जन्म, धर्म, रक्त सम्बन्ध, वंशानुगत या हित-संचार आदि तत्वों के आधार पर होता है। ये दबाव समूह धार्मिक नेताओं, विशिष्ट व्यक्तियों आदि द्वारा संगठित व असंगठित होते रहते हैं।

इनकी प्रमुख विशेषता यह होती है कि ये हितों के साधन का काम निरन्तर न करके समय-समय पर ही करते हैं। आधुनिक युग में इनका महत्व सीमित है। दबाव समूहों की चौथी प्रकार, समुदायात्मक या साहचर्य दबाव समूहों का है। इस प्रकार के समूह विशेष व्यक्तियों के हितों का प्रतिनिधित्व करने के लिए औपचारिक रूप से संगठित होते हैं। श्रमिक संघ, व्यापारिक संघ इस प्रकार के ही दबाव समूह हैं। इस प्रकार के दबाव समूह नियमों पर आधारित होते हैं और अपने हितों की प्राप्ति के लिए विधि-सम्मत प्रक्रिया अपनाते हैं। भारत व अमेरिका में इस प्रकार के काफी दबाव समूह हैं।

3. राबर्ट सी0 बोन का वर्गीकरण –

राबर्ट सी0 बोन ने दबाव समूहों को प्रकृति व उद्देश्यों की दृष्टि से दो भागों (i) परिस्थिति-जन्य दबाव समूह (ii) अभिवृति जन्य दबाव समूह में बांटा है। परिस्थिति जन्य दबाव समूहों का उद्देश्य अपने सदस्यों की वर्तमान आर्थिक और सामाजिक अवस्थाओं को सुधारना होता है। इनकी प्रकृति विशिष्ट होती है और यें अपने सदस्यों के हितों को साधने के लिए वैधानिक प्रक्रिया का ही उपयोग करते हैं। इनका ध्येय दीर्घकालीन हितों को प्राप्त करना होता है। दूसरा वर्ग अभिवृति जन्य समूहों का है जो कुछ मूल्यों पर आधारित होते हैं। ये समूह परिस्थिति जन्य समूहों से अलग होते हैं। इनका उद्देश्य सामाजिक परिवर्तन को प्राप्त करना है। इसके लिए ये शांतिपूर्ण तथा क्रांतिकारी दोनों साधनों का प्रयोग करते हैं। ये अपने लक्ष्यों को तेज गति की तकनीकों का प्रयोग करके अल्पकाल में ही प्राप्त करने की क्षमता रखते हैं।

4. कार्ल फ्रेडरिक का वर्गीकरण –

कार्ल फ्रेडरिक ने दबाव समूहों को दो श्रेणियों – सामान्य और विशिष्ट दबाव समूहों में बांटा है। जो दबाव समूह सामान्य लक्ष्यों को लेकर चलते हैं, वे सामान्य दबाव समूह और जिनके हित विशिष्ट प्रकार के होते हैं, वे विशिष्ट दबाव समूह कहलाते हैं।

उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि राबर्ट सी0 बोन का वर्गीकरण सामान्य होते हुए भी दबाव समूहों की प्रकृति, संगठन, उद्देश्यों तथा कार्यविधि को स्पष्ट करने वाला महत्वपूर्ण वर्गीकरण है। यह वर्गीकरण अन्य की अपेक्षा अधिक सुस्पष्ट तथा सुसंगत है। यह वर्गीकरण अपने आप में कुछ विशेष प्रकार के गुण लिए हुए है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि ऑमण्ड, फ्रेडरिक तथा ब्लौण्डल के वर्गीकरण का कोई महत्व नहीं है। ये सभी वर्गीकरण कुछ न कुछ महत्व अवश्य रखते हैं।

दबाव समूह के कार्यात्मक तरीके

दबाव समूह अपने हितों को प्राप्त करने के लिए प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में अलग-अलग ढंग से कार्य करने के तरीके अपनाते हैं। प्रत्येक दबाव समूह का कार्यात्मक व्यवहार भी अलग-अलग होता है, इसी कारण उनके द्वारा प्रयोग किए जाने वाले हित-साधन भी अलग-अलग प्रकार के हो जाते हैं। अपने हितों की प्राप्ति के लिए दबाव समूहों द्वारा इन साधन या तकनीकें काम में लाई जाती हैं :-

1. लॉबिइंगब – सार्वजनिक नीति को प्रभावित करने के लिए हित व दबाव समूहों के सदस्य विधानमण्डल के विधायकों से सांठ-गांठ करते हैं। यही सांठ-गांठ विधायकों को दबाव समूहों के हित में नीति बनाने को बाध्य कर देती है। वे अपने प्रबल समर्थक विधायिकों द्वारा विधानमण्डल में अपने हितों की मांग रखते हैं और मजबूत लॉबी के कारण प्राय: सफल भी हो जाते हैं। अपनी लॉबी मजबूत करने के लिए वे विधायकों को रिश्वत देने से भी नहीं चूकते। अमेरिका में इस प्रकार की मजबूत लॉबी वाले हजारों दबाव समूह हैं जो सरकार द्वारा रजिस्टर्ड भी हैं। वहां पर कानून निर्माण मे इस लॉबिइंगब प्रक्रिया का व्यापक प्रभाव है। भारत में भी इस प्रकार की लॉबिइंग वाले कुछ औद्योगिक घराने हैं जो नीति-निर्माण की प्रक्रिया को सीधे संसद में ही प्रभावित करते हैं।

2. जनमत को प्रभावित करना – दबाव समूह अपना पक्ष मजबूत करने के लिए जनता से सीधा सम्पर्क बनाए रखते हैं। अपनी वाक्पटुता के बल पर इनके सदस्य जनमानस में अपनी समस्याओं का प्रचार करते हैं ताकि जनता की सहानुभूति भी प्राप्त की जा सके। इसके लिए वे समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं, रेडियो, डी0वी0, इन्टरनेट, सार्वजनिक सभाएं तथा प्रचार आदि के साधन अपनाते हैं। ये जानते हैं कि जनमत यदि उनके पक्ष में हो गया तो उनके हितों को प्राप्त करने में कोई बाधा नहीं आएगी। लोकतन्त्र में तो जनमत ही एक ऐसा अस्त्र है जो सरकार की नीति को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। जनमत को अपने पक्ष में करने के लिए ये प्रतिवर्ष या मासिक रूप में अपनी विशेष रिपोर्ट, पुस्तक, पुस्तिकाएं आदि भी प्रकाशित करवाते रहते हैं।

3. चुनाव –  यद्यपि कोई भी दबाव समूह चुनावों में न तो प्रत्यक्ष रूप से अपने उम्मीदवार खड़े करता है और न ही सरकार में शामिल होने की लालसा रखता है। लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से प्रत्येक दबाव समूह चुनावी प्रक्रिया को प्रभावित करने का प्रयास करता है। सभी दबाव समूह चुनावों के समय अपने सहयोगी राजनीतिक दल को आर्थिक मदद भी देते हैं और चुनाव प्रचार में सहयोगी दलों के प्रत्याशियों के पक्ष में प्रचार भी करते हैं। उनकी सदैव यही इच्छा रहती है कि उनके समर्थक दल ही संसद में जाकर सरकार बनाएं ताकि उनके हितों का पूरा सम्मान हो सके। उनका चुनावी कार्यक्रम पर्दे के पीछे से ही चलता है। उन्हें पता होता है कि यदि किसी दल या उम्मीदवार का खुला समर्थन किया गया तो कालान्तर में उस दल का सरकार में प्रभाव समाप्त होते ही उनको ही अधिक हानि होगी। कई बार तो वे टिकट वितरण में अहम् भूमिका निभाते हैं। उनकी यही इच्छा रहती है कि उनके चहेतों को ही टिकट मिले और वे चुनाव जीतकर सरकार बनाएं। कई बार उनकी यह इच्छा पूर्ण हो जाती है, लेकिन कई बार नहीं। लेकिन दबाव समूह हार नहीं मानते। वे अगले चुनावों के लिए सांठ-गांठ कर लेते है। इस तरह यह लुका-छुपी का खेल खेलते रहते हैं और अपने हितों को प्राप्त करने का प्रयास जारी रखते हैं।

4. विधायिका को प्रभावित करना – दबाव समूह चुनावों में राजनीतिक दलों की सहायता इसी कारण करते हैं ताकि विधायिका में उनके हितों का ख्याल रखने वाले पहुंच जाएं। वे संसदीय दल के व्यक्तियों के नामजद होने से सरकार में पहुंचने तक उनका पूरा ख्याल रखते हैं। विधायिका को प्रभावित करने के लिए तरीके प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में अलग अलग होते हैं। ब्रिटेन जैसे संसदीय शासन प्रणाली वाले देश में ये अनुशासित ढंग से कार्य करते हैं। लेकिन अमेरिका में वे शक्तियों के पृथक्करण के कारण विधायिका का पूरा फायदा उठाने में सफल रहते हैं। वहां पर दल के सचेतकों द्वारा विधायकों पर कठोर नियन्त्रण न होने के कारण वे रिश्वत आदि साधनों द्वारा अपना काम आसानी से निकाल लेते हैं।
भारत, इटली तथा फ्रांस में ये समूह संसद से बाहर रहकर ही सक्रिय रहते हैं। वे अपने हितों को प्राप्त करने के लिए विधायिका को प्रभावित करने के चक्कर में कई बार तो असंवैधानिक तरीकों का भी प्रयोग कर लेते हैं। ये दबाव समूह विधायिका की समितियों के आस-पास ही अधिक केन्द्रित रहते हैं। कई देशों में तो विधायी समितियों पर दबाव समूहों का पूरा प्रभाव है। इस प्रकार दबाव समूह अपने हितों को प्राप्त करने के लिए विधायिका को भी प्रभावित करने का पूरा प्रयास करते रहते हैं।
5. कार्यपालिका पर दबाव – अनेक देशों में दबाव समूह अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए कार्यपालिका तक हो भी प्रभावित करने का प्रयास करते हैं। अध्यक्षात्मक देशों में ये राष्ट्रपति के चुनावों में पूरा समर्थन करते हैं और अपना पैसा पानी की तरह बहा देते हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनावों में दबाव समूहों की अहम् सक्रियता रहती है। संसदीय सरकार वाले देशों में भी ये विधायिका के माध्यम से कार्यपालिका को प्रभावित करने के प्रयास करते हैं। इन देशों में उत्तरदायी सरकार होने के कारण चुने हुए विधायिकों को स्थगन प्रस्तावों, ध्यानाकर्षण प्रस्तावों, निन्दा प्रस्तावों आदि द्वारा मन्त्रियों को प्रभावित करने पर जोर डालते हैं और यहां तक मजबूर कर देते हैं कि उनके हितों को बढ़ावा देने वाली नीति को ही क्रियान्वित करें। यह स्वाभाविक है कि जो व्यक्ति किसी दबाव समूह की कृपा से ही विधायक बना हो, तो उसकी निष्ठा अवश्य ही उस दबाव समूह के प्रति रहेगी।
कार्यपालिका की समितियों पर भी ये अपना नियन्त्रण रखने का प्रयास करते हैं। अपने हितों के लिए दबाव समूह कार्यपालिका से निरन्तर सम्पर्क बनाए रखने का प्रयास करते रहते हैं। यदि शांतिपूर्ण ढंग से दबाव समूह कार्यपालिका पर नियन्त्रण व दबाव न बना सकें तो ये अहिंसात्मक तरीकों का प्रयोग करके सरकार पर दबाव बनाने से भी नहीं चूकते। भारत मेंं टाटा समूह, बिड़ला समूह, डालमिया समूह और धीरुभाई अम्बानी समूह का कार्यपालिका पर पूरा प्रभाव है। औद्योगिक नीति के निर्माण में इन औद्योगिक घरानों के हितों का ख्याल अवश्य रखा जाता है।
6. नौकरशाही को प्रभावित करना –  दबाव समूह अपने हितों के लिए अधिकारीतन्त्र से भी सांठ-गांठ रखते हैं। आज राजनीतिक प्रक्रिया में निर्णयों व नीतियों को गति देने में यह नौकरशाही तन्त्र ही अहम् भूमिका निभाता हैं विभिन्न सरकारी विभागों द्वारा नीति-निर्माण के लिए भेजी जाने वाली सूचनाएं इस अधिकारीतन्त्र के हाथों से ही गुजरती है। नौकरशाही ही कार्यपालिका व विधायिका को आवश्यक नीति-निर्माण के आंकड़े उपलब्ध कराती है। भारत जैसे देशों में तो नौकरशाही कार्यपालिका के साथ इतनी अधिक उलझी हुई है कि कई बार लोग नौकरशाही को ही कार्यपालिका समझ बैठते हैं। नौकरशाही को अपने वश में करने के लिए दबाव समूह बेइमानी, घूसखोरी, भाई-भतीजावाद जैसे साधनों का प्रयोग भी करते हैं। यद्यपि नौकरशाही पर दबाव समूहों का प्रभाव सभी देशों में बराबर नहीं हैं। फ्रांस व इटली में एकदलीय व्यवस्था के कारण ये नौकरशाही के साथ ही सांठ-गांठ रखते हैं। इन देशों में दबाव समूह नौकरशाही को खुश करने के लिए साम-दाम-दण्ड-भेद सभी उपायों का सहारा लेते हैं।

7. न्यायपालिका को प्रभावित करना –  दबाव समूह न्यायपालिका को विधायिका तथा कार्यपालिका के माध्यम से प्रभावित करने की बजाय न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय ही कार्यपालिका पर दबाव बनाना शुरु कर देते हैं। अमेरिका और भारत में कार्यपालिका पर इस तरह का दबाव कई अवसरों पर देखा गया है। न्यायपालिका को दूर से ही प्रभावित करने का अधिक प्रयास रखते हैं, क्योंकि न्यायाधीशों का कार्यपालिका तथा विधायिका की तरह चुनाव नहीं होता। अहिंसात्मक साधनों द्वारा न तो न्यायपालिका को प्रभावित करना अपेक्षित है और न ही संविधानिक। इसलिए वे अपने हितों के लिए कार्यपालिका तथा विधायिका द्वारा निर्मित कानूनों को अवैध घोषित करवाने के लिए न्यायपालिका की ही शरण लेते हैं। वे पत्र-पत्रिकाओं में लेख छापकर, समाचार पत्रों में अपने विचार देकर न्यायधीशों के मन को प्रभावित करने के प्रयास भी करते हैं। 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के कानूनों के विरुद्ध दबाव समूहों ने ही न्यायपालिका के पास अपील की थी। भारत में अनेक जनहितकारी याचिकाएं दबाव समूहों ने ही न्यायपालिका में प्रस्तुत की है।
8. हड़ताल, बन्ध और प्रदर्शन – दबाव समूह जब अपनी बातें मनवाने में असफल हो जाते हैं तो वे अहिंसात्मक साधनों का प्रयोग करने से भी नहीं चूकते। वे हड़ताल करते हैं और आज जीवन को अस्त-व्यस्त कर देते हैं। वे बन्ध की घोषणा भी करते हैं। कई बार तो वे हड़ताल में विपक्षी दल के विधायकों व समर्थकों तक को भी शामिल करते हैं। अपनी बात सरकार से मनवाने के लिए वे व्यापक स्तर पर प्रदर्शन भी करते हैं और कई बार मन्त्रियों तक का भी घेराव करते हैं। इन सभी गैर-कानूनी उपायों का प्रयोग करके वे सरकार पर दबाव बनाना चाहते हैं। इन साधनों के सफल रहने पर वे अपने उद्देश्यों में भी कामयाब हो जाते हैं। भारत में इस तरह के साधन दबाव समूहों द्वारा आमतौर पर प्रयोग किए जाते हैं।
9. प्रचार करना – दबाव समूह अपने पक्ष में जनमत को तैयार करने के लिए तथा सरकार का ध्यान आकर्षित करने के लिए प्रचार का बहुत सहारा लेते हैं। वे समाचार पत्रों, रेडियो, टी0वी0 आदि संचार साधनों पर अपने विचारों का प्रसारण करवाते रहते हैं। कई बार दबाव समूह पत्र-पत्रिकाएं भी छपवाते हैं और जनमत को प्रभावित करने के लिए उन्हें नि:शुल्क जनता में वितरित करते हैं। उनका प्रभावशाली प्रचार तन्त्र शासन-वर्ग को भावी संकटों तक का भी आभास करा देता है। इसी कारण भविष्य में राजनीतिक व्यवस्था को संकट से बचाने के लिए सरकार उनकी बात मान ही लेती है।
10. अनुनयन – कई बार दबाव समूह सरकार से सीधी बातचीत भी करते हैं और प्रार्थनापूर्वक अपनी समस्याएं भी रखते हैं। सरकार विशाल जनमत के स्वामी होने के नाते उनकी बात को टालने का जोखिम उठाने से बचानेका ही प्रयास करती हैं और प्राय: उनकी मांगें स्वीकार कर ही लेती हैं। इस तरह अनुनयन द्वारा भी दबाव समूह अपने हितों की प्राप्ति के प्रयास करते हैं। यदि इस तरीके से उनकी मांग न मानी जाती है तो वे सीधी कार्यवाही या सौदेबाजी के साधनों का प्रयोग करना शुरु कर देते हैं।
11. गोष्ठियां करना – अनेक दबाव समूह अपने हितों की प्राप्ति के लिए वाद-विवाद तथा विचार-विमर्श के लिए गोष्ठियों, सेमिनारों, वार्ताओं आदि का आयोजन करके विधायकों तक को भी उनमें बुलाते हैं ताकि अपनी समस्या से उन्हें अवगत कराया जा सके। इससे विधायक व नौकरशाही उनकी मांगों के प्रति जागरुक हो जाती है और नीति-निर्माण करते समय उनकी बातों पर ध्यान देती है। भारत में दबाव समूहों के हितों को लेकर कई बार संसद में प्रश्नकाल के दौरान काफी नोक-झोंक होती है। जो विधायक दबाव समूहों के अनुग्रहित होते हैं, वे अनकी समस्याओं को संसद-सत्र में जोर-शोर से उठाते हैं। ;

12. अन्य साधन –  दबाव समूह सरकारी नीति को अपनी इच्छानुसार ढालने के लिए विधायिका व कार्यपालिका पर कुछ अन्य तरीकों से भी दबाव बनाने का प्रयास करते हैं। भारत में बड़े-बड़े औद्योगिक घराने विधायिका, कार्यपालिका, नौकरशाही आदि के रिश्तेदारों, बच्चों आदि को अपने उद्योगों में उच्च पद पर बैठा देते हैं। कई बार वे विधायकों, कार्यपालकों तथा नौकरशाहों को रिश्वत देने के भी प्रयास करते हैं। वे नौकरशाहों को रिटायरमैंट के बाद अपने उद्योगों में उच्च पद देने का वायदा भी करते हैं। इस प्रकार अनेक अनैतिक साधनों से वे सरकारी तन्त्र को प्रभावित करने का प्रयास करते हैं।इस तरह उपरोक्त विवेचन के बाद कहा जा सकता है कि दबाव समूह सरकार को प्रभावित करने के लिए नैतिक तथा अनैतिक, हिंसक तथा अहिंसक, उचित तथा अनुचित सभी प्रकार की तकनीकं अपनाते हैं। उनका तो सदैव एक ही ध्येय होता है, अपने हितों की प्राप्ति के लिए कार्यपालिका तथा विधायिका पर दबाव। अपने अन्तिम विकल्प के तौर पर वे न्यायपालिका की शरण भी लेते हैं।

दबाव समूह के निर्धारक

प्रत्येक देश में दबाव समूहों की यह शाश्वत् इच्छा रहती है कि सार्वजनिक नीति को प्रभावित करके अपने लक्ष्यों की प्राप्ति की जाए। अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए वे अपनी गतिविधियों का संचालन व समायोजन सरकारों को बाह्य संविधानिक संरचना के अनुसार करने की अपेक्षा, सरकारी तन्त्र के भीतर प्रभावी शक्ति-वितरण की व्यवस्था के अनुसार करते हैं। दबाव समूहों की गतिविधियों का संचालन प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में इसी कारण ही अलग तरह का होता है और उनके द्वारा प्रयोग किए जाने वाले साधन भी अलग-अलग होते हैं।

कई बार तो दबाव समूह एक ही राजनीतिक व्यवस्था में भी अलग-अलग परिस्थितियों में अलग अलग विधियों का प्रयोग करते हुए पाए जाते हैं। इसलिए यह जानना आवश्यक हो जाता है कि वे ऐसा क्यों करते हैं ? इसी में दबाव समूहों की कार्यविधि के निर्धारकों की समस्या छिपी है। एलेन बाल तथा एकसटीन ने दबाव समूहों की राजनीति का व्यापक विश्लेषण करके उसके निर्धारकों का पता लगाया है। एलेन बाल ने तो दबाव समूहों के निर्धारकों का संक्षिप्त ब्यौरा ही दिया है, जबकि हैरी एकसटीन ने दबाव समूहों के निर्धारकों पर विस्तार से चर्चा की है। कुछ अन्य विद्वानों ने भी दबाव समूह की राजनीति का विश्लेषण करने के बाद इन निर्धारकों का सामान्यीकरण किया है। दबाव समूहों की राजनीति या उनकी प्रभावशीलता को निर्धारित करने वाले प्रमुख तत्व हैं :-
  1. राजनीतिक संस्थागत संरचना
  2. दल पद्धति की संरचना व स्वरूप
  3. सरकार की नीतियां व गतिविधियां
  4. सरकार की दबाव समूहों के प्रति अभिवृति या रवैया
  5. राजनीतिक संचारण
  6. राजनीतिक व्यवस्था की समूह की मांगों को सहन करने की क्षमता
  7. दबाव समूहों के स्वयं के लक्षण

1. राजनीतिक संस्थागत संरचना –

दबाव समूहों का अस्तित्व राजनीतिक व्यवस्था की संस्थागत संरचना से काफी घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है। जिस शासन व्यवस्था में नीति-निर्माण और उसे अमली जामा पहनाने का कार्य प्रशासन की केन्द्र शाखा को करना पड़ता है तो वहां कोई भी दबाव समूह राष्ट्रीय स्तर पर भी महत्वपूर्ण, शक्तिशाली और सुसंगठित स्थान प्राप्त कर सकता है। जिस देश में शक्तियों का केन्द्रीयकरण होता है, उन एकात्मक शासन व्यवस्था वाले देशों के दबाव समूहों की राजनीति का केन्द्र राजधानी होती है। इसके विपरीत संघात्मक शासन प्रणाली वाले देशों में दबाव समूह प्रादेशिक स्तर पर अऋिधक सक्रिय रहते हैं। केन्द्र तक तो कम ही दबाव समूह पहुंच पाते हैं।

दबाव समूहों को यह भी पता होता है कि कौन सी संरचना निर्णय लेने में सक्षम है। इसलिए वे विधायिका या कार्यपालिका की तरफ ही झुकते हैं। संसदीय शासनप्रणालियों में तो दबाव समूह विधायिका या कार्यपालिका की समितियों तक को भी अपनी पहुंच में ले लेते हैं। जिस देश में विधायिका या कार्यपालिका नौकरशाही पर अधिक आश्रित रहती है तो ये दबाव समूह अपना डेरा नौकरशाही के ही इर्द-गिर्द डाल लेते हैं।

उदारवादी लोकतन्त्रों में तो शक्ति-विकेन्द्रीयकरण के दबाव समूहों की गतिविधियां अधिक तीव्र हो जाती हैं। सर्वसत्ताधिकारवादी शासन-व्यवस्थाओं में दबाव समूह प्राय: सुप्त अवस्था में रहते हैं, क्योंकि यहां पर इन्हें पैर पसारने की अनुमति नहीं होती। इसी कारण अमेरिका और ब्रिटेन में अध्यक्षात्मक व संसदीय शासन प्रणालियों की निर्णयकारी संरचनाओं में पाए जाने वाले अन्तर के कारण दबाव समूहों की प्रकृति में भी अन्तर आ जाता है।

2. दल पद्धति की संरचना व स्वरूप –

दबाव समूहों की राजनीति पर दल-व्यवस्था का भी गहरा प्रभाव पड़ता हैं एक दल पद्धति वाले देशों में दबाव समूह अपना प्रभाव नहीं जमा पाते, क्योंकि इनका प्रभाव क्षेत्र तो बहुदलीय व्यवस्था वाले देशों में ही अधिक विकसित होता है। सर्वाधिकारवादी देशों में एकदलीय व्यवस्था के कारण ही दबाव समूहों को घृणा की दृष्टि से देखा जाता है। लोकतन्त्र से अलग प्रकार की सभी शासन व्यवस्थाओं में केवल उसी दबाव समूह को रहने की आज्ञा दी जा सकती है जो सत्तारूढ़ दल का समर्थन करता है। दो दलीय व्यवस्था वाले देशों में भी दबाव समूह को बहुदलीय शासन प्रणाली वाले देशों की तरह स्वतन्त्र ढंग से कार्य करने दिया जाता है। यहां पर वे किसी राजनीतिक दल के छिपे हुए समर्थन के अधीन कार्य करते हैं या राजनीतिक तटस्थता का ढोंग करके सत्तारूढ़ दल से अपना सम्बन्ध बनाए रहते हैं। लोकतन्त्रीय शासन प्रणाली वाली बहुदलीय व्यवस्था के अन्तर्गत ये लुका-छुपी का खेल खेलते हैं। कभी ये किसी दल के साथ रहते हैं तो कभी किसी। इसी तरह दल संरचना का स्वरूप भी दबाव समूहों का नियामक होता है।

दल संरचना की कमजोरियां, अनुशासन का अभाव और दलों के बीच विचारधारा सम्बन्धी स्पष्ट अन्तर का होना भी दबाव समूहों की प्रभावशीलता का कारण बन जाता है। इसी कारण अमेरिका में दबाव समूह अधिक सक्रिय है। प्रतिनिधि सभा के चुनावों में अमेरिकी कांग्रेस के प्रतनिधि स्थानीय हितों के दबावों में रहती है। लेकिन ब्रिटेन में कठोर दलीय अनुशासन के कारण विधायकों पर दबाव समूहों का अधिक प्रभाव नहीं पड़ने पाता है। बहुदलीय व्यवस्था के अन्तर्गत दलीय अनुशासन का अभाव होने के कारण दबाव समूहों की विधायकों पर पकड़ मजबूत होती है।

3. सरकार की नीतियां व गतिविधियां –

दबाव समूहों की क्रियाशीलता सरकार की नीतियों पर ही आधारित होता है। जिस देश में सरकार कल्याणकारी नीतियां अपनाती है और सभी वर्गों को शासन में उचित प्रतिनिधित्व देती है तो वहां पर दबाव समूह आसानी से अपनी घुसपैठ कर जाते हैं। यदि सरकार ऐसी नीतियों व गतिविधियों का संचालन करना शुरु कर दे कि लोकतन्त्रीय आस्थाएं ही धूमिल होनें लग जाएं, वहां पर दबाव समूहों के पैर नहीं टिक सकते। प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था मेंं यह बात सरकार ही निश्चित करती है कि किसे क्या देना है, किसे प्रतिबन्धित करना है या किसे अधिक सुविधायें देनी हैं ? इसी तरह दबाव समूहों की कार्यप्रणाली भी सरकार की नीतियों पर ही आधारित होती है। 1947 के समय में और आज के समय में सरकार की नीतियों में आए बदलाव के कारण ही आज दबाव समूह भारत में फल-फूल रहे हैं। आज सरकारें लोक कल्याणकारी नीतियों पर अधिक ध्यान देती है, इसलिए दबाव समूह उदारवादी लोकतन्त्रों में अपनी गतिविधियों को बड़े पैमाने पर संचालित करके अपने हितों को प्राप्त करने में सक्षम है।

4. सरकार की दबाव समूहों के प्रति अभिवृति या रवैया –

सरकार का दबाव समूहों की प्रति सोच भी दबाव समूहों की प्रभावशीलता की नियामक मानी जाती है। उदार लोकतन्त्रों में समूह व्यवस्था को राजनीतिक व्यवस्था का स्वाभाविक अंग माना जाता है। इसी कारण वहां पर दबाव समूहों की भरमार होती है। सर्वसत्ताधिकारवादी व्यवस्थाओं में सरकारों का रवैया दबाव समूहों के प्रति कठोर होता है। वहां पर केवल वही दबाव समूह पनप सकता है तो सत्तारूढ़ सरकार की नीतियों का समर्थक बना रहे। सरकार विरोधी समूहों को सर्वाधिकारवादी सरकारें किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं कर सकती। लोकतन्त्र शासन प्रणाली ही एकमात्र ऐसी शासन प्रणाली है जो दबाव समूहों की गतिविधियों को झेल सकती है। इसी कारण निरंकुश और लोकतंत्रीय सरकारों का दबाव समूहों के प्रति पाया जाने वाला रवैया दबाव समूहों द्वारा सरकार को प्रभावित करने वाले साधनों में भी भिन्नता ला देता है।

5. राजनीतिक संचारण –

दबाव समूह की प्रभावशीलता का निर्धारण इस बात से भी होता है कि राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक संचारण का कितना निषेध है तथा कितनी छूट है। कोई राजनीतिक व्यवस्था तो दबाव समूहों की सक्रियता के प्रति सहनशील होती है तो कोई उसे आंशिक तौर पर ही स्वीकार करती है या उनकी सक्रियता को सहन ही नहीं करती। भारतीय शासन व्यवस्था राजनीतिक संचारण की छूट देती है। इसी कारण भारत में असंख्यक दबाव समूह व हित समूह उभरे हैं। कुछ देशों में दबाव समूहों को घृणा की दृष्टि से देखा जाता है, इसी कारण वहां पर राजनीतिक संचारण की छूट इनको प्राप्त नहीं है। चीन तथा जर्मनी में राजनीतिक संचारण की सीमित व्यवस्था होने के कारण वहां पर दबाव समूह अविकसित प्रकृति के हैं।

6. राजनीतिक व्यवस्था की समूह की मांगों को सहन करने की क्षमता –

प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में दबाव समूहों की गतिविधियां व मांगें अलग-अलग प्रकार की होती हैं। सभी राजनीतिक व्यवस्थाएं दबाव समूहों की मांगों को पूरा करने में असमर्थ होती हैं। ऐसे में अपनी मांगों को पूरा करवाने के लिए दबाव समूह सरकार पर अनुचित दबाव डालने का प्रयास अवश्य करते हैं। उनकी गतिविधियों से परेशान होकर सरकार उन पर प्रतिबन्ध लगा देती है। 1975 के बाद भारत में अनेक दबाव समूह इस प्रतिबन्ध की श्रेणी में आ गए हैं, क्योंकि ये अपनी मांगें मनवाने के लिए अधिक हिंसक साधनों का प्रयोग करने लगे हैं। सरकार दबाव समूहों की गतिविधियों को वहीं पर स्वतन्त्र छोड़ सकती है, जहां उनकी मांगें राजनीतिक व्यवस्था की क्षमता के अनुरूप हों।

7. दबाव समूहों के स्वयं के लक्षण –

एकसटीन का मानना है कि दबाव समूहों के स्वयं के लक्षण भी उनकी प्रभावकारिता के नियामक होते हैं। दबाव समूहों की आर्थिक स्थिति, उनका आकार, सदस्यों की लग्न व कर्मठता, संगठन की ठोसता, संगठन की सामाजिक प्रतिष्ठता आदि कारक भी दबाव समूहों की राजनीतिक व्यवस्था में प्रभावकारिता का कारण होते हैं। आधुनिक जीवन में आर्थिक शक्ति का बहुत महत्व है। आर्थिक शक्ति ही निर्णय-निर्माताओं को प्रभावित कर सकती है। जो दबाव समूह राजनीतिक दलों को अधिक चन्दे देता है, योग्य सदस्यों को भर्ती करता है, वही प्रशासनिक मशीनरी को अपने बारे में सोचने को विवश कर सकता है। दबाव समूह की सामाजिक प्रतिष्ठा भी अनुकूल जनमत तैयार करने में उसका सहयोग करती है और सरकारी पदाधिकारियों पर प्रभाव भी डालती है। जो दबाव समूह अपने लग्नशील सदस्यों के माध्यम से चुनावी कार्यक्रम में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने में सक्षम होता है, वही सरकार के नीति-निर्माण को प्रभावित करने वाली शक्ति बन जाता है।

उपरोक्त विवेचन के बाद कहा जा सकता है कि सरकार की नीति-निर्णय प्रक्रिया की संरचनाएं, दल पद्धति का स्वरूप, सरकार की नीतियां, सरकार की दबाव समूह के प्रति अभिवृति, राजनीतिक संचारण, राजनीतिक व्यवस्था की क्षमता, दबाव समूहों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति व राजनीतिक संस्कृति आदि तथ्व दबाव समूहों की राजनीतिक व्यवस्था में प्रभावकारिता के निर्धारक हो सकते हैं। राजनीतिक व्यवस्थाओं की प्रकृति में अन्तर आने के कारण दबाव समूहों की प्रभावकारिता में भी अन्तर आना स्वाभाविक ही है, क्योंकि सभी राजनीतिक व्यवस्थाओं में दबाव समूह अपने हितों के सम्वर्द्धन के समान तरीके नहीं अपना सकते। संसदीय व्यवस्थाओं में तो दबाव समूहों की प्रभावकारिता अधिक से अधिक विकेन्द्रित होती है, जबकि अध्यक्षात्मक में यह केन्द्रित होती है।

सर्वसत्ताधिकारवादी राजनीतिक व्यवस्थाओं में दबाव समूहों की प्रभावकारिता सीमित व संकुचित होती है, जबकि लोकतन्त्रीय व्यवस्थाओं में यह अधिक व्यापक और विकेन्द्रित होती है। विकासशील देशों में तो सरकार की नीति-निर्णय प्रक्रिया की संरचना, दल पद्धति का स्वरूप तथा राजनीतिक संचारण के प्रतिमान अनिश्चित होने के कारण दबाव समूह के निर्धारक भी अस्पष्ट है।

दबाव समूह के कार्य व भूमिका

आज प्रत्येक देश की राजनीतिक व्यवस्था में दबाव समूहों का विशेष स्थान है। सभी लोकतन्त्रीय देशों में तो इसका महत्व और अधिक है। पहले तो दबाव समूहों को घृणा की दृष्टि से देखा जाता था, लेकिन आज स्थिति बदल चुकी है। आज दबाव समूह को प्रत्येक राजनीतिक समाज, राजनीतिक क्रियाशीलता के लिए एक आवश्यक बुराई के रूप में स्वीकार करने लगा है। आज नीति-निर्माण की प्रक्रिया पर इनका प्रभाव इतना अधिक बढ़ गया है कि इन्हें अदृश्य साम्राज्य कहा जाने लगा है। सरकार की विधायी कार्यों पर इनके बढ़ते प्रभाव के कारण इन्हें विधानमण्डल के पीछे विधानमण्डल भी कहा जाता है। अपने हितों के सम्वर्द्धन के लिए इनका राजनीतिक दलों से घनिष्ठ रूप से जुड़ा रहने के कारण फ्रेडरिक ने इन्हें ‘दल के पीछठे सक्रिय जन’ तक कह दिया है। आज अमेरिका, भारत, इंग्लैण्ड, स्विस, फ्रांस आदि देशों में ये समूह किसी न किसी रूप में राजनीतिक गतिशीलता में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे हैं। किसी राजनीतिक व्यवस्था में इनकी भूमिका इन कारणों से महत्वपूर्ण हो सकती है :-

  1. लोकतन्त्रीय प्रक्रिया की अभिव्यक्ति
  2. सरकार की निरंकुशता पर रोक
  3. नीति-निर्माण में सहायक
  4. शासन-तन्त्र को प्रभावित करना
  5. समाज के विभिन्न वर्गों के हितों में सामंजस्य
  6. जनता व सरकार में कड़ी का काम करना

1. लोकतन्त्रीय प्रक्रिया की अभिव्यक्ति –

प्रजातन्त्रीय शासन प्रणालियां ही दबाव समूहों के पोषण के लिए अनुकूल परिस्थितियां प्रदान करती हैं। इन देशों में दबाव समूह अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए जनमत का अधिक सहारा लेते हैं। यहां पर जनमत तैयार करने के लिए वे विचार-गोष्ठियों, पत्र-पत्रिकाओं, सभाओं आदि का पूरा सहारा लेते हैं। प्रजातन्त्र में अपनी बात मनवाने के लिए यह जरूरी होता है कि जनमत को साथ लेकर चला जाए। इसलिए प्रजातन्त्र में दबाव समूहों द्वारा मजबूत जनमत को तैयार करना लोकतन्त्रीय प्रक्रिया की ही अभिव्यक्ति है। जनमत को शिक्षित करके आंकड़े एकत्रित करके, कानून निर्माताओं के पास पहुंचाकर वे अपने लक्ष्यों की प्राप्ति करने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। इस प्रकार दबाव समूह लोकतन्त्रीय प्रक्रिया को अभिव्यक्त करने का कार्य करते हैं।

2. सरकार की निरंकुशता पर रोक –

आधुनिक युग में शक्तियों का झुकाव केन्द्र की तरफ ज्यादा बढ़ रहा है। आज आर्थिक विकास और सुरक्षा की आवश्यकता ने शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार के विचार को जन्म दिया है। ऐसे में यह संभावना बढ़ जाती है कि सरकार अपनी शक्तियों का निरंकुश प्रयोग भी कर सकती है। परन्तु दबाव समूह किसी न किसी रूप में हर समय सरकारी तन्त्र पर नजर रखते हैं। अपने हितों के संरक्षण की आड़ में सरकार की निरंकुशता से आज जनता की रक्षा भी करते हैं। जिस देश में अधिकारी-तन्त्र (Bureaucracy) पर दबाव समूहों की दृष्टि हो, वह कभी निरंकुश नहीं बन सकता।

3. नीति-निर्माण में सहायक –

लोकतन्त्रीय देशों में तो दबाव समूह शासन-तन्त्र के इर्द-गिर्द ही चक्कर काटते रहते हैं। चाहे कार्यपालिका हो या विधायिका, शासन-तन्त्र के अंग के रूप में उनकी सदा यह जानने की इच्छा रहती है कि लोंगों की आवश्यकताएं क्या हैं ? इन आवश्यकताओं का ज्ञान दबाव समूहों को ही अधिक होता है। इस बारे में सभी आवश्यक सूचनाएं व आंकड़े दबाव समूह ही सरकार को उपलब्ध कराते हैं। वर्ने ने लिखा है-”समूह ही व्यक्ति-ज्ञान के क्षेत्र में विशेष है जो कानून के निर्माण और क्रियान्वयन के लिए आवश्यक है।”

इस प्रकार सरकार गैर-सरकारी स्रोत के रूप में दबाव समूहों से नीति-सम्बन्धी आवश्यक सूचनाएं प्राप्त कर लेती हैं। इसससे विवेकपूर्ण नीति व कानून निर्माण करना संभव हो जाता है। यद्यपि दबाव समूहों द्वारा एकत्रित सूचनाएं व आंकड़े उनके स्वयं के हितों से अधिक सरोकार रखते हैं, लेकिन नीति निर्माण में जो महत्व उन आंकड़ों का होता है, वह अन्य स्रोतो से एकत्रित किए गए आंकड़ों का नहीं हो सकता। अत: दबाव समूह सरकार को नीति-सम्बन्धी आवश्यक कच्ची सामग्री उपलब्ध कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

4. शासन-तन्त्र को प्रभावित करना –

दबाव समूह लोकतान्त्रिक देशों में तो इतने संगठित हो जाते हैं कि वे सरकारी-तन्त्र को प्रभावित करने की क्षमता भी रखते है। अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए विधायिका, कार्यपालिका तथा नौकरशाही तन्त्र को सार्वजनिक नीति में परिवर्तन लाने के लिए दबाव डालते हैं। बहुदलीय व्यवस्था वाले देशों में ये राजनीतिक दलों के साथ सांठ-गांठ करके अपने हितों के लिए सरकार पर दबाव बनाए रखते हैं। द्विदलीय प्रणाली वाले देशों में ये मुख्य कार्यपालिका के आस-पास या विधायिका के इर्द-गिर्द ही चक्कर लगाते रहते हैं। अमेरिका में इनकी पहुंच राष्ट्रपति तक भी होती है। भारत में दबाव समूह अपने हितों की प्राप्ति के लिए राजनीतिक दलों या विधायकों के माध्यम से हर नीति-निर्णय को प्रभावित करने की चेष्टा करते रहते हैं। अपने हितों के लिए ये न्यायपालिका तक की भी शरण ले लेते हैं। इनका मुख्य लक्ष्य ही अपने हितों के लिए शासन-तन्त्र को अपने प्रभाव में रखना है।

5. समाज के विभिन्न वर्गों के हितों में सामंजस्य –

प्रत्येक समाज में किसान, श्रमिक, व्यापारी, मजदूर, जातीय समुदाय, धार्मिक समुदाय, विद्यार्थी, स्त्रियों आदि के अपने अपने हित होते हैं, जिनकी प्राप्ति के लिए ये समूह आपस में प्रतियोगिता करते रहते हैं। प्रत्येक समूह एक दूसरे पर नियन्त्रक का कार्य करता है और अपने से विपरीत समूह को इतना शक्तिशाली नहींं होने देता कि वह निजी-स्वार्थों का केन्द्र ही बन जाए। इस प्रतियोगी-व्यवस्था में समाज में संतुलनकारी प्रवृत्तियां पनपने लगती हैं और समाज के सभी वर्गों के हितों में सामंजस्य बना रहता है। दबाव समूहों की उपस्थिति समाज में संतुलन के साथ-साथ प्रशासन और समाज में भी संतुलन कायम कर देती है। इससे समाज विघटनकारी शक्तियों से निपटने में सक्षम हो जाता है।

6. जनता व सरकार में कड़ी का काम करना –

दबाव समूह जनता और सरकार को जोड़ने वाली कड़ी है। जनता की मांगों को समूहीकरण के रूप में दबाव समूह ही सरकार तक पहुंचाते हैं। नीति-निर्माण करते समय दबाव समूहों द्वारा उपलब्ध सूचनाओं पर ही अधिक ध्यान दिया जाता है। इस तरह दबाव समूह जनता व सरकार को जोड़ने का कार्य भी करते हैं।

उपरोक्त विवेचन के बाद कहा जा सकता है कि दबाव समूह सार्वजनिक नीति को प्रभावित करने के लिए अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। आधुनिक समाज में उनके बढ़ते प्रभाव को देखकर कहा जा सकता है कि दबाव समूह ही वास्तविक राजनीतिक दल है, जो सरकार और जनता को जोड़ने का कार्य करते हैं। लोगों को राजनीतिक शिक्षा देना, जनमत को तैयार करना, सार्वजनिक नीति को प्रभावित करना, सरकार को जनता की मांगें समूहीकरण के रूप में पेश करना आज राजनीतिक दलों की बजाय दबाव समूहों के ही कार्य हो गए हैं। इसी कारण आज कहा जाने लगा है कि दबाव समूह शासकों को बनाने वाले हो गए हैं।

आज अमेरिका, भारत, ब्रिटेन, स्विट्जरलैण्ड, फ्रांस, पूर्वी जर्मनी, पौलैंड आदि देशों में कम या अधिक मात्रा में दबाव समूह कार्यरत हैं। अमेरिका में तो इनका विशेष प्रभाव है। वहां पर ये समूह जितने संगठित तरीके से कार्य कर रहे हैं, अन्य देश में नहीं। इसी कारण अमेरिका के राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने इन समूहों की शक्ति की ओर संकेत करते हुए लिखा है-”संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार एक ऐसा शिशु है जो विशेष हितों की देख-रेख में पला है।” इस प्रकार प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था को गतिशील बनाने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका है।

दबाव समूह की आलोचना

यद्यपि दबाव समूह प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था को गतिशील बनाने, सरकार की निरंकुशता को रोकने, जनता और सरकार में कड़ी का काम करने जैसे महत्वपूर्ण कार्य करते हैं और प्रत्येक राजनीतिक समाज इन्हें आवश्यक बुराई के रूप में स्वीकार भी करने लगा है, लेकिन फिर भी इनकी भूमिका की आलोचना की जाती है। आलोचकों का मत है कि दबाव समूह विशिष्ट हित को लेकर ही सरकार के पास जाते हैं। उनका सामान्य हित से कोई लेना देना नहीं होता। कई बार दबाव समूह अहिंसक साधनों का प्रयोग करके राष्ट्रीय सम्पत्ति को हानि पहुंचाते हैं और समाज की एकता व शांति को भंग करने से भी नहीं चूकते। विधायकों को अनैतिक साधनों से प्रभावित करके वे राजनीतिक भ्रष्टाचार को जन्म देते हैं।

अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए तो वे न्यायपालिका जैसे पवित्र संगठन को भी नहीं छोड़ते। अपने स्वार्थों के लिए वे साम-दाम-दण्ड-भेद सभी नीतियों का प्रयोग निर्बाध रूप से करते हैं। अपने अनैतिक कारनामों द्वारा वे समाज में अनैतिकता का प्रसार कर देते हैं। उनकी बढ़ती भूमिका ने राजनीतिक दलों तक की भूमिका व महत्व को भी सीमित कर दिया है। इसलिए समय की यह मांग है कि दबाव समूहों की निरंकुशता की प्रवृत्ति पर रोक लगाई जाए अन्यथा ये समाज और सरकार दोनों के लिए गंभीर खतरे उत्पन्न कर देंगे।

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