बेंथम का उपयोगितावाद का सिद्धांत

उपयोगितावाद का सिद्धांत बेंथम की सबसे महत्त्वपूर्ण एवं अमूल्य देन है। उसके अन्य सभी राजनीतिक विचार उसके उपयोगितावाद पर ही आधारित हैं। लेकिन उसे इसका प्रवर्तक नहीं माना जा सकता। रोचक बात यह है कि बेंथम ने कहीं भी उपयोगितावाद शब्द का प्रयोग नहीं किया। बेंथम के उपयोगितावादी दर्शन का वर्णन उसकी दो पुस्तकों – ‘फ्रैग्मेण्ट्स ऑन दि गवर्नमेंट’ (Fragments on the Government) तथा ‘इण्ट्रोडक्शन टू दॉ पिंसिपल्स ऑफ मॉरल्स एण्ड लेजिस्लेशन’ (Introduction to the Principles of Morals and Legislation) में मिलता है।

उपयोगितावाद का विकास

उपयोगितावाद के सर्वप्रथम आचारशास्त्र के एक सिद्धांत के रूप में प्राचीन यूनान के एपीक्यूरियन सम्प्रदाय में ही दर्शन होते हैं। इस सम्प्रदाय के अनुसार मनुष्य पूर्णतया सुखवादी है। वह सुख की ओर भागता है तथा दु:खों से बचना चाहता है। इसके बाद सामाजिक समझौतावादियों ने भी 17 वीं शताब्दी में इसका कुछ विकास किया। हॉब्स ने कहा कि मनुष्य पशुवत आचरण करने वाला एक सुखवादी प्राणी है। लॉक तथा पाश्चात्य दर्शन के सिरेनाक वर्ग के प्रचारकों ने भी उपयोगितावाद का विकास किया। डेविड ह्यूम ने भी इसका विकास किया। आगे चलकर ह्येसन ने अपनी पुस्तक ‘नैतिक दर्शन पद्धति’ (System of Moral Philosophy) में उपयोगितावाद के मूलमन्त्र ‘अधिकतम संख्या के अधिकतम सुख’ (The Greatest Happiness of the Greatest Number) का प्रथम बार प्रयोग किया। आगे प्रीस्टले ने भी इसी मूलमन्त्र का प्रयोग किया। इसके बाद बेंथम ने भी प्रीस्टले के निबन्ध ‘Priestley’s Essay on Government’ से उपयोगितावाद की प्रेरणा ग्रहण की। बेंथम ने बताया कि राज्य की सार्थकता तभी है जब वह अधिकतम लोगों के लिए अधिकतम सुख की व्यवस्था करे।

उपयोगितावाद का अर्थ

उपयोगितावाद राजनीतिक सिद्धांतों का ऐसा कोई संग्रह नहीं है जिसमें राज्य और सरकार के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया हो। यह मानव आचरण की प्रेरणाओं से सम्बन्धित एक नैतिक सिद्धांत है। उपयोगितावाद 18 वीं शताब्दी के आदर्शवाद के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया है जो इन्द्रियानुभववाद की स्थापना करता है। उपयोगितावादियों की दृष्टि में उपयोगितावाद का अर्थ – ‘अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख’ है। इसका अर्थ “किसी वस्तु का वह गुण है जो लाभ, सुविधा, आनन्द, भलाई या सुख प्रदान करता है तथा अनिष्ट, कष्ट, बुराई या दु:ख को पैदा होने से रोकता है।” बेंथम के मतानुसार- “उपयोगिता किसी कार्य या वस्तु का वह गुण है जिससे सुखों की प्राप्ति तथा दु:खों का निवारण होता है।” बेंथम ने आगे कहा है कि उपयोगितावाद की अवधारणा हमें यह बताती है कि हमें क्या करना चाहिए तथा क्या नहीं करना चाहिए। यह हमारे जीवन के समस्त निर्णयों की आधारशिला है। उपयोगितावाद का वास्तविक अर्थ सुख है। व्यक्ति ही नहीं सम्पूर्ण समाज का लक्ष्य भी सुख की प्राप्ति है।

उपयोगितावाद की विशेषताएँ

बेंथम के उपयोगितावाद के सिद्धांत की विशेषताएँ हैं :-

  1. सुख और दु:ख पर आधारित: बेंथम का उपयोगितावादी सिद्धांत सुख और दु:ख के दो आधारों पर आधारित है। बेंथम का मानना है कि जो कार्य हमें सुख देता है, उपयोगी है तथा जो कार्य दु:ख पहुँचाया है, उपयोगी नहीं। बेंथम का मानना है कि प्रकृति ने मनुष्य को सुख और दु:ख की दो शक्तियों के अधीन रखा है। यही शक्तियाँ हमें बताती हैं कि मनुष्य को क्या करना चाहिए और क्या नहीं। सही और गलत के मानदण्ड उन शक्तियों से बँधे हुए हैं।
  2. सुख की प्राप्ति और दु:ख का निवारण : बेंथम का मत है कि जो वस्तु सुख प्रदान करती है, वह अच्छी है और उपयोगी है। जिस कार्य या वस्तु से मनुष्य को दु:ख प्राप्त होता है वह अनुपयोगी है। मानव के समस्त कार्यों की कसौटी उपयोगितावाद है। बेंथम का मानना है कि जिस कार्य से प्रसन्नता या आनन्द में वृद्धि होती है तो वह कार्य उपयोगी है। उससे सुख की प्राप्ति होती है और दु:ख का निवारण होताहै। अत: उपयोगितावाद का सिद्धांत सुख की प्राप्ति और दु:ख के निवारण का सिद्धांत है।
  3. सुख व दुु:ख का वर्गीकरण : बेंथम ने सुख-दु:ख को दो भागों – सरल व जटिल में विभाजित किया है। उसके अनुसार सरल सुख 14 प्रकार के तथा सरल दु:ख 12 प्रकार के हैं। सरल सुखों या दु:खों को परस्पर मिलाने से जटिल सुख या दु:ख का जन्म होता है। सरल सुख : (1) मित्रता का सुख (2) इन्द्रिय सुख (3) सहायता का सुख (4) सम्पर्क सुख (5) दया का सुख (6) स्मरण- शक्ति का सुख (7) आशा का सुख (8) सत्ता का सुख (9) धार्मिकता का सुख (10) ईष्र्या का सुख (11) उदारता का सुख (12) सम्पत्ति का सुख (13) कुशलता का सुख (14) यात्रा का सुख सरल दु:ख – (1) अपमान का दुःख (2) धर्मनिष्ठा का दु:ख (3) सम्पर्क का दुःख (4) कल्पना का दु:ख  शत्रुता का दुख (6) इन्द्रिय दुःख (7) अभाव का दु:ख (8) स्मरण शक्ति का दुःख (9) उदारता का दु:ख (10) आशा का दु:ख (11) ईर्ष्या का दुःख (12) अकुशलता का दु:ख।
  4. सुख-दुःख के स्रोत : बेंथम ने सुख-दुःख के चार स्रोत – धर्म, राजनीति, नैतिकता तथा भौतिक मानते हैं। धार्मिक सुख धर्म में आस्था रखने से व धार्मिक व्यवस्था को स्वीकार करने से प्राप्त होता है। जैसे कुम्भ के मेले में स्नान करना। यदि वहाँ कोई अनहोनी हो जाए तो उसे धार्मिक दु:ख कहा जाएगा। राजनीतिक सुख राज्य की नीतियों व कार्यों से प्राप्त होता है। जैसे सरकार द्वारा धर्मनिरपेक्ष नीति का पालन करना। यदि सरकार कोई ऐसा कार्य करे जो जन-कल्याण के विपरीत हो तो उससे प्राप्त दु:ख राजनीतिक दु:ख होगा। व्यक्ति को नैतिक सुख उसके नैतिक आचरण से प्राप्त होता है। जैसे दूसरों की सहायता करना। यदि आवश्यकता पड़ने पर तुम्हें कोई सहायता न मिले तो उससे प्राप्त दु:ख नैतिक दु:ख कहलाएगा। भौतिक सुख प्राकृतिक वस्तुओं से प्राप्त होता है। जैसे सन्तुलित वर्षा का होना सभी को सुख प्रदान करता है। यदि वर्षा अत्यधिक मात्रा में होकर जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर दे तो इससे प्राप्त दु:ख भौतिक या प्राकृतिक दु:ख कहलाएगा।
  5. सुखों में मात्रात्मक अन्तर : बेंथम का मानना है कि सभी सुख गुणों में एक जैसे होते हैं। इसलिए उनमें गुणात्मक की बजाय मात्रात्मक अन्तर पाया जाता है, उसका कहना है कि “पुष्पिन (बच्चों का खेल) उतना ही अच्छा है जितना कविता पढ़ना” खेलने से भौतिक-सुख प्राप्त होता है जबकि कविता पढ़ने से मानसिक सुख। दोनों सुखी की मात्रा को मापा जा सकता है। इनकी गणना सम्भव है। बेंथम ने कहा है कि एक कील भी उतना ही दर्द करती है जितना कर्कश आवाज। अत: सुखों में मात्रात्मक अन्तर है, गुणात्मक नहीं। 
  6. सुखों-दु:खों का मापन : बेंथम के अनुसार सुखों व दु:खों को परिमाणिक तौरपर मापा जा सकता है। इससे कोई अपने सुख या दु:ख को माप सकता है। यह मापन ही किसी वस्तु या कार्य को सुख-दु:ख के आधार पर अच्छा या बुरा प्रमाणित कर सकता है। ये सुख-दु:ख मानवीय क्रियाओं के आचार व उद्देश्य होते हैं। इन सुखों को फेलिसिफिक केलकुलस द्वारा मापा जा सकता है।
  7. सुखवादी मापक यन्त्र  : बेंथम का विचार है कि सुख-दु:ख को तुलनात्मक आधार पर परखा जा सकता है। बेंथम ने सुख-दु:ख के मापन की जो पद्धति सुझाई है, उसे सुखवादी मापक यन्त्र (Felicific Calculus) का नाम दिया गया है। बेंथम का मानना है कि सुख-दु:ख का गणित के सहारे पारिमाणिक नापतोल (Mathematical Computation), सम्भव है। इस सिद्धांत के अन्तर्गत तीव्रता (Intensity), अवधि (Duration), निश्चिन्तता (Certainty), अनिश्चित्तता (Uncertainty), सामीप्य (Propinquity), अन्य सुख उत्पन्न करने की क्षमता (Fecundity), विशुद्धता (Purity) व विस्तार (Extent) के आधार पर सुख-दु:ख का मापन किया जाता है। बेंथम ने स्पष्ट किया है कि जो सुख तीव्र होता है, वह अधिक समय तक टिका रहता है। कम तीव्र सुख कम समय तक रहते हैं। निश्चित सुख अनिश्चित की तुलना में अधिक मात्रा वाला होता है। इस प्रकार अन्य तथ्यों के आधार पर भी सुख-दु:ख का निरूपण किया जा सकता है। बेंथम ने सुख-दु:ख की गणना करते समय सुखों के समस्त मूल्यों को एक तरफ तथा दु:खों के समस्त मूल्यों को दूसरी तरफ जोड़ने का सुझाव दिया है। यदि एक-दूसरे को आपस में घटाने से सुख बच जाए तो वह कार्य उचित है अन्यथा अनुचित। इस प्रकार इस सिद्धांत के द्वारा बेंथम ने यह सिद्ध किया है कि कोई कार्य उचित है या अनुचित। 
  8. परिणामों पर जोर : बेंथम का उपयोगितावाद का सिद्धांत परिणामों पर आधारित है, नीयत (Motive) पर नहीं। बेंथम का मानना है कि सुख और दु:ख स्वयं ही उद्देश्य हैं। इनके होते हुए अच्छे या बुरे इरादों को मानने की आवश्यकता नहीं। किसी भी कार्य की अच्छाई या नैतिकता इस बात पर निर्भर नहीं करती कि वह किस उद्देश्य को लेकर किया जाता है, बल्कि इस बात पर निर्भर करती है कि उसके परिणाम क्या निकलते हैं। बेंथम का मानना है कि किसी भी विधि या संस्था की उपयोगिता की जाँच इस आधार पर ही हो सकती है कि स्त्रियों या पुरुषों पर उनका क्या प्रभाव पड़ता है। बेंथम नीयत (Motive) को उसी सीमा तक स्वीकार करता है, जहाँ तक वह परिणाम को निर्धारित करती है। इस प्रकार उसने नैतिक बुद्धि, ईश्वरीय इच्छा, कानून के नियम आदि को तिलांजलि दे दी। उसने किसी वस्तु के परिणाम को ही सत्य-असत्य, अच्छाई-बुराई का मापदण्ड स्वीकार किया है।
  9. राज्य का उद्देश्य अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख है : बेंथम के अनुसार राज्य के वे कार्य ही उपयोगी हैं जो व्यक्तियों को लाभ पहुँचाते हैं। सभी व्यक्ति राज्य के आदेशों का पालन इसलिए करते हैं, क्योंकि वे उनके लिए उपयोगी हैं। राज्य का उद्देश्य किसी एक व्यक्ति को सुख प्रदान करना नहीं है बल्कि अधिक से अधिक व्यक्तियों को सुख प्रदान करना है। इसलिए बेंथम कहता है कि व्यक्ति को अधिक से अधिक लोगों के कल्याण में राज्य को सहयोग देना चाहिए।
  10. अनुशस्तियों का सिद्धांत : बेंथम का मानना है कि व्यक्ति के अधिकतम सुख तथा व्यक्तियों के अधिकतम सुख के मध्य संघर्ष की सम्भावना को देखते हुए व्यक्ति पर अंकुश लगाना आवश्यक होता है ताकि वह दूसरों के सुख को कोई हानि नहीं पहुँचाए। इसलिए दूसरों के सुखों का ध्यान रखने में व्यक्ति को प्रेरित करने के लिए कुछ अनुशस्तियों (Sanctions) की आवश्यकता पड़ती है। सुख की अनुशस्तियाँ शारीरिक, नैतिक, धार्मिक और राजनीतिक 4 प्रकार की होती है। धार्मिक अनुशस्ति व्यक्ति के आचरण को ठीक करती है। नैतिक अनुशस्ति व्यक्ति के मन को अनुशासित करती है। यह सदैव उपयोगी होती है। राजनीतिक अनुशस्ति राज्य द्वारा पुरस्कार और दण्ड के रूप में व्यक्तियों पर लगाई जाती है। इसे कानून अनुशस्ति भी कहा जाता है।

उपयोगितावाद की आलोचनाएँ

बेंथम ने अपने उपयोगितावाद के सिद्धांत को सरल और सुबोध बनाने का इतना अधिक प्रयास किया कि इस सिद्धांत में अनेक दोष उत्पन्न हो गए। आलोचकों ने उसके इस सिद्धांत को भ्रम एवं विरोधाभास का पिटारा कह दिया। इसकी आलोचना के प्रमुख आधार हैं:-

  1. मौलिकता का अभाव : यह सिद्धांत बेंथम की मौलिक देन नहीं है। बेंथम ने पी्रस्टले के विचारों को ही नया रूप देने का प्रयास किया है। बेंथम ने भी प्रीस्टले के ही इस विचार को उधार लिया है कि राज्य का उद्देश्य ‘अधिकतम लोगों को अधिकतम सुख’ प्रदान करना है। ‘अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख’ का विचार प्रीस्टले के माध्यम से बेंथम तक पहुँचा। अत: इसमें मौलिकता का अभाव है।
  2. अमनोवैज्ञानिक सिद्धांत : बेंथम ने मानव-प्रकृति को कोरा सुखवादी माना है। उसके अनुसार मनुष्य घोर स्वार्थी और अपने सुख के लिए प्रयास करने वाला प्राणी है। किन्तु सत्य तो यह है कि मनुष्य स्वार्थी न होकर परोपकारी भी है। वह दूसरों के लिए भी जीवन जीता है। वह सुख की भावना से नहीं बल्कि देश-प्रेम, बलिदान, त्याग आदि भावनाओं से भी प्रेरित होकर कार्य करता है। ईसा मसीह ने मृतयु को गले क्यों लगाया ? राम वन में क्यों गए ? इन सब के पीछे एक ही कारण था – परोपकार। इस प्रकार बेंथम ने आध्यात्मिक विकास एवं उच्च आदर्शों की अवहेलना करके केवल सुख को ही महत्त्व दिया है। अत: यह सिद्धांत अमनोवैज्ञानिक है जो मानव-प्रकृति का गलत चित्रण करता है।
  3. स्पष्टता का अभाव : बेंथम ने सब कार्यों का आधार ‘अधिकतम संख्या के अधिकतम सुख के विचार को माना है। बेंथम ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि प्रधानता व्यक्तियों की संख्या को दी जाएगी या सुख की मात्रा को। उदाहरण के लिए हम मान लें कि कानून बनाने से 10 मिल मालिकों में से प्रत्येक को 1000 रुपये का लाभ होता है किन्तु मजदूरों की मजदूरी में 2 रुपये प्रति मजदूर के हिसाब से 1000 मजदूरों को 2000 रुपये की हानि होती है। मालिकों को कुल 10000 रुपये का लाभ होता है। इसमें देखा जाए तो 10 मालिकों का लाभ 1000 मजदूरों की हानि से अधिक है। अत: कानून बनाना उपयोगी है। यदि अधिकतम लोगों की दृष्टि से देखा जाए तो 1000 मजदूरों की हानि को महत्त्व देकर कानून बनाया जाए। ऐसी अवस्था में अधिकतम संख्या व अधिकतम सुख में अन्तर्विरोध उत्पन्न होता है। इसलिए उपयोगिता का सिद्धांत यह स्पष्ट नहीं करता कि कानून किसके पक्ष में बनाया जाए। अत: इस विषय में यह सिद्धांत पद-प्रदर्शन न कर पाने के कारण अस्पष्ट व दोषपूर्ण है।
  4. सुखवादी मान्यता दोषपूर्ण है : बेंथम केवल सुख को ही मानवीय क्रियाओं का एकमात्र प्रेरक कारण मानते हैं। आलोचकों का कहना है कि यदि संसार में केवलमात्र सुख को ही प्रेरक मान लिया जाए तो सुखों की प्राप्ति की होड़ लग जाएगी। इससे कर्त्तव्य व स्वार्थ का संघर्ष समाप्त हो जाएगा। यदि भौतिक सुख ही सब कुछ होता तो कवि कविता की रचना क्यों करता? महात्मा बुद्ध राजसी ठाठबाट का त्याग क्यों करते ? जिस प्रकार सुख की खोज मानव-स्वभाव का अंग है, वैसे ही देशभक्ति, त्याग, परोपकार आदि उदात्त भावनाएँ भी उसके स्वभाव का अंग है। मानव जीवन आदर्शों पर आधारित है, न कि सुखवादी दृष्टिकोण पर।
  5. सुखवादी मापन यन्त्र दोषपूर्ण है : बेंथम द्वारा बताई गई इस विधि से सुखों का मात्रा को सही ढंग से मापना असम्भव है। बेंथम ने सुख मापन के विभिन्न तत्त्वों की तुलना करने का मूल्यांकन करने की निश्चित पद्धति नहीं बताई है। उदाहरण के लिए यदि एक सुख की प्रगाढ़ता (Intensity) कम तथा अवधि (Duration) अधिक हो तथा दूसरे की प्रगाढ़ता (Intensity) अधिक तथा अवधि (Duration) कम हो तो दोनों सुखों की मात्रा और तारतम्य का निर्धारण कैसे हो ? इस विषय पर बेंथम कुछ नहीं कह सका। अत: यह अनुपयोगी पद्धति है। व्यक्तियों की रुचि, समय और परिस्थितियों के कारण सुख-दु:ख में भी परिवर्तन आता रहता है। एक समय पर सुख देने वाली वस्तु दूसरे समय दु:ख भी प्रदान कर सकती है। रुचि वैचित्रय के कारण अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख का अनुमान लगाना कठिन हो जाता है। अत: सुखवादी मापन यन्त्र में अस्पष्टता तथा अनिश्चितता है।
  6. बहुसंख्यकों की निरंकुशता : बेंथम का सिद्धांत प्रत्येक व्यक्ति के सुख पर नहीं बल्कि बहुसंख्या के सुख पर जोर देता है। यदि बहुसंख्यक अपने आनन्द के लिए अल्पसंख्यकों को दास भी बनाना चाहें तो उचित है। इस दशा में अल्पसंख्यकों का सुख बहुसंख्यकों के सुख के नीचे हमेशा दफन रहेगा। इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से यह सिद्धांत बहुसंख्यकों के अत्याचार को उचित व न्यायपूर्ण ठहराता है। इसलिए यदि सुख स्वाभाविक प्रवृत्ति है तो उसे प्राप्त करने का अधिकार सभी को मिलना चाहिए। अत: यह सिद्धांत बहुसंख्यकों के अत्याचार व अन्याय को प्रोत्साहन देता है।
  7. नैतिकता की उपेक्षा : बेंथम ने केवल भौतिक सुखों के आधार पर अपना सिद्धांत खड़ा किया हैं उसने सुख को ही जीवन का चरम लक्ष्य माना है। उसकी दृष्टि में उच्च नैतिक भावना, अन्त:करण और धर्म-अधर्म का कोई महत्त्व नहीं है। उदाहरणार्थ पाँच डाकू एक सज्जन पुरुष को लूटकर उसे जान से मार दें तो इससे अधिकतम का ही लाभ हुआ। उस सज्जन व्यक्ति की हानि का कोई महत्त्व नहीं रह जाता है। किन्तु नैतिक रूप से ऐसा नहीं होना चाहिए। अत: बेंथम ने नैतिकता की घोर उपेक्षा करके अव्यवस्था को ही जन्म देने वाली स्थिति पैदा की है।
  8. सुखों के गुणात्मक भेद की उपेक्षा – बेंथम की दृष्टि से विभिन्न वस्तुओं और कार्यों से प्राप्त सुख मात्रात्मक होता है, गुणात्मक नहीं। उसका कहना है कि आनन्द का जितनी मात्रा घर पर रहने से मिलती है, उतनी ही घूमने से नहीं मिलती है। दोनों सुखों में मात्रात्मक अन्तर होता है। लेकिन सत्य तो यह है कि एक चित्रकार को चित्र बनाने में जो आनन्द प्राप्त होता है, वह उस चित्र को देखने वाले के आनन्द से अलग होता है। स्वादिष्ट वस्तुओं से मिलने वाला आनन्द, खेलने से प्राप्त होने वाले आनन्द से भिन्न है। इन सब में मात्रात्मक भेद के साथ-साथ गुणात्मक भेद भी होता है। घर पर लेटे रहना एक निकृष्ट कोटि का आनन्द है, एवरेस्ट पर चढ़ना एक उत्कृष्ट कोटि का आनन्द है। अत: बेंथम का सिद्धांत गुणों की उपेक्षा करने के कारण दोषपूर्ण है। बेंथम के अनुयायी जे0 एस0 मिल ने भी इस भूल को स्वीकार किया। 
  9. शासन विषयक सिद्धांत : बेंथम ने राज्य और सरकार में कोई अन्तर नहीं किया है। वह व्यक्ति द्वारा सुख की प्राप्ति के लक्ष्य पर बल देता है। वह मनुष्य के और राज्य के पारस्परिक सम्बन्धों का विवेचन नहीं करता। वह केवल इतना कहता है कि राज्य को न्यूनतम हस्तक्षेप करना चाहिए। वह केवल शासन कार्यों का विवेचन करता है, राज्य के सैद्धान्तिक पक्ष का नहीं।
  10. अतकर्सगंत : बेंथम ने एक सुख से दूसरे सुख की उत्पत्ति की बात तो कही है लेकिन इस सुख कके जनक की अवहले ना की है। प्रत्येक सुख की उत्पत्ति के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है। बेंथम इसका कारण बताने में असफल रहे हैं। अत: यह सिद्धांत तर्कसंगत नहीं है।
  11. सभी सुख समान नहीं होते : बेंथम ने भौतिक सुख और मानसिक सुखों को समान माना है। शरीर और आत्मा की अनुभूति के उद्देश्य और मात्रा असमान होते हैं। बेंथम ने मात्रात्मक आधार पर सुखों में अन्तर मानकर मनुष्य को पशु स्तर तक गिरा दिया है। मैक्सी का कहना है- “बेंथम की धारणा के अनुसार मनुष्य सूअर है।”

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि बेंथम का उपयोगितावाद का दर्शन गलत धारणाओं पर आधारित है। बेंथम ने सुख और आनन्द को समानाथ्र्ाी मान लिया है। यह अन्तर्विरोधों से ग्रस्त है। यह गुणात्मक पहलू की उपेक्षा करता है। उसका सुखवादी मापन यन्त्र वैज्ञानिक तरीका नहीं है। ‘सबसे बड़ा सुख’ और ‘सबसे बड़ी संख्या’ के मध्य कोई तार्किक सम्बन्ध नहीं है। यह सिद्धांत बहुमत की निरंकुशता को बढ़ावा देता है। अत: यह सिद्धांत भ्रान्त, भौतिक व एकांगी है। इसमें यथार्थवाद व मनोवैज्ञानिकता का पुट नहीं है। इसलिए यह सिद्धांत अस्पष्ट व अपूर्ण है। लेकिन अनेक दोषों के बावजूद भी यह सिद्धांत लोक-कल्याणकारी राज्य की उदात्त भावना से प्रेरित है। आधुनिक प्रजातन्त्र में इसका विशेष महत्त्व है।

 

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