राजनीतिक संस्कृति का अर्थ

राजनीतिक संस्कृति की अवधारणा, संस्कृति के विचार पर आधारित है। संस्कृति में किसी देश के लोगों के व्यवहार, मान्यताएं, विश्वास, घृणा, स्वामिभक्ति, साहित्य, परम्पराएं, कला-कौशल, सामाजिक मूल्य, नैतिकता आदि बातें शामिल होती हैं। ग्राहम वालास के अनुसार-”संस्कृति विचारों, मूल्यों और उद्देश्यों का समूह है।” इसी तरह राजनीतिक विद्वानों ने राजनीतिक संस्कृति को राजनीतिक समाज के मूल्यों, विचारों व आदर्शों का समूह कहा है। इस अवधारणा को सबसे पहले ऑमण्ड ने 1956 में प्रयुक्त किया था। सामान्य तौर पर राजनीतिक संस्कृति किसी राज्य के अन्दर बसने वाले लोगों की उन सामूहिक अन्तर्भावनाओं का नाम है जिन्हें राजनीतिक व्यवस्था की प्रतिक्रियाओं के रूप में व्यक्त किया जाता है। 

 

राजनीतिक संस्कृति के संघटक

राजनीतिक संस्कृति राजनीतिक समाज के लोगों की राजनीतिक व्यवस्था के प्रति अभिरुचियों, मूल्यों व राजनीतिक समाज के लोगों की राजनीतिक व्यवस्था के प्रति अभिरुचियों, मूल्यों व विश्वासों पर आधारित है। राजनीतिक संस्कृति में आत्मपरकता का गुण होने के कारण यह व्यक्तिगत अभिविकास या अनुकूलन का हिस्सा होती है। यह अनुकूलन ज्ञानात्मक, भावनात्मक तथा मूल्यात्मक होता है। ज्ञानात्मक अनुकूल का सम्बन्ध लोगों की राजनीतिक व्यवस्था के प्रति जानकारी से, भावनात्मक अनुकूलन का सम्बन्ध लोगों के द्वारा राजनीतिक व्यवस्था के मूल्यों व निर्णयों से होता है। इस अनुकूलन की दृष्टि से राजनीतिक व्यवस्था के तीन घटक होते हैं-मूल्य, विश्वास और संवेदनात्मक अभिवृत्तियां। प्रत्येक देश की राजनीतिक संस्कृति का निर्माण इन्हीं घटकों से होता है। इन घटकों की अनुक्रिया ही किसी राजनीतिक व्यवस्था को सामान्य या विशिष्टता की तरह ले जाती है। इसी कारण राजनीतिक संस्कृति को राजनीतिक व्यवस्था की प्रकृति का नियामक कहा जाता है। राजनीतिक संस्कृति के घटकों का मूल्यांकन करके ही राजनीतिक संस्कृति की प्रकृति का भी निर्धारण किया जा सकता है। ये घटक हैें :-

मूल्य अभिवृत्तियां

प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक बातों में रुचि रखने वाले सदस्य व्यवस्था के मूल्यों से अवश्य प्रभावित होते हैं। ये अभिवृतियां राजनीतिक समाज के सार्वजनिक लक्ष्यों से सम्बन्धित विश्वास व आस्थाएं होती हैं। प्रत्येक राजनीतिक समाज में कुछ राजनीतिक मूल्य होते हैं, जैसे एक निश्चित अवधि के बाद निर्वाचन होने चाहिए; जनता का विश्वास खो देने पर सरकार को अपना पद छोड़ देना चाहिए, किसी व्यक्ति को कानून के बाहर कोई दण्ड नहीें मिलना चाहिए। लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि सभी लोगों की रुचि इन मूल्यों में समान हो। किसी की रुचि तो सामाजिक न्याय व समानता में हो सकती है, किसी की रुचि राजनीतिक स्थिरता में हो सकती है तथा किसी की कानून के शासन में हो सकती है। इसलिए राजनीति संस्कृति के आधार पर राजनीतिक व्यवस्थाओं की कार्यप्रणाली या व्यवहार में भिन्नता का कारण मूल्य अभिरुचियों में पाया जाने वाला अन्तर है। जब जनता तथा शासक वर्ग की मूल्य अभिवृतियां असमान हो जाती हैं तो राजनीतिक व्यवस्था पर संकट के बादल छा जाते हैं।

विश्वास अभिवृतियां

जनता की राजनीतिक व्यवस्था के प्रति विश्वास की अभिवृतियां राजनीतिक मूल्यों से घनिष्ठ सम्बन्ध रखती हैं। इसके अन्तर्गत वे अभिरुथ्चयां हैं कि लोगों का राजनीतिक व्यवस्था के प्रति विश्वास की मात्रा तथा प्रकृति क्या है। किसी व्यक्ति को वोट डालने में विश्वास हो सकताहै तथा किसी का नहीं। इस विश्वास के आध् ाार पर ही शासक व शासित बने पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित होते हैं। इसी विश्वास में अन्तर आ जाने पर राजनीतिक संस्कृतियों में मात्रात्मक अन्तर आ जाता है और जनता का राजनीतिक व्यवस्था के प्रति विश्वास का स्वरूप भी बदल जाता है। इसी से राजनीतिक व्यवस्था का संचालन प्रभावित होता है। अत: राजनीतिक विश्वास ही राजनीतिक संस्कृति के माध्यम से राजनीतिक व्यवस्था का नियामक व संचालन बना रहता है।

संवेदनात्मक अभिवृतियां

इसका सम्बन्ध लोगों की राजनीतिक व्यवस्था के प्रति मनोवृतियों या मनोभावों से होता है। किसी व्यक्ति को तो अपने देश या व्यवस्था पर गर्व हो सेता है तो किसी को घृणा भी हो सकती है। किसी देश में दबाव समूहों को हेय दृष्टि से देखा जाता है तो किसी देश में उसका सम्मान किया जाता है। 1971 में भारत-पाक विभाजन भी संवेदनात्मक मनोवृति का परिणाम था। ब्रिटेन में लोगों का संसदीय शासन प्रणाली में विश्वास है और वे उसको सम्मान की दृष्टि से देखते हैं, जबकि भारत में संसदीय शासन प्रणाली के प्रति लोगों का दृष्टिकोण अधिक अच्छा नहीं है। इसका प्रमुख कारण संवेदनात्मक अभिवृतियों में पाया जाने वाला अन्तर ही है।

इस प्रकार उपरोक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि राजनीति संस्कृति के घटकों में पाया जाने वाला अन्तर राजनीतिक संस्कृति में मात्रात्मक भेद पैदा करता है और यही भेद आगे चलकर राजनीतिक व्यवहार की भिन्नता के रूप में प्रकट होता है।

राजनीतिक संस्कृति की प्रकृति व विशेषताएं 

राजनीतिक संस्कृति एक विकासशील व गत्यात्मक अवधारणा है। इसकी प्रकृति परिवर्तनशील तथा विकासोन्मुखी होती है। इसका निर्माण ऐतिहासिक विकास की पृष्ठभूमि में होता है। राजनीतिक व्यवहार और राजनीतिक संस्कृति का आपस में गहरा सम्बन्ध है। इससे व्यक्ति और समूह के राजनीतिक आचरण का बोध होता है। यह प्रगतिशील और समन्वयकारी होने के कारण रुढ़िवादी समाज की सांस्कृतिक विरासत होती है। यह राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित करने वाले दबाव समूह व राजनीतिक दलों की गतिविधियों से भी काफी प्रभावित होती रहती है। इसके ऊपर कुछ आन्तरिक तथा बाह्य शक्तियों का भी प्रभाव पड़ता है। राजनीतिक संस्कृति में समयानुसार परिवर्तन, संशोधन, सुधार एवं विकास होता रहता है। राजनीतिक संस्कृति का विशेष स्वभाव इसकी गतिशीलता है, जड़ता नहीं। एक राजनीतिक संस्कृति कई उप-संस्कृतियों को भी समेटे रखती है। इसे राजनीतिक एकता के प्रतीक के रूप में भी देखा जाता है। इसके अनेक रूप होते हैं और यह राजनीतिक व्यवहार को अंगीकार करने में सक्षम होती है। राजनीतिक संस्कृति की इस प्रकृति को इसकी विशेषताओं में भी देखा जा सकता है। इसकी प्रमुख विशेषताएं हैं :-

  1. राजनीतिक संस्कृति एक व्यक्तिपरक धारणा है, क्योंकि इसमें लोगों के विचारों विश्वासों व मूल्यों का अध्ययन किया जाता है।
  2. राजनीतिक संस्कृति एक व्यापक धारणा है, क्योंकि यह राजनीतिक व्यवहार के अनेक तत्वों को अपने में समेटे रहती है। 
  3. राजनीतिक संस्कृति सामान्य संस्कृति का ही एक अंश होती है, क्योंकि इसमें लोगों के राजनीतिक मूल्य व विश्वास ही शामिल होते हैं।
  4. राजनीतिक संस्कृति का स्वरूप प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में अलग-अलग होता है, क्योंकि राजनीतिक संस्कृति के घटकों को प्रत्येक देश में अन्तर पाया जाता है। 
  5. राजनीतिक संस्कृति एक अमूर्त नैतिक अवधारणा है। 
  6. राजनीतिक संस्कृति एक गत्यात्मक व परिवर्तनशील अवधारणा है। 
  7. राजनीतिक संस्कृति व राजनीतिक विकास में गहरा सम्बन्ध होता है। 
  8. राजनीतिक संस्कृति राजनीतिक समाजीकरण व आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को भी प्रभावित करती है। अड़ियल प्रकार की राजनीतिक संस्कृति राजनीतिक आधुनिकीकरण, समाजीकरण व विकास का मार्ग अवरुद्ध कर देती है। 
  9. भूगोल, परम्पराएं, इतिहास, आदर्श, जीवन मूल्य, जलवायु, सामाजिक तथा आर्थिक तत्व, राष्ट्रीय प्रतीक आदि तत्व राजनीतिक संस्कृति के निर्माण में योगदान देते हैं। ;10द्ध राजनीतिक संस्कृति जन-सामान्य के राजनीतिक व्यवहार को प्रभावित करती है।

राजनीतिक संस्कृति के प्रकार 

राजनीतिक संस्कृति में पाई जाने वाली मात्रात्मक विशेषताएं अपने अनेक रूपों का परिचय स्वयं ही दे देती हैं। प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में लोगों का राजनीतिक व्यवस्था के प्रति लगाव, विश्वास व मूल्य अलग अलग ढंग का होता है। कहीं पर लोग राजनीतिक व्यवस्था के प्रति गहरा लगाव रखते हैं और राजनीतिक प्रक्रिया में सक्रिय सहभागिता रखते हैं तो कहीं पर इसका सर्वथा अभाव पाया जाता है। राजनीतिक समाज के सदस्यों की राजनीतिक सहभागिता ही प्राय: राजनीतिक संस्कृति की प्रतीक का निर्धारण करती है। निरन्तरता या सातत्य की दृष्टि से राजनीतिक संस्कृति परम्परागत व आधुनिक दो प्रकार की हो सकती है। जहां परम्पर व आधुनिकता में संघर्ष चलता रहता है वहां पर राजनीतिक संस्कृति का नवीन रूप भी अस्तित्व में आ जाता है जिसे मिश्रित संस्कृति कहा जा सकता है।

 

विचारवादियों की दृष्टि में राजनीतिक संस्कृति-प्रजातन्त्रीय, साम्यवादी, समाजवादी व एकतन्त्रवादी हो सकती है। भौगोलिक आधार पर यह पर्वतीय, मैदानी, सामुद्रिक, आकाशीय तथा धु्रवीय हो सकती है। विश्व में पूंजीवादी, सर्वहारा, काली, पीली या श्वेत संस्कृतियों का भी इतिहास में वर्णन मिलता है। एकरूपता की दृष्टि से इसे संकुचित, प्रजाभावी तथा सहभागी संस्कृति में बांटा जाता है। इस विभाजन का आधार लोगों का राजनीतिक व्यवस्था के प्रति अभिमुखीकरण माना जाता है। 

 

एस0ई0फाइनर ने राज-संस्कृति को प्रौढ़, विकसित, निम्न तथा पूर्व-फ्रांसीसी क्रान्ति सम-न्यूनतम स्तरीय चार भागों में बांटा है। ऑमण्ड ने भी राजव्यवस्थओं में जनसहभागिता के संदर्भ में इसे तीन भागों में बांटा है। उसने आगे राजनीतिक संस्कृति के तीन अन्य प्रकार भी बताए हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि राजनीतिक संस्कृति विभिन्न आधारों पर अनेक प्रकार की होती है। राजनीतिक संस्कृति के प्रमुख रूप निम्नलिखित हो सकते हैं :-

संख्या व शक्ति के आधार पर 

इस आधार पर राजनीतिक संस्कृति के दो भेद माने जाते हैं :-

  1. अभिजनात्मक संस्कृति – यह संस्कृति इस मान्यता का परिणाम है कि प्रत्येक शासन में गिने चुले लोग ही सत्ता के वास्तविक धारक होते हैं और उनका राजनीतिक व्यवस्था तथा लोगों की जीवन शैली पर व्यापक प्रभाव होता है। भारत में नेहरू व गांधी जी ने जिस संस्कृति को जन्म दिया वह अभिजनात्मक होते हुए भी उससे अधिक थी। यह संस्कृति समाज में विशिष्ट वर्ग के हितों की पोषक होने के साथ-साथ जनसामान्य के प्रति अपना दृष्टिकोण ईमानदारी को बनाए रखती है। 
  2. जनसंस्कृति – यह संस्कृति लोकतन्त्रीय अवस्थाओं को समेटे हुए है। यह जन-आस्था एवं रचनात्मक वृत्तियों की द्योतक है। इसमें राजनीतिक प्रक्रिया में जनसाधारण की उपेक्षा नहीं की जा सकती और प्रत्येक स्तर पर जनता की भावनाओं की ख्याल रख जाता है। विकसित देशों में यह अभिन्न संस्कृति के साथ ही मिलकर चलती है। विकासशील देशों में इस प्रकार की संस्कृति का अधिक प्रचलन बढ़ रहा है।

निरन्तरता व सातत्व की दृष्टि से

इस आधार पर राजनीतिक संस्कृति को तीन भागों में बांटा जा सकता है:-

  1. परम्परागत राजनीतिक संस्कृति (Traditional Political Culture)
  2. आधुनिक राजनीतिक संस्कृति (Modern Political Culture) :-
  3. मिश्रित राजनीतिक संस्कृति (Mixed Political Culture)

परम्परावादी संस्कृति का सम्बन्ध जनसामान्य से होता है, जबकि आधुनिक राजनीतिक संस्कृति का सम्बन्ध विशिष्ट वर्गीय शासकों से होता है। ब्रिटेन तथा भारत में मिश्रित संस्कृति पाई जाती है। क्योंकि यहां परम्परा व आधुनिकता का सुन्दर मिश्रण है। ब्रिटेन में कुलीनतन्त्रीय राजनीतिक ढांचे का तादात्म्य ऐसे सामाजिक व आर्थिक ढांचे के साथ किया गया है कि उसमें विशिष्ट वर्ग व जनसाध् ाारण दोनों के हितों का पोषण हो जाता है। विकासशील देशों में इसी प्रकार की संस्कृति है। सर्वाधिकारवादी देशों में विशिष्ट वर्गीय हितों की पोषक आधुनिक व परम्परावादी दोनों संस्कृतियां ही पाई जाती हैं। ऑमण्ड-कोलमैन का मानना है कि सभी राजनीतिक समाजों में राजनीतिक संस्कृति का मिश्रित रूप ही पाया जाता है।

राजनीतिक सहभागिता के आधार पर

इस आधार पर वर्गीकरण करने वाले प्रमुख विद्वान ऑमण्ड व वर्बा हैं। उनका कहना है कि प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में जनता सहभागिता चाहती है। लेकिन सभी व्यवस्थाओं में पूर्ण व सक्रिय राजनीतिक सहभागिता का होना आवश्यक नहीं है। इसलिए इस आधार पर कि जनसहभागिता का स्तर क्या है। लोग राजनीति के प्रति उदासीन हैं या सक्रिय, राजनीतिक संस्कृति को शुद्ध रूप में तीन भागों में बंट जाता है :-

  1. संकीर्ण-राजनीतिक संस्कृति – इस प्रकार की राजनीतिक संस्कृति कम विकसित तथा परम्परागत राजनीतिक समाजों मेंं पाई जाती है। इसका प्रमुख कारण यह होता है कि इन समाजों में कम विशेषीकरण के कारण सभी भूमिकाएं शासक-वर्ग द्वारा ही अदा की जाती हैं। इसमें जनता राजनीति के प्रति प्राय: उदासीन ही रहती है। राजनीतिक नेता ही धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक भूमिकाओं का एक साथ निर्वहन करते हैं। इसमें जनता की तरफ से राजनीति के प्रति कोई मांग या निवेश नहीं होता और न ही निर्गतों की तरफ उसका ध्यान रहता है।
  2. पराधीन-राजनीतिक संस्कृति – इस प्रकार की राजनीतिक संस्कृति का जन्म उन समाजों में होता है, जहां जनता राजनीति के प्रति अर्कमण्य रहती है और वह शासकीय आदेशों को विवशतावश चुपचाप सहन करती है और उनका पालन करती रहती है। यह राजनीतिक संस्कृति आश्रित उपनिवेशों में ही विद्यमान थीं। इस प्रकार की संस्कृति में जनता निवेशों से तो दूर रहती है, लेकिन निर्गतों पर ध्यान रखती है। इस संस्कृति में लोगों का राजनीतिक अभिमुखीकरण व्यवस्था से लेने के स्तर पर ही सक्रिय होता है। सार रूप में इसमें जनता की राजनीतिक सक्रियता प्राय: सीमित प्रकृति की होती है। कई बार इस प्रकार की संस्कृति निर्गतों के परिणामों के रूप में महान् आन्दोलनों की जनक भी बन जाती है। इस संस्कृति को प्रजामूलक संस्कृति भी कहा जाता है।
  3. सहभागी-राजनीतिक संस्कृति – इस प्रकार की राजनीतिक संस्कृति उन समाजों में पाई जाती है, जहां जनता को राजनीतिक सहकारिता के पूरे अवसर प्रदान किए जाते हैं। इस संस्कृति में जनता निदेशों व निर्गतों पर समान नजर रखती है। इस प्रकार की संस्कृति विकसित देशों में पाई जाती है। इसमें लोगों का राजनीतिक व्यवस्था के प्रति लगाव व विश्वास उच्च स्तर का बना रहता है। इसमें जनता अपने अधिकारों व कर्तव्यों के प्रति जागरूक बनी रहती है। इसे प्रजातन्त्रीय राजनीतिक संस्कृति भी कहा जाता है।

उपरोक्त शुद्ध रूपों के अतिरिक्त भी मिश्रित रूप में ऑमण्ड व वर्बा ने राजनीतिक संस्कृति को तीन भागों में बांटा है :-  1. संकीर्ण-पराधीन राजनीतिक संस्कृति। 2. पराधीन-सहभागी राजनीतिक संस्कृति। 3. संकीर्ण सहभागी राजनीतिक संस्कृति।

  1. संकीर्ण-पराधीन राजनीतिक संस्कृति – यह संस्कृति मिश्रित प्रकृति की होती है। इसमें दोनों प्रकार की राजनीतिक संस्कृतियों की विशेषता पाई जाती है। इसमें दोनों प्रकार के व्यक्ति पाए जाते हैं। कुछ व्यक्ति तो राजनीति के प्रति लगाव रखते हैं और कुछ दूर रहते हैं।
  2. पराधीन-सहभागी राजनीतिक संस्कृति – यह संस्कृति पराधीन राजनीतिक संस्कृति तथा सहभागी राजनीतिक संस्कृति के गुणों से परिपूर्ण रहती है। यह संस्कृति उन समाजों मेंं पाई जाती है जहां लोगों का राजनीतिक व्यवस्था के प्रति लगाव होता है। इसमें कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो केवल निवेशों और निर्गतों के प्रति ही रुचि रखते हैं। इस संस्कृति का उदय राजनीतिक व्यवस्था में जनसहभागिता की वृद्धि की शुरुआत के साथ हुआ। 
  3. संकीर्ण-सहभागी राजनीतिक संस्कृति – इस प्रकार की संस्कृति में शासक वर्ग ही जनता को प्रभावित नहीं करता बल्कि जनता भी शासकीय नीतियों को प्रभावित करती है। इसमें जन इच्छा का पूरा सम्मान किया जाता है। यह संस्कृति संकीर्ण व सहभागी राजनीतिक संस्कृति दोनों की विशेषताएं समेटे रहती हैं।  

गुणात्मक स्वरूप के आधार पर

एस0ई0 फाइनर ने अपनी पुस्तक ‘The Man on Horxe Back’ में राजनीतिक संस्कृति के चार प्रकार बताये हैं :-

  1. प्रौढ़ राजनीतिक संस्कृति – यह संस्कृति ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया तथा नीदरलैण्ड में पाई जाती है। इसमें राजनीतिक सर्वसम्मति व संगठन की मात्रा बहुत ऊँची होती है। इसमें सैनिक शक्ति का प्रयोग करने से परहेज किया जाता है। इसके अन्तर्गत शासन की सर्वोच्च सत्ता पर नागरिक सरकार का ही अधिकार रहता है। यह संस्कृति राजनीतिक स्थिरता वाले देशों में भी पाई जाती है।
  2. विकसित राजनीतिक संस्कृति – यह संस्कृति मिस्र, अल्जीरिया और क्यूबा जैसे देशों में पाई जाती है। इस प्रकार की राजनीतिक संस्कृति राजनीतिक स्थिरता के साथ-साथ सैनिक खतरों से भी भयभीत रहती है। ऐसे परिवेश में आम जनता को शक्ति का भय दिखाकर शान्त कराने का प्रयास किया जाता है, लेकिन क्रान्ति या तख्ता पलट की संभावनाएं सदा ही बनी रहती हैं। इसमें नागरिक सरकार पर संकट के बादल मंडराते रहते हैं। ;
  3. निम्न राजनीतिक संस्कृति – यह सस्कृति उन राजनीतिक समाजों में पाई जाती है, जहां लोकमत सशक्त नहीं होता। इसी कारण इसमें जन-विरोध की भावना का अभाव पाया जाता है। इसकी संस्कृति वाले देशों में राजनीतिक संस्थाएं बहुत ही कमजोर स्थिति में रहती है। इसमें जनता सुशासन की कामना तो रखती है, लेकिन उनका यह स्वप्न पूरा नहीं होता। इस व्यवस्था में लोकतन्त्रीय आस्थाओं पर सैनिक तानाशाही का शिकंजा कसा रहता है। जनाधार के बंटे होने के कारण यह संस्कृति वियतनाम, सीरिया, बर्मा, इन्डोनेशिया, पाकिस्तान आदि देशों में पाई जाती है।
  4. पूर्व-फ्रांसीसी क्रांति-सम अल्पस्तरीय राजनीतिक संस्कृति – यह संस्कृति उन देशों में पाई जाती है, जहां सरकार जनता के विचारों की मनमानी अवहेलना कर सकती है। फ्रांसीसी क्रांति से पहले फ्रांस में यह संस्कृति विद्यमान थी। आज इस संस्कृति के लिए कोई स्थान नहीं है।

शासन-व्यवस्था जनित संवेगों के आधार

इस आधार पर ऑमण्ड ने राष्ट्रों की राजनीतिक व्यवस्था, भौगोलिक प्रणाली, विकासशील प्रवृति आदि के आधार पर राजनीतिक संस्कृति को चार भागों में बांटा है :-

  1. आंग्ल-अमेरिकी राजनीतिक व्यवस्था – यह संस्कृति ब्रिटेन और अमेरिका में पाई जाती है। इसमें राजनीतिक साध्यों व साधनों पर आम सहमति पाई जाती है। इसमें आदिकालीन व वर्तमान धर्म-निरपेक्ष मान्यताओं का सुन्दर मेल होता है। इस संस्कृति से सम्बन्धित देशों में वैयक्तिक स्वतन्त्रता, अधिकार व सुरक्षा को विशेष म्ळत्व दिया जाता है। इसमें समाज का स्वरूप बहुलवादी होता है। इसमें सत्तावादी शासन की सम्भावनाएं कम होती हैं और यहां पर भूमिकाओं का स्थायित्व भी रहता है। इसमें विशेषीकरण तथा विभेदीकरण का गुण भी पाया जाता है। 
  2. महाद्वीपीय-यूरोपीय राजनीतिक व्यवस्था – यह राजनीतिक संस्कृति फ्रांस, इटली, स्वीडन, नार्वे, जर्मनी आदि कम विकसित पश्चिमी लोकतन्त्रीय देशों में पाई जाती है। इस राजनीतिक संस्कृति में न तो जनता अपने नेताओं के प्रति पूर्ण आश्वस्त होती है और न ही नेतागण अपने लोगों पर पूर्ण रूप से निर्भर रहते हैं। इस प्रकार की संस्कृति में जनता की बजाय राजनीतिक प्रक्रिया में दबाव समूहों की भूमिका अधिक रहती है। इस प्रकार की संस्कृति कई उप-संस्कृतियों को भी जन्म देती है।
  3. अपश्चिमी एवं आंशिक रूप से पूर्व-औद्योगिक राजनीतिक व्यवस्था – इस प्रकार की व्यवस्था में शासन प्रणाली पर एक ही दल का प्रभुत्व रहने के कारण राजनीतिक संस्कृति की एकता परिलक्षित होती है। इसमें शक्ति के आधार पर सत्ता व शासन को औचित्यपूर्ण बनाए रखा जाता है। इसमें नौकरशाही का महत्व बहुत अधिक बढ़ जाता है। इसमें जन-सहभागिता के नाम पर जनता के साथ धोखा किया जाता है। इसमें अधिकारों की अपेक्षा कर्तव्यों पर अधिक ध्यान दिया जाता है। इस प्रकार की संस्कृति चीन व अन्य साम्यवादी देशों में पाई जाती है।

इस प्रकार उपरोक्त विवेचन के बाद कहा जा सकता है कि विभिन्न आधारों पर राजनीतिक संस्कृति अनेक प्रकार की होती है। उपरोक्त वर्गीकरण के अतिरिक्त भी कुछ विद्वानों द्वारा राजनीतिक संस्कृति के कुछ अन्य रूप भी बताए हैं। उन्होंने पंथ-निरपेक्ष, नागरिक, सैद्धान्तिक, समरूप, खण्डित आदि राजनीतिक संस्कृतियों का भी वर्णन किया है। लेकिन ये रूप भी उपरोक्त विवरण के अन्तर्गत ही घुलकर रह जाते हैं। इनके पृथक विवेचन की कोई आवश्यकता नहीं है। यह बात तो सत्य है कि प्रत्येक देश किसी न किसी प्रकार की राजनीतिक संस्कृति से जुड़ा हुआ है। आज सभी देशों में राजनीतिक संस्कृति के साथ-साथ उपराजनीतिक संस्कृतियां भी उभर रहीं हैं। अत: ऑमण्ड-कोलमैन का कथन सही है कि आज विश्व में राज-व्यवस्थाओं में राजनीतिक संस्कृति का मिश्रित रूप ही पाया जाता है।

राजनीतिक संस्कृति के निर्धारक तत्व 

प्रत्येक देश की राजनीतिक संस्कृति अलग प्रकार की होती है। इसका प्रमुख कारण इसके निर्धारक तत्वों में मिलने वाला अन्तर होता है। राजनीतिक संस्कृति का सामान्य संस्कृति से भी घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है। इसी कारण सामान्य संस्कृति के निर्धारक तत्व राजनीतिक संस्कृति को भी प्रभावित करते हैं। ये निर्धारक तत्व ही राजनीतिक संस्कृति की प्रकृति के नियामक होते हैं। ये तत्व हो सकते हैं :-

इतिहास 

किसी भी राजनीतिक संस्कृति की जड़ें इतिहास के अन्दर गड़ी होती हैं। राजनीतिक व्यवस्था और संस्कृति अतीत से अपना राता कभी नहीं तोड़ सकती। साम्यवादी क्रान्तियां भी रूस और चीन में अतीत के अनुभवों को भुला नहीं सकी है। ब्रिटेन में अतीत व आधुनिकता का सुन्दर मेल है। वहां पर कुलीनतन्त्रीय आस्थाओं का लोकतन्त्रीय आस्थाएं के साथ हो सुन्दर समन्वय देखने को मिलता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। ऑमण्ड-कोलमैन ने सभी राजनीतिक संस्कृतियों के मिश्रित होने की बात कही है, उसके पीछे मूल कारण राजनीतिक संस्कृतियों का परम्पराओं से जुड़ा रहना है। फ्रांस में 1789 की क्रान्ति के बाद अतीत से छुटकारा पाने का जो खतरा उठाया गया था, उसने 1958 तक फ्रांस की राजनीतिक व्यवस्था को अस्थिर बनाए रखा। आज भारत की राजनीतिक संस्कृति पर 1857 की क्रान्ति तथा आगामी स्वतन्त्रता आन्दोलन व भारत-पाक विभाजन की घटनाओं का प्रभाव है। 1689 के बिल आफ राईटस तथा 1865 के गृह युद्ध का ब्रिटेन और अमेरिका की राजसंस्कृति पर प्रभाव पड़ा है। इसी कारण कहा जाता है कि इतिहास जड़ है और राजनीति उसका फल। भारत, चीन तथा श्रीलंका की स्वाधीनता के समय में कम अन्तर होने के बाद भी इन देशों की राजनीतिक संस्कृतियों में काफी अन्तर है। इसका प्रमुख कारण ऐतिहासिक घटनाओं में पाया जाने वाला अन्तर ही है।

भूगोल – 

भौगोलिक स्थिति भी किसी देश की राजनीतिक संस्कृति को प्रभावित करता है। राष्ट्र के अस्तित्व के लिए विभिन्नताओं में एकता का होना अनिवार्य होता है। भौगोलिक दृष्टि से सुरक्षित व विकसित राष्ट्र छोटे-मोटे उत्पातों को आसानी से झेल लेते हैं। एक द्वीप होने के कारण ब्रिटेन आज तक विदेशी आक्रमणों से सुरक्षित रहा है। पश्चिमी जर्मनी भी भौगोलिक दृष्टि से रूस तथा अमेरिका के बीच स्थित होने के कारण दोनों के अन्तर्राष्ट्रीय गठबन्धनों के निर्देशन के कारण एक संघीय गणतन्त्र बना रहा। यदि इस स्थिति में कोई भी परिवर्तन किया जाता तो उसका प्रभाव अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति को खतरे में डाल सकता था। 1947 के बाद भारत व पाक की भौगोलिक दूरी ने भी दोनों देशों में अलग प्रकार की राज-संस्कृतियों को जन्म दिया। भौगोलिक दृष्टि से सुरक्षित व सम्पन्न देशों की राजनीतिक संस्कृति अधिक उन्नत व विकासोन्मुखी रही है। नेपाल व भूटान की विशेष भौगोलिक स्थिति ने आज उन्हें विशिष्ट प्रकार की राजनीतिक संस्कृति दी है जो भारत व चीन से सर्वथा भिन्न है।

सामाजिक तथा आर्थिक विकास – 

राजनीतिक संस्कृति का विकास भी सामाजिक व आर्थिक विकास के सापेक्ष होता है। जिस देश में सामाजिक समरसता या एकता का गुण पाया जाता है, वहां की राजनीतिक संस्कृति भी प्रवाहमान व सहज होती है। वहां पर राजनीतिक अस्थिरता आना असम्भव होता है। इसी तरह आर्थिक विकास के पर्याप्त अवसर भी राजनीतिक व्यवस्था को सशक्त बनाकर राजनीतिक संस्कृति से अलग प्रकार की बनती है। इसी तरह औद्योगिक समाज में संचार साधनों के विकास तथा शैक्षिक स्तर में वृद्धि से गुटों व समूहों की नीति-निर्माण में सहभागिता बढ़ जाती है, जबकि कृषक समाज या ग्रामीण समाज राजनीति अभिमुखीकरण से दूर रहने के कारण अलग तरह की राजनीतिक संस्कृति को जन्म देता है। सामाजिक तथा आर्थिक विषमताओं वाला समाज उप-संस्कृतियों को जन्मदेकर राजनीतिक व्यवस्था तथा राजनीतिक संस्कृति दोनों के लिए संकट पैदा करता है।

विचारधाराएं – 

राजनीतिक विचारधाराएं भी राजनीतिक संस्कृति को निर्धारित करने वाली होती हैं। विकासशील देशों में तो विचारधाराओं के अनुकूल राजनीतिक संस्कृति का निर्माण किया जाने लगा है। भारत में गांधी व नेहरु की विचारधारा का भी उतना ही प्रभाव है जितना सुभाष व तिलक की विचारधारा का। इसी कारण भारत की राजनीतिक संस्कृति में मिश्रितपन पाया जाता है। जर्मनी मं नाजीवादी, चीन में साम्यवादी, इटली में फासीवादी, अमेरिका तथा ब्रिटेन में उदारवादी विचारधाराओं का वहां की राजनीतिक संस्कृति के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान है। इटली व जर्मनी में आज भी राजनीतिक संस्कृति में फासीवादी व नाजीवादी तत्व परिलक्षित होते हैं। अत: विचारधारा भी राजनीतिक संस्कृति की प्रमुख निर्धारक हैं।

सामान्य संस्कृति –

राजनीतिक संस्कृति सामान्य संस्कृति पर ही आधारित होती है। सामान्य संस्कृति राजनीतिक संस्कृति का प्रमुख नियामक तत्व माना जाता है। राजनीतिक संस्कृति को सामान्य संस्कृति से अलग नहीं किया जा सकता। सामान्य संस्कृति को ही राजनीतिक संस्कृति का मौलिक तथा स्थाई आधार माना जाता है। विकासशील देशों में पैदा होने वाली राजनीतिक अस्थिरता का प्रमुख कारण राजनीतिक संस्कृति का सामान्य संस्कृति से अलगाव है। विकासशील देशों की राजनीतिक संस्कृति सामान्य संस्कृति के लौकिकीकरण से दूर रहने के कारण ही विकसित देशों की राजनीतिक व्यवस्था के प्रति लोगों की राजनीतिक जागरूकता बढ़ाता है और राजनीतिक व्यवस्था को स्थिरता प्रदान करता है।

राष्ट्रीय प्रतीक –

जिस देश में लोगों का राष्ट्रीय प्रतीकों – राष्ट्रीय गान व गीत, राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय त्यौहार, राष्ट्रीय स्मारक, राष्ट्रभाषा, राष्ट्रीय विरासत आदि के प्रति गहरा लगाव होगा, वहां की राजनीतिक संस्कृति भी उच्च-स्तरीय होगी। इससे राजनीतिक संस्कृति में एकता का गुण पैदा होगा जो राजनीतिक स्थिरता में सहायक होगा। इसके विपरीत जिस देश में राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान नहीं होगा, वहां की राजनीतिक संस्कृति निम्न कोटि की ही रहेगी। जापान, जर्मनी, चीन, अमेरिका तथा ब्रिटेन में राष्ट्रीय प्रतीकों के सम्मान के कारण ही वहां की राजनीतिक संस्कृति उन्नत किस्म की है। भारत में राष्ट्रीय प्रतीकों का अपेक्षित सम्मान न होने के कारण राजनीतिक संस्कृति का उतना विकास नहीं हो सका है जितना होना चाहिए था।

धर्म –

जिस देश की राजनीति में धर्म का अधिक प्रभाव होता है, वहां की राजनीतिक संस्कृति में भी सहिष्णुता का गुण आ जाता है। वैटिकन सिटी, नेपाल व इस्लामिक देशों में धर्म का अधिक प्रभाव होने के कारण उसका राजनीतिक व राजनीतिक संस्कृति दोनों पर अधिक प्रभाव है। भारत में भी अहिंसा जैसे गुणों का राजनीतिक संस्कृति में प्रकटीकरण है।

राजनीतिक स्थिरता – 

राजनीतिक स्थिरता के परिवेश में ही उन्नत प्रकार की राजनीतिक संस्कृति का निर्माण हो सकता है। विकासशील देशों में राजनीतिक अस्थिरता के कारण ही यहां पर राजनीतिक संस्कृति अधिक उच्च कोटि की नहीं बन पाई है। राजनीतिक स्थिरता ही किसी राजनीतिक व्यवस्था व राजनीतिक संस्कृति दोनों को नई पहचान देती है। ऐप्टर का कहना है कि राजनीतिक संस्कृति में उच्च समरूपता राजनीतिक स्थायित्प के कारण ही होती है।”

इस प्रकार कहा जा सकता है कि राजनीतिक संस्कृति के आधार को मजबूत बनाने वाले तथा राजनीतिक संस्कृति का निर्माण व निर्धारण करने वाले तत्व इतिहास, भूगोल, सामाजिक, आर्थिक विकास, धर्म, राजनीतिक स्थिरता, राष्ट्रीय प्रतीक, विचारधाराएं आदि हैं। इसमें लोगों की अभिवृतियों का भी विशेष स्थान होता है। लोगों का सक्रिय राजनीतिक अभिमुखीकरण ही राजनीतिक व्यवस्था तथा राजनीतिक संस्कृति दोनों को नया रूप देता है। सामान्य संस्कृति से अलग होकर राजनीतिक संस्कृति का वांछित विकास नहीं हो सकता। अत: निष्कर्ष तौर पर कहा जा सकता है कि राजनीतिक संस्कृति के अनेक निर्धारक तत्व हैं जो राजनीतिक व्यवस्थाओं की प्रकृति का निर्धारण करते हैं।

राजनीतिक संस्कृति के आयाम 

राजनीतिक संस्कृति का स्वरूप बहुआयामी होता है। इसकी स्वयं की गतिशील प्रकृति तथा इसके निर्धारक तत्वों के प्रभाव से इसमें सतत् परिवर्तन होते रहते हैं। प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था की अल ग ही राजनीतिक संस्कृति होती है। सिडनी वर्बा का मानना है कि राजनीतिक संस्कृति के आयाम राजनीतिक व्यवस्था के चारों ओर घूमते हैं। ये आयाम प्रमुख रूप से चार हैं :- ;

राष्ट्रीय पहचान या अभिज्ञान 

राष्ट्रीय अभिज्ञान एक ऐसा विश्वास है जो राजनीतिक व्यवस्था को एकता के सूत्र में बांधता है। यह ऐसा धागा है जो राजनीतिक संस्कृति के विभिन्न तत्वों को आपस में एक माला की तरह पिरोए रखता है। इसका अर्थ लोगों के विश्वासों से इस बात से है कि जिस सीमा तक वे स्वयं को राष्ट्र-राज्य का अंग मानते हैं। राष्ट्रीय अभिज्ञान, राजनीतिक संस्कृति का प्रमुख आयाम होता है। इसी से राजनीतिक व्यवहार में विशिष्टता का गुण आता है। यह अभिजन वर्ग की गतिविधियों की वैधता का आधार है। यह व्यक्ति का राष्ट्र के साथ तादात्म्य की भावना का विकास करके राष्ट्रीय निर्माण में एक निर्णायक भूमिका निभाता है। राष्ट्रीयता की भावना का होना राजनीतिक संस्कृति को सजीव तथा सक्रिय बनाता है। लेकिन संचार साधनों से दूर समाज में अभिजन वर्ग व बुद्धिजीवियों की समाज को परिवर्तित करने की इच्छा के अभाव में राष्ट्रीय एकता का अभाव राजनीतिक व्यवस्था के लिए कोई खतरा नहीं हो सकता। विकासशील देशों में राष्ट्रीय अभिज्ञान में पाई जाने वाली कमी यहां पर राजनीतिक अस्थिरता का खतरा पैदा कर रही है। यद्यपि राष्ट्रीय एकात्मय अपने पूर्ण रूप में कभी नहीं पहुंच सकता है, लेकिन समाज के विभिन्न हितों व मतों में भिन्नता होते हुए भी यह आवश्यक माना जाता है कि राजनीतिक व्यवस्था के अधिकांश सदस्य संकीर्णता से ऊपर अवश्य उठें। इस तादात्मकता के महत्वपूर्ण व दूरगामी परिणाम निकलते हैं। इसके अभाव में राजनीतिक संस्कृति की एकता व राजनीतिक स्थायित्व दोनों को खतरा उत्पन्न हो जाता है और विभिन्न उप-संस्कृतियों का जन्म होने लगता है तथा समाज में अस्थिरता की स्थिति पैदा हो जाती है। अत: जब तक लोगों में राष्ट्रीयता की भावना का जन्म नहीं होगा और उनमें तादात्म्य की भावना जन्म नहीं लेगी, तब तक राष्ट्र व राजनीतिक संस्कृति को विशेष पहचान मिलना असम्भव है।

साथी नागरिकों के साथ ऐकमेकता या तादात्म्य – 

राजनीतिक संस्कृति का यह आयाम समाज में पारस्परिक विश्वास की भावना जागृत करता है। इससे समाज में विघटनकारी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाता है। राष्ट्रीय एकता तथा राष्ट्र के निर्माणकारी तत्वों में राष्ट्रीय तादात्म्य तभी सम्भव है जब नागरिकों में व्यक्तिगत स्तर पर ऐकमऐकता हो। राष्ट्रीय हित के मामलों में यह एकता देखने को मिलती है, क्योंकि इस समय लोग संकीण स्वार्थों से ऊपर उठकर काम करने लगते हैं। यह तादात्म्य इस बात पर आधारित है कि राजनीतिक व्यवस्था के लोग एक दूसरे के प्रति तथा राजनीतिक नेतृत्व के प्रति कैसा विश्वास व विचार रखते हैं। यदि नागरिकों में आपस में विभिन्नताओं के होते हुए भी एकता की भावना है तो राजनीतिक संस्कृति का विखण्डन नहीं होगा। नागरिकों की एकरूपता राष्ट्र की एकता को मजबूत करती है। लेकिन यह तादात्म्य स्वैच्छिक होना चाहिए। सर्वाधिकारवादी देशों की तरह लादा हुआ नहीं। इस तादात्म्य के कारण समाज में विषमताओं के रहते हुए भी राजनीतिक सक्रियता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जिस राजनीतिक व्यवस्था में लोगों का नेताओं पर से विश्वास उठ जाता है और शासक तथा शासितों में विरोध की स्थिति उत्पन्न हो जाती है तो लोकतन्त्रीय आस्थाओं का पतन होना शुरु हो जाता है। विकासशील देशों में ऊपर से लादी गई एकरूपता भी लोकतन्त्रीय आस्थाओं की रक्षा नहीं कर सकी, जबकि ब्रिटेन तथा अमेरिका में ये लोकतन्त्रीय आस्थाएं तेजी से अपने पैर जमा रही हैं। अत: लोगों का राजनीतिक व्यवस्था, नेतृत्व तथा आपस में विश्वास रहना जरूरी है ताकि शासन में एकरूपता का गुण बनाए रखा जा सके और राजनीतिक व्यवस्था व संस्कृति को पतन से बचाया जा सके।

शासन निर्गतों के प्रति विश्वास – 

सरकार के प्रति लोगों के विचारों का निर्माण इस बात पर निर्भर है कि सरकार लोगों के लिए क्या करती है। हर व्यक्ति सरकार से जनहित के कार्यों की अपेक्षा रखता है। इसलिए सरकार के कार्य ऐसे होने चाहिए कि जनता की आस्था सरकार में बढ़े और राजनीतिक सहभागिता व सक्रियता के स्तर में भी वृद्धि हो। जनता को यह लगना चाहिए के शासन के निर्गत सम्पूर्ण समाज के हितों की पोषक हैं, वर्ग-विशेष के हितों के नहीं। इसलिए सरकार के व्यवस्थापन, कार्यपालन तथा न्यायकारी कार्य जन आकांक्षाओं के अनुकूल ही होने चाहिए। शासन-निर्गतों के प्रति विश्वास ही प्रथम दोनों आयामों को ठोसता प्रदान करता है। लोगों का सरकार के कार्यों के प्रति विश्वास ही राजनीतिक संस्कृति को दरार से बचाता है और राष्ट्रीय एकता में वृद्धि करता है।

निर्णय प्रक्रिया में विश्वास – 

प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में निर्णय प्रक्रिया में गिने चुने लोगों की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। लोकतन्त्रीय देशों में तो ये निर्णयकर्ता जनता द्वारा ही भेजे जाते हैं और जनता के प्रति ही उत्तरदायी होते हैं। इसलिए सरकार की निर्णय-प्रक्रिया बहुमत के साथ-साथ अल्पसंख्यक वर्ग के हितों के अनुकूल भी होनी चाहिए क्योंकि वह तो सारे समाज के लिए ही होती है। सर्वाधिकारवादी देशों में अनिच्छापूर्वक लोगों द्वारा राजनीतिक निर्णयों को स्वीकार करने के कारण वहां की राजनीतिक संस्कृति क्षरणशील होती है। इसिलीए निर्णय प्रक्रिया में जनता की सहभागिता को बढ़ाकर या बनाए रखना ही राजनीतिक संस्कृति को स्थायित्व व गतिशीाता प्रदान की जा सकती है। इस प्रकार उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जनता का राजनीतिक व्यवस्था के प्रति विश्वास ही राजनीतिक संस्कृति को विशिष्ठता प्रदान करता है। इसलिए प्रत्येक देश की राजनीतिक व्यवस्था को अपने नागरिकों से ऐसा विश्वास चाहती है जो उसका तथा उसकी संस्कृति का विकास करने वाला हो। लोकतन्त्रीय सरकारों का तो यह विश्वास ही मेरुदण्ड है। विकासशील देशों में जनता का शासक-वर्ग के प्रति घटता विश्वास ही राजनीतिक अस्थिरता को जन्म दे रहा है।

 

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