राजनीतिक समाजीकरण का अर्थ

राजनीतिक समाजीकरण की अवधारणा समाजीकरण पर आधारित है। समाजीकरण वह प्रक्रिया है जो मनुष्य को बाल्यकाल से अन्तिम क्षणों तक जीवन के सभी क्षेत्रों का ज्ञान उपलब्ध कराती रहती है। यह एक सतत् प्रक्रिया है। इसका सर्वप्रथम अभिकर्ता परिवार है। मनुष्य जैसे जैसे बड़ा होता जाता है, वैसे-वैसे उसके समाजीकरण का क्षेत्र भी बढ़ता जाता है। संसार में ऐसी कोई औपचारिक संस्था नहीं है, जहां समाजीकरण की विशेष शिक्षा दी जाती हो। मनुष्य परिस्थितियों से सीखता है। मनुष्य का समाज के कार्यों के प्रति रुझान बहुमुखी प्रकृति का होता है, इसी कारण समाजीकरण की प्रक्रिया भी बहुमुखी है। समाजीकरण को परिभाषित करते हुए जॉनसन ने लिखा है-”समाजीकरण एक प्रशिक्षण है जो प्रशिक्षार्थी को समाज में उसकी भूमिका निभाना सिखाता है।” 

 

गिलिन और गिलिन ने कहा है-”समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति समूह के स्तरों के अनुसार समूह की गतिविधियों के अनुकूल उसकी परम्पराओं का पालन करके और स्वयं सामाजिक अवस्थाओं की अनुकूल करके, समूह के क्रियाशील सदस्य के रूप में विकसित होता है।” इस तरह समाजीकरण एक सतत् व विस्तृत प्रक्रिया है। राजनीतिक समाजीकरण तो उसका एक विशेष भाग है। इसका प्रचलन द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद बढ़ा है। राजनीतिक समाजीकरण के बारे में अनेक विद्वानों ने अलग अलग परिभाषाएं दी हैं जो इसके अर्थ व प्रकृति दोनों को स्पष्ट करती हैं।

राजनीतिक समाजीकरण को एक प्रक्रिया तथा संकल्पना दोनों अर्थों में प्रयोग किया जाता है। राजनीति के बारे में लोगों को अभिवृतियों, विचारों और आस्थाओं के निर्माण की प्रक्रिया राजनीतिक समाजीकरण कहलाती है। एक प्रक्रिया के रूप में यह लोगों का राजनीति सम्बन्धी रुझान बनाने की प्रक्रिया है। एक संकल्पना के रूप में यह व्यक्ति के राजनीति सम्बन्धी मूल्यों, विश्वासों, अभिवृतियों व विचारों का ताना-बाना है। 

 

राजनीतिक समाजीकरण की प्रकृति 

राजनीतिक समाजीकरण राजनीतिक संस्कृति से जुड़ी हुई प्रक्रिया है जो सतत् रूप में चलती रहती है। यह प्रत्येक देश की राजनीतिक व्यवस्था के व्यवहार को प्रभावित करने की क्षमता रखती है। यह राजनीतिकरण, राजनीतिक सहभागिता व राजनीतिक भर्ती से अधिक व्यापक संकल्पना भी है। इसमें व्यक्ति की राजनीतिक अभिवृतियों, विश्वासों व मान्यताओं का अभिमुखीकरण शामिल है। इससे ये मान्यताएं मूल्य व विश्वास दूरी पीढ़ी तक भी जाते हैं। इससे व्यक्ति का राजनीतिक समाज के प्रति अनुकूल दृष्टिकोण बनता है और उसका समाज, राष्ट्र और शासक वर्ग के प्रति निष्ठा का भाव भी विकसित होता है। 

 

राजनीतिक समाजीकरण की प्रक्रिया सामान्यतया आकस्मिक रूप में कार्य करती है। यह इतने शांत और सौम्य रूप में संचालित होती है कि लोगों को इसकी खबर भी नहीं होती। इसके अन्तर्गत वे औपचारिक एवं अनौपचारिक राजनीतिक प्रशिक्षण भी शामिल होते हैं जो राजनीतिक व्यवहार को प्रभावित करते हैं। राजनीतिक समाजीकरण एक ऐसा विचार भी है जो राजनीतिक स्थायित्व के लक्ष्य को प्राप्त करने की भी अपेक्षा रखता है। इसका उद्देश्य ऐसे व्यक्तियों का प्रशिक्षण और विकास करना है जिससे वे राजनीतिक समाज के अच्छे सदस्य बन सकें। राजनीतिक समाजीकरण व्यक्तियों के मन में मूल्यों, मानकों और अभिविन्यासों का विकास करता है, जिससे उनमें राजनीतिक व्यवस्था के प्रति विश्वास की भावना पैदा हो सके और वे अपने अच्छे कार्यों द्वारा अपने उत्तराधिकारियों पर अमिट छाप छोड़ सके। राजनीतिक समाजीकरण ही वह कड़ी है जो समाज और राजनीतिक व्यवस्था को जोड़ती है।

राजनीतिक समाजीकरण की प्रक्रिया उस समय से शुरु हो जाती है, जब बच्चा अपने चारों ओर के व्यापक पर्यावरण के बारे में जानने लगता है। इसी अवस्था में ‘बच्चों में’ समाजीकरण का गुण प्रवेश कर जाता है जो आगे चलकर परिवार, स्कूल, स्वैच्छिक समूह, मित्र-मण्डली, राजनीतिक संरचनाओं आदि के द्वारा पूर्ण विकसित हो जाता है। इससे समाजीकरण का प्रकट व अप्रकट रूप उभरने लगता है। जब व्यक्ति के राजनीति के प्रति अभिवृतियां जागृत की जाती हैं तो प्रकट रूप उभरता है। जैसे राजनीतिक दलों द्वारा व्यक्ति को अपने चुनावी कार्यक्रमों में आकर्षित करना व अपने कार्यक्रमों की जानकारी दोनों का कार्य दिया जाता है तो यह प्रकट समाजीकरण होता है। लेकिन जब जनसम्पर्क के साधनों, मित्र मंडलियों, स्कूलों आदि से स्वत: ही बनने लगती है और व्यक्ति को इसका पता बाद में लगता है तो यह अप्रकट राजनीतिक समाजीकरण होता है। अप्रकट समाजीकरण से सऋत्ताधारकों का जन्म लेना कठिन होता है। 

 

राजनीतिक समाजीकरण का प्रकट रूप ही सत्ताधारकों का जन्मदाता है। इससे छल-योजन व जोड़-तोड़ द्वारा लोगों में राजनीतिक व्यवस्था के प्रति मूल्य, विश्वास व मान्यताएं पैदा की जाती हैं। यह समाजीकरण ही सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था के पुन:निर्माण का आधार होता है। प्रकट राजनीतिक समाजीकरण शासन-तन्त्र द्वारा निर्देशित होता है। साम्यवादी देशों में इसका बहुत महत्व है। वहां पर सर्वाधिकारवादी राजनीतिक व्यवस्था के प्रति लोगों का विश्वास बनाए रखने के लिए शासक वर्ग कई तरह की जोड़-तोड़ करते रहते हैं। राज्य निर्देशित शिक्षा प्रणाली इसका प्रमुख साधन होती है। संचार व जनसम्पर्क के साधनों का खुलकर प्रयोग किया जाता है। लेनिन ने जार की तानाशाही को उखाड़ने के लिए इसी प्रकार के समाजीकरण का प्रयोग किया था। चीन में माओ की सांस्कृतिक क्रान्ति इसी कारण सफल हुई थी। इसके विपरीत राजनीतिक समाजीकरण का अप्रकट रूप व्यक्ति में स्वत: ही समाजीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से प्रवेश कर जाता है। इस दृष्टि से राजनीतिक समाजीकरण जीवन भर चलने वाली शाश्वत् प्रक्रिया होती है। इससे व्यक्ति के राजनीतिक व्यवस्था के प्रति विचार व मूल्य अधिक स्थाई होते हैं। इसमें जोड़-तोड़ या छल-योंजन का अभाव रहता है। स्थायित्व की दृष्टि से राजनीतिक समाजीकरण का यह रूप प्रकट रूप से अधिक महत्व का होता है। इस समाजीकरण के तत्व व्यक्ति के जीवन का अभिन्न अंग बन जाते हैं और आजीवन उसका पीछा नहीं छोड़ते। इसके विपरीत प्रकट राजनीतिक समाजीकरण राजनीतिक व्यवस्था के लिए लाभकारी व हानिकारक दोनों हो सकता है।

राजनीतिक समाजीकरण की विशेषताएं 

राजनीतिक समाजीकरण के अर्थ एवं प्रकृति को समझ लेने के बाद इसकी विशेषताएं दृष्टिगोचर होती हैं :-

  1. राजनीतिक समाजीकरण एक जीवन भर चलने वाली सतत् प्रक्रिया है।
  2. यह एक सार्वभौम प्रक्रिया भी है, क्योंकि यह सभी राजनीतिक समाजों में चलती रहती है।
  3. इसका राजनीतिक संस्कृति से गहरा सम्बन्ध है, क्योंकि राजनीतिक संस्कृति का अनुरक्षण व अगली पीढ़ी को राजनीतिक संस्कृति से परिचित कराने का कार्य राजनीतिक समाजीकरण द्वारा ही होता है।
  4. यह प्रकट तथा अप्रकट दोनों रूपों में होता है।
  5. इसकी प्रक्रिया औपचारिक भी हो सकती है और अनौपचारिक भी।
  6. यह व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन को प्रभावित करती है।
  7. इसका राजनीतिक परिवर्तन से भी गहरा रिश्ता है। यह राजनीतिक परिवर्तन के बाद भी जारी रहता है।
  8. यह सीखने की प्रक्रिया है, जिसका पर्यावरण से गहरा सम्बन्ध है।
  9. यह राजनीतिकरण, राजनीतिक सहभागिता व भर्ती से अधिक व्यापक संकल्पना है।
  10. यह समाजीकरण की प्रक्रिया का ही एक अंग है।
  11. यह धीरे-धीरे होने वाली प्रक्रिया है।
  12. यह समाज और व्यवस्था को जोड़ने वाली कड़ी है।
  13. राजनीतिक समाजीकरण की प्रथम इकाई परिवार है।
    राजनीतिक समाजीकरण राजनीतिक व्यवस्था के पुनर्निर्माण का आधार होता है।
  14. राजनीतिक समाजीकरण सत्ताधारकों का जन्मदाता है।

राजनीतिक समाजीकरण के प्रकार

  1. प्रकट या प्रत्यक्ष राजनीतिक समाजीकरण
  2. अप्रकट या अप्रत्यक्ष राजनीतिक समाजीकरण
  3. पुरातन राजनीतिक समाजीकरण
  4. आधुनिक राजनीतिक समाजीकरण

प्रकट या प्रत्यक्ष राजनीतिक समाजीकरण 

जब व्यक्ति प्रत्यक्ष साधनों द्वारा राजनीतिक मूल्यों, संस्कृति, विचारों व झुकाव को ग्रहण करता है तो उसे प्रकट या प्रत्यक्ष राजनीतिक समाजीकरण कहा जाता है। जब राजनीतिक व्यवस्था सम्बन्धी जानकारी, अभिमुखीकरण और मूल्यों का जान-बूझकर स्पष्ट रूप से सम्प्रेषण या संचरण होता है तो प्रकट राजनीतिक समाजीकरण का जन्म होता है। इस प्रकार के राजनीतिक समाजीकरण में शैक्षिक संस्थाओं को माध्यम बनाकर राजनीतिक समाज अपने उद्देश्य पूरा करना चाहता है। चीन में माओ की विशुद्ध राजनीतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाने का यही उद्देश्य है। इसी तरह रूस में भी लम्बे समय तक लेनिन और माक्र्स के क्रान्तिकारी विचारों को स्कूली व कॉलेज स्तर की शिक्षा का अनिवार्य अंग बनाए रखा गया। इन सभी का उद्देश्य प्रकट राजनीतिक समाजीकरण से ही जुड़ा हुआ है। इन देशों में साम्यवादी दल ही प्रारम्भ से साम्यवादी शिक्षा प्रणाली का नियन्त्रक रहा है और उसने ही लोगों के राजनीतिक समाजीकरण की अहम् भूमिका अदा की है। इसमें जोड़-तोड़ व छल-योजन की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। यह समाजीकरण अधिक स्थायी नहीं होता है। शासन-व्यवस्था में आई थोड़ी सी सुस्ती राजनीतिक व्यवस्था को गर्त में धकेल सकती है, जैसा रूस में हुआ। हाल ही में 2003 में ईराक में सद्दाम हुसैन के प्रायोजित राजनीतिक समाजीकरण का जो हर्ष हुआ है, वह सर्वविदित है।

अप्रकट या अप्रत्यक्ष राजनीतिक समाजीकरण 

जब राजनीतिक अभिमुखीकरणों, प्रतिमानों और सत्ता सम्बन्धों के प्रति मनुष्य की अभिवृतियों का निर्माण स्वत: ही होता है, तो उसे अप्रकट या अप्रत्यक्ष राजनीतिक समाजीकरण कहा जाता है। यह समाजीकरण स्वत: ही होता जाता है। इसमें प्रायोजित कार्यक्रमों की आवश्यकता नहींं पड़ती। अप्रकट राजनीतिक समाजीकरण की प्रक्रिया समाजीकरण की प्रक्रिया के साथ-साथ चलती रहती है। यह जीवन-भर चलने वाली प्रक्रिया या कार्यक्रम है। यह धीरे-धीरे चलता रहता है और इसके परिणाम अधिक स्थाई व दूरगामी होते हैं। यह छल योजन या जोड़-तोड़ से दूर रहने के कारण राजनीतिक संस्कृति से घनिष्ठ रूप से जुड़ा रहता है। इस प्रकार का समाजीकरण स्वैच्छिक संस्थाओं, राजनीकि संस्थागत संरचनाओं, समुदायों आदि के द्वारा स्वत: ही होता रहता है।

पुरातन राजनीतिक समाजीकरण

यह समाजीकरण रूढ़िवादी राजनीतिक समाजों में पाया जाता है जो राजनीतिक जागृति व चेतना से हीन है। इसमें लोगों का रूढ़िवादी मूल्यों, विश्वासों व परम्पराओं से गहरा लगाव होता है। इसमें राजनीतिक सत्ता में शीघ्रता से बदलाव नहीं होता। परम्परावादी होने के कारण इसमें व्यक्ति विशेष के पास ही राजनीतिक सत्ता रहती है और वही राजनीतिक सत्ता व शक्ति का नियामक बना रहता है। इसमें सामाजिक परिवर्तन व राजनीतिक आधुनिकीकरण को विद्रोह माना जाता है। यह केवल कबाइली समाजों में ही पाया जाता है।

आधुनिक राजनीतिक समाजीकरण

यह समाजीकरण सभ्य व उन्नत राजनीतिक समाजों में पाया जाता है। इसमें व्यक्ति को बाल्यकाल से ही राजनीतिक व्यक्ति बनाने के प्रयास किए जाते हैं। इसमें व्यक्ति को राजनीतिक समस्याओं और राजनीतिक संस्थागत संरचनाओं का ज्ञान शुरु से कराया जाता है। ताकि वह परिपक्व होकर राजनीतिक सत्ताधारक बन सके। इस प्रक्रिया में पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो, दूरदर्शन, समाचार-पत्रों आदि जनसम्पर्क के साधनों का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। इससे व्यक्ति में राजनीतिक व्यवस्था के प्रति मूल्य व विश्वासों में वृद्धि होती है और उसकी राजनीतिक चेतना व लगाव इस कद्र तक बढ़ जाता है कि वह राजनीतिक व्यवस्था का अभिन्न अंग बन जाता है। इसके अतिरिक्त भी राजनीतिक समाजीकरण के कई अन्य रूप भी हो सकते हैं, जैसे-औपचारिक व अनौपचारिक, निरन्तर व बाद्धिात, समरूप व भिन्न। लेकिन इनका सम्बन्ध किसी न किसी रूप में उपरोक्त वर्गीकरण से ही सम्बन्धित रहता है। यह अवश्य सत्य है कि प्रत्येक राजनीतिक समाज किसी न किसी रूप में राजनीतिक समाजीकरण की व्यवस्था को समेटे हुए है।

राजनीतिक समाजीकरण के अभिकरण

राजनीतिक समाजीकरण की प्रक्रिया प्रत्येक राजनीतिक समाज में चलती रहती है। इसको गतिशील बनाए रखने में अनेक तत्वों का योगदान होता है। ये तत्व सभी राजनीतिक समाजों में समान प्रकृति के नहीं होते। राजनीतिक समाजीकरण की प्रक्रिया के चलने का कोई निश्चित समय नहीं होता। एलेन बाल ने कहा है कि “राजनीतिक समाजीकरण ऐसी प्रक्रिया नहीं है जो बाल्यकाल के प्रभावग्रस्त योग्य वर्षों तक सीमित हो, बल्कि यह तो सारे व्यस्क जीवन के दौरान चलती रहती है।” इससे स्पष्ट हो जाता है कि इस लम्बी प्रक्रिया में व्यक्ति पर अनेक कारकों का प्रभाव भी अवश्य पड़ेगा। इसी से व्यक्ति के राजनीतिक समाजीकरण का मार्ग प्रशस्त होगा। 

एस0पी0 वर्मा ने लिखा है-”राजनीतिक समाजीकरण की प्रक्रिया में परिवार, स्कूल, चर्च, समान लोगों के समूह, जनसम्पर्क के साधन और जन-सम्बन्धों की अहम् भूमिका होती है।” इससे स्पष्ट हो जाता है कि राजनीतिक समाजीकरण के अनेक अभिकरण या साधन होते हैं। यह जरूरी नहीं है कि इन सभी साधनों का व्यक्ति पर समान प्रभाव पड़ता हो। व्यक्ति की आयु, ज्ञान, पारिवारिक वातावरण, अभिरुचि आदि का भी इस प्रक्रिया से गहरा सम्बन्ध रहता है। इसी कारण व्यक्तियों की राजनीतिक भूमिकाओं में भी अन्तर पाया जाता है। लेकिन यह बात तो निर्विवाद रूप से सत्य है कि राजनीतिक समाजीकरण की प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले कुछ अभिकरण अवश्य हैं जो व्यक्ति को राजनीतिक मानव बनाते हैं। ये अभिकरण हैं :-

  1. परिवार
  2. शिक्षण संस्थाएं
  3. मित्र-मण्डली
  4. दबाव व हित समूह
  5. राजनीतिक दल
  6. जनसम्पर्क के साधन
  7. राजनीतिक व्यवस्था
  8. आजीविका के साधन
  9. राष्ट्रीय प्रतीक

परिवार

परिवार व्यक्ति की प्रथम पाठशाला है। व्यक्ति परिवार से ही अनेक सामाजिक सद्गुणों के साथ-साथ राजनीतिक विचारधारा भी ग्रहण करता है। परिवार का बाल्यकाल में व्यक्ति पर सर्वाधिक मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है। परिवार ही समाजीकरण व राजनीतिक समाजीकरण का महत्वपूर्ण अभिकरण है। इस अभिकरण की व्यक्ति के राजनीतिक समाजीकरण में भूमिका परिवार विशेष की राजनीतिक व्यवस्था के प्रति लगाव पर निर्भर करती है। आज परिवार की राजनीतिक समाजीकरण में पहले की अपेक्षा भूमिका में वृद्धि हुई है। लेकिन मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में कुछ भागों में आज भी गांव राजनीतिक समाजीकरण की प्रक्रिया से पूरी तरह नहीं जुड़ पाए हैं। जहां आर्थिक विकास की समस्या है, वहां भी राजनीतिक समाजीकरण में परिवार या ग्रामीण समाज का कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं रहता। लेकिन आज भारत मेंं बहुत कम ही ऐसे क्षेत्र हैं जहां राजनीतिक समाजीकरण की प्रक्रिया न पहुंची हो। आज प्रत्येक गांव में स्थानीय स्वशासन की इकाइयों ने व्यक्ति को राजनीतिक भूमिका अदा करने पर मजबूर कर दिया है। आज गांवों में ऐसा परिवार मुश्किल से मिलेगा जो राजनीति से दूर हो। आज हर समय खाली वक्त में प्रत्येक परिवार में राजनीतिक बातों पर खुलकर विचार-विमर्श होता है। इसका प्रभाव बच्चे पर भी अवश्य पड़ता है। बच्चा भी धीरे धीरे राजनीतिक बातों में रुचि लेने लगता है। जब गांवों में पंचायतों के चुनाव होते हैं तो प्रत्येक बच्चा भी राजनीतिक क्रियाएं करते हुए देखा जा सकता है। यही हाल शहरी स्वशासन की संस्थाओं के चुनावों में होता है। परिवार मेंं बढ़ती राजनीतिक चेतना बालक के मानस-पटल पर भी अवश्य प्रभाव डाली है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जो परिवार राजनीतिक दृष्टि से अधिक सामाजिक है, वह अपने बच्चों को भी राजनीतिक मानव बनाने में प्रेरणा के तौर पर कार्य करता है। परिवार में सीखे गए सद्गुण ही व्यक्ति के राजनीतिक जीवन में बहुत काम आते हैं। अत: परिवार राजनीतिक समाजीकरण का प्रमुख व प्रथम अभिकरण है।

शिक्षण संस्थाएं 

शिक्षा राजनीतिक व्यवहार का महत्वपूर्ण चर है। बच्चे को राजनीतिक समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप ढालने में स्कूल व कॉलेज स्तर की शिक्षा का भी बहुत महत्वपूर्ण योगदान होता है। बच्चा स्कूली स्तर से ही अपने देश की राजनीतिक घटनाओं का ज्ञान प्राप्त करने लगता है और कॉलेज स्तर तक पहुंचते-पहुंचते उसका राजनीति के प्रति लगाव अधिक हो जाता है। इस स्तर पर आकर वह स्वयं ही विद्याथ्र्ाी संघ के चुनावों में अभिरुचि लेने लगता है और नेतृत्व की प्रक्रिया में अहम् भूमिका अदा करने की सोचने लगता है। यह शिक्षण प्रक्रिया ही है जो व्यक्ति को सम्पूर्ण राजनीतिक मानव बना देती है। आज शैक्षिक पाठ्यक्रम में राजनीकि संरचनाओं, इतिहास, शासन तन्त्र, कानून, संविधान, भौतिक अधिकार व स्वतन्त्रताओं आदि को शामिल किया जाता है ताकि बच्चे का राजनीतिक घटनाओं व व्यवस्थाओं से परिचय हो सके। चीन और रूस में शिक्षण संस्थाएं ही राजनीतिक समाजीकरण का सबसे प्रबल साधन है। राजनीति शास्त्र का विषय आज प्रत्येक देश में पढ़ाया जाता है। इससे नागरिकों में देश व राजनीति के प्रति ज्ञान बढ़ता है जो कई बार प्रकट रूप ले लेता है। छात्र संघ के चुनाव राजनीतिक समाजीकरण का प्रकट रूप ही है। अत: शिक्षण संस्थाएं भी राजनीतिक समाजीकरण का महत्वपूर्ण साधन है।

मित्र-मण्डली

प्रत्येक देश में शिक्षण संस्थाओं के दौरान ही बच्चों के हमजोली या लंगोटिए समूह बन जाते हैं जो बाद में खुलकर विचार विमर्श करते हैं व गप्पे हांकते हैं। ये समूह अनौपचारिक होते हैं। इन समूहों में बच्चा विचार-विमर्श की गई बात को आत्मसात् कर लेता है। अध्यापक द्वारा बताई गई बातों तथा समाचार-पत्रों से प्राप्त राजनीतिक घटनाओं की जानकारी पर ये हमजोली समूह खुलकर चर्चा करते हैं। चुनावों के समय ये हमजोली समूह कुछ-न-कुछ राजनीतिक गतिविधियां अवश्य करते हैं। चुनावी प्रचार में जुटे लोगों की बातें सुनना, पर्चे पढ़ना व नारे लगाना इन्हें बहुत अच्छा लगता है। जब ये व्यस्क हो जाते हैं तो इनका गठजोड़ और अधिक मजबूत हो जाता है। ये इस बात पर निर्णय करने लग जाते हैं कि कौनसी पार्टी ठीक है या कौनसा नेता ठीक है। पढ़े-लिखे बच्चों में अनपढ़ों की अपेक्षा अधिक राजनीतिक चेतना रहती है। ये स्वेच्छिक समूह उम्र के साथ-साथ बनते बिगड़ते रहते हैं, लेकिन इनका अस्तित्व अवश्य रहता है। परिपक्व आयु में बनने वाले स्वेच्छिक समूह व्यक्ति का अधिक राजनीतिक समाजीकरण करते हैं और यह राजनीति समाजीकरण स्थायी प्रकृति का होता है।

दबाव व हित समूह 

आज प्रत्येक लोकतन्त्रीय देश में दबाव या हित समूह अवश्य पाए जाते हैं। समाज के विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधि होने के कारण इनका राजनीतिक व्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ता है। ये समूह सामाजिक व धार्मिक संस्थाओं के रूप में भी हो सकते हैं। आज विश्व में कृषकों, मजदूरों, सरकारी कर्मचारियों, व्यापारियों, विद्यार्थियों, स्त्रियों आदि के अनेकों संगठन हैं जो राजनीतिक गतिविधियां करके व्यक्ति का राजनीतिक समाजीकरण करते हैं। राजनीतिक दल के साथ लगकर राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित करने के लिए ये हमेशा जोड़-तोड़ करते रहते हैं। जनमत को अपने पक्ष मेंं करने के लिए ये तरह-तरह के तरीके प्रयोग में लाते हैं। ये अपने क्रिया-कलापों द्वारा राजनीतिक समाजीकरण में अहम् भूमिका निभाते हैं। कई बार तो ये राजनीतिक दलों को आर्थिक सहायता देते हैं और राजनीतिक स्तर पर किए जाने वाले नीति-निर्माण को भी प्रभावित करते हैं। इनकी गतिविधियां ही राजनीतिक समाजीकरण का अभिकरण है।

राजनीतिक दल

आज प्रत्येक देश में राजनीतिक दल विद्यमान है। चुनावी राजनीति को अमली जामा पहनाने में राजनीतिक दलों की ही महत्वपूर्ण भूमिका है। आज हर व्यक्ति का राजनीतिकरण करने का प्रयास राजनीतिक दल ही करते हैं। केन्द्र से लेकर ग्रामीण इकाई तक राजनीतिक दलों का जो जाल फैला हुआ है, उसने व्यक्ति का राजनीतिकरण कर दिया है। आज ग्रामीण संस्थाओं के चुनाव भी राजनीतिक दलों के गुप्त मार्गदर्शन में सम्पन्न होने लगे हैं। अब कोई भी व्यक्ति राजनीतिक दलों के प्रभाव से बच सकता। राजनतिक दल ही सत्ताधारकों के जन्मदाता हैं। राजनीतिक दल अपनी विशेष राजनीतिक विचारधारा रखते हैं जिसको क्रियारूप देकर वे राजनीतिक समाज का समाजीकरण करते हैं। दलों के वार्षिक अधिवेशन, चुनावी घोषणापत्र राजनीतिक समाजीकरण्या की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हैं। राजनीतिक दल ही जनता को राजनीति की तरफ आकर्षित करते हैं। राजनीतिक दलों द्वारा चलाए जाने वाले सदस्याता अभियान राजनीतिक समाजीकरण का महत्वपूर्ण अंग हैं। राजनीतिक दलों की गतिविधियों के कारण ही आज प्रत्येक व्यस्क व्यक्ति राजनीति के रंग में रंग चुका है। अत: राजनीतिक दल भी राजनीतिक समाजीकरण का प्रबल आधार है।

जनसम्पर्क के साधन 

आज जनसम्पर्क के साधनों ने भी व्यक्ति का राजनीतिक समाजीकरण कर दिया है। समाचार पत्र, रेडियो, टी0वी0, पत्र-पत्रिकाओं से मिलने वाली राजनीतिक घटनाओं की जानकारी व्यक्ति को काफी प्रभावित करती है। इसी से उसके राजनीतिक विचार बनते व बिगड़ते हैं। आज सभी शासन-व्यवस्थाएं जनसम्पर्क के साधनों का प्रयोग करके अपने नागरिकों का राजनीतिक अभिमुखीकरण करने लगी है। आज हम जो कुछ रेडियो पर सुनते हैं, टी0वी0 पर देखते हैं और समाचार-पत्रों में पढ़ते हैं, वह हमारे राजनीतिक जीवन का अभिन्न अंग बन जाता है। साम्यवादी देशों में तो जनसम्पर्क के साधन ही सरकार के पास राजनीतिक अभिमुखीकरण का प्रबल साधन हैं। आज विकासशील व विकसित देशों में भी जन-सम्पर्क के साधन ही समाजीकरण में अहम् भूमिका निभा रहे हैं।

राजनीतिक व्यवस्था

आज राजनीतिक व्यवस्था की संस्थागत संस्थाएं भी राजनीतिक समाजीकरण का प्रबल साधन बन गई हैं। सरकार द्वारा किए गए कार्यों को नागरिकों की पसंद या ना पसंद से जोड़कर इसका पता लगाया जाता है। साम्यवादी सरकारें जनसम्पर्क के साधनों तथा शिक्षण संस्थाओं का प्रयोग करके शासन-तन्त्र के इच्छित मूल्यों को नागरिकों में संप्रेषित करती है और नागरिकों की अभिवृतियों, मान्यताओं और आस्थाओं को राजनीतिक समाजीकरण की तरफ मोड़ने के हर प्रयास करती हैं। लोकतन्त्र के अन्तर्गत भी सरकारें अपनी भूमिका निष्पादन के द्वारा लोगों को राजनीतिक सीख देती रहती है। राजनीतिक-व्यवस्था का भी राजनीतिक समाजीकरण से गहरा सम्बन्ध होता है। चीन व सोवियत संघ में लोगों को राजनीतिक शिक्षा देने के लिए स्वैच्छिक युवा वर्गों ओर संगठनों को आर्थिक मदद भी की जाती रही है। कई बार तो धर्म तक को भी आड़ लेकर लोगों को राजनीतिक व्यवस्था से जोड़े रखने के प्रयास किए जाते रहे हैं।

आजीविका के साधन 

आज प्रत्येक व्यक्ति आर्थिक क्रियाओं से किसी न किसी रूप में उलझा हुआ है। विभिन्न सरकारी व गैर-सरकारी आर्थिक कार्यों में लगे हुए लोग अपने हितों के लिए संगठन व संघ बनाकर राजनीतिक गतिविधियां संचालित करते रहते हैं। इस सामूहिक सौदेबाजी की प्रक्रिया का सहारा लेकर प्रत्येक संगठन अपने उद्देश्यों को भी प्राप्त कर लेता है और इससे उसके सदस्यों का राजनीतिक समाजीकरण भी हो जाता है। संघ के दौरान रहकर सीखने वाली हड़ताल, बन्ध, तोड़फोड़, प्रदर्शन आदि गतिविधियां व्यक्ति के राजनीतिक स्वभाव का प्रमुख अंग बन जाती है जो आगे चलकर राजनीतिक जीवन के किसी न किसी बिन्दु पर अवश्य प्रकट होने लगती हैं। पावेल ने लिखा है-”नौकरी और इसके इर्द-गिर्द औपचारिक व अनौपचारिक संगठन-क्लब, मजदूर संघ आदि राजनीतिक सूचना और विश्वास तथा मूल्यों से स्पष्ट रूप से संचार सम्बन्धी माध्यम है जो व्यक्ति का राजनीतिकरण करते हैं।”

राष्ट्रीय प्रतीक 

राष्ट्रीय प्रतीक भी राजनीतिक समाजीकरण का प्रमुख साधन होते हैं। गणतन्त्र दिवस, स्वतन्त्रता दिवस, मई दिवस, आम चुनाव, राज्याभिषेक, गाँधी जयन्ती, राष्ट्रीय झण्डा, राष्ट्रीय गान व गीत, माक्र्स व लेनिन की जयन्तियां आदि के कारण भी लोगों में राजनीतिक अभिमुखीकरण होता है। इनका बच्चों से लेकर व्यस्क व्यक्ति तक कुछ-न-कुछ प्रभाव अवश्य पड़ता है। इससे लोगों को देश-विदेश की राजनीतिक बातों का पता लगता है और उनके राजनीतिक विचार विकसित होने लगते हैं जो उनको राजनीतिक समाजीकरण की तरफ ले जाते हैं।

उपरोक्त विवेचन के बाद कहा जा सकता है कि व्यक्ति के राजनीतिक समाजीकरण में परिवार, शिक्षा, मित्र-समूह, जनसम्पर्क के साधन, दबाव समूह, राजनीतिक दल, साहित्य, विभिन्न समुदाय आदि का महत्वपूर्ण योगदान होता है। साम्यवादी देशों में तो लोगों का राजनीतिक व्यवस्था के प्रति अभिमुखीकरण करने के लिए स्वयं सरकार द्वारा जनसम्पर्क साधनों व शिक्षण संस्थाओं का खुलकर प्रयोग किया जाता है। इसलिए राजनीतिक समाजीकरण की प्रक्रिया इन देशों में वह लक्ष्य अस्थाई रूप में ही पूरे कर पाती है। इसके विपरीत लोकतन्त्रीय देशों में समाजीकरण की प्रक्रिया सहज व स्वत: होने के कारण अधिक स्थाई परिणाम देने वाली होती है। इस तरह प्रत्येक देश की राजनीतिक व्यवस्था की प्रकृति में पाए जाने वाले अन्तर के कारण वहां पर राजनीतिक समाजीकरण की प्रक्रिया भी दूसरे देशों से भिन्न हो जाती है। विकासशील देशों में तो धर्म की संस्थाएं भी आज राजनीतिक समाजीकरण का सशक्त माध्यम बनती जा रही हैं।

आज धर्म के नाम पर राजनीतिक अभिमुखीकरण करना एक आम बात हो गई है। आर्थिक साधनों के अभाव में कई बार राजनीतिक समाजीकरण के साधन संयुक्त रूप से कार्य नहीं कर पाने के कारण अपने लक्ष्य में पिछड़ जाते हैं। विकासशील देशों में यही समस्या है। विकासशील देशों में राजनीतिक समाजीकरण के कुछ साधन या अभिकरण तो कागजों की शोभा बनकर रह गये हैं। भारत में स्कूली शिक्षा से सभी बच्चों को 2010 तक जोड़ना इस बात का सूचक है कि आने वाले समय में भारतीय समाज में राजनीतिक समाजीकरण की प्रक्रिया में अवश्य तेजी आएगी जो राजनीतिक व्यवस्था के लिए एक शुभ संकेत होगी। अत: निष्कर्ष तौर पर कहा जा सकता है कि किसी भी राजनीतिक व्यवस्था की प्रकृति, राजनीतिक समाज के मूल्य व अभिमुखीकरण, जनसम्पर्क के साधनों की व्यवस्था, आर्थिक विकास की प्रकृति, राजनीतिक संस्कृति का स्वरूप आदि नियामक राजनीतिक समाजीकरण का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इनका घटता बढ़ता प्रभाव ही राजनीतिक समाजीकरण की मात्रा को निर्धारित करता है।

राजनीतिक समाजीकरण व राजनीतिक व्यवस्था में सम्बन्ध

राजनीतिक समाजीकरण तथा राजनीतिक व्यवस्था में गहरा सम्बन्ध है। राजनीतिक समाजीकरण ही वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति का राजनीतिक व्यवहार भी निश्चित होता है और राजनीतिक व्यवस्था का भी। आज राजनीतिक आधुनिकीकण और विकास का सबसे प्रबल आधार राजनीतिक समाजीकरण ही है। यह राजनीतिक व्यवस्था को स्थिरता व कुशलता प्रदान करने का भी कार्य करता है। यह राजनीतिक व्यवस्था में भर्ती, सहभागिता आदि का नियामक होता है। राजनीतिक समाजीकरण व्यक्तियों के मन में मूल्यों, मानकों और अभिवृतियों का विकास करता है जिससे उनके मन में राजनीतिक व्यवस्था के प्रति गहरा लगाव पैदा होता है। यह सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्थाओं को जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य करता है। इसके अभाव में न तो राजनीतिक व्यवहार में स्थायित्व आ सकता है और न ही राजनीतिक व्यवस्था में। बाल्यकाल में व्यक्ति को राजनीतिक व्यवहार को जो ज्ञान कराया जाता है, उसका राजनीतिक समाजीकरण से ही गहरा रिश्ता होता है। राजनीतिक समाजीकरण के अभिकरणों द्वारा किया गया राजनीतिक अभिमुखीकरण ही राजनीतिक चेतना का आधार होता है। यही चेतना राजनीतिक व्यवस्था के विकास के लिए रीढ़ की हड्डी का कार्य करती है। 

 

राजनीतिक व्यवस्था में उठने वाली मांगों व दबावों का नियामक भी राजनीतिक समाजीकरण ही होता है। यही राजनीतिक समाज में व्यक्तियों की राजनीतिक सहभागिता या सक्रियता की मात्रा का निर्धारक भी होता है। राजनीतिक सहभागिता राजनीतिक समाजीकरण से सापेक्ष सम्बन्ध रखती है। राजनीतिक व्यवस्था के प्रति जो विश्वास व धारणाएं बनती बिगड़ती हैं, उनके पीछे राजनीतिक समाजीकरण का ही हाथ होता है। राजनीतिक समाजीकरण ही राजनीतिक व्यवस्था के प्रति मूल्यों और निष्ठा के पनपने का आधार है। यही वह साधन है जो व्यक्ति को राजनीतिक मानव बनाता है। इसी के कारण व्यक्ति अपनी अभिरुचि राजनीतिक समाज के प्रति रखने लगता है और निदेशक की भूमिका निभाने को भी तत्पर हो जाता है। राजनीतिक व्यवस्था में मांगों की तीव्रता, मात्रा व प्रकृति का निर्धारक भी राजनीतिक समाजीकरण ही करता है। आज व्यक्ति का प्रत्येक कार्य-व्यवहार राजनीति से प्रभावित होने के कारण राजनीतिक समाजीकरण का ऋणी हो गया है। व्यक्ति को राजनीतिक मानव बनाने के लिए राजनीतिक भर्ती व सहभागिता का नियमन राजनीतिक समाजीकरण ही करता है। राजनीतिक व्यवस्था के पुन:निर्माण हेतु राजनीतिक संस्कृति को शक्तियुक्त बनाने का कार्य भी राजनीतिक समाजीकरण ही करता है अर्थात् राजनीतिक संस्कृति को राजनीतिक व्यवस्था के अनुकूल बनाने का कार्य भी राजनीतिक समाजीकरण ही करता है। राजनीतिक व्यवस्था के पुन: निर्माण में राजनीतिक समाजीकरण के अभिकरणों की ही मदद ली जाती है ताकि बिना बाधा के राजनीतिक व्यवस्था गतिशील बनी रहे। जिस तरह राजनीतिक समाजीकरण राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित करता है, उसी तरह राजनीतिक व्यवस्था राजनीतिक समाजीकरण की प्रक्रिया को भी निश्चित करती है। 

 

राजनीतिक व्यवस्था की प्रकृति राजनीतिक समाजीकरण की मात्रा निर्धारित करती है। जो राज-व्यवस्था जितनी स्थायी होगी, उतनी ही राजनीतिक समाजीकरण के मुख्य अभिकर्ताओं को विशिष्ट बना देगी। लोकतन्त्र में खुलापन रहने के कारण राजनीतिक समाजीकरण के अभिकरण उतने ही अधिक स्वतन्त्र ढंग से कार्य करते हैं, जबकि सर्वाधिकारवादी या निरंकुश शासन-व्यवस्थाओं में राजनीतिक व्यवस्था की प्रकृति ही समाजीकरण की नियामक बन जाती हे। ऐसी व्यवस्थाओं में राजनीतिक समाजीकरण के अभिकरणों को राजनीतिक व्यवस्था की अपेक्षाओं के अनुभव ही सक्रिय होना पड़ता है। सर्वाधिकारवादी समाज राजनीतिक समाजीकरण पर विशेष ढंग से जोर देता है। लेनिन ने लिखा है-”शिक्षण संस्थाओं और युवकों के प्रशिक्षण को क्रांतिकारी ढंग से नए सिरे से ढालने पर ही हम सुनिश्चित कर पाएंगे कि युवा पीढ़ी के प्रयासों के परिणामस्वरूप समाज की पुन:र्रचना होगी जो परम्परागत समाज से भिन्न होगी।” इस प्रकार राजनीतिक समाजीकरण के साधनों को आरोपित करने के प्रयास के कारण ही सर्वसत्ताधिकारी राज-व्यवस्था लोकतन्त्रीय राज-व्यवस्था से भिन्न है। अत: निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि राजनीतिक व्यवस्था भी राजनीतिक समाजीकरण की नियामक होती है।

राजनीतिक समाजीकरण व राजनीतिक संस्कृति में सम्बन्ध

राजनीतिक समाजीकरण व राजनीतिक संस्कृति में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। राजनीतिक समाजीकरण के माध्यम से ही राजनीतिक संस्कृति बाल्यकाल से युवावस्था तक चलती रहती है। राजनीतिक समाजीकरण ही राजनीतिक संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचता है। इससे राजनीतिक संस्कृति में गतिशीलता के साथ-साथ सजीवता भी बनी रहती है। ऑमण्ड और वर्बा ने लिखा है-”राजनीतिक समाजीकरण ही वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा राजनीतिक संस्कृतियों को बनाए रखा जाता है या परिवर्तन किया जाता है।” राजनीतिक समाजीकरण ही राजनीतिक संस्कृति का नियामक होता है। राजनीतिक समाजीकरण के अभिकरण ही व्यक्ति को राजनीतिक संस्कृति में दीक्षित करते हैं। राजनीेतिक समाजीकरण, राजनीतिक संस्कृति को विशेष पहचान देता है। उससे ही राजनीतिक संस्कृति को तत्व और अन्तर्वस्तु प्राप्त होती है और राजनीतिक संस्कृति राजनीतिक व्यवस्था की क्रियात्मकता में निर्णायक भूमिका निभाने में समर्थ हो पाती है। राजनीतिक विकास की तरफ उन्मुख सभी नवोदित राष्ट्र अपने अनुकूल राजनीेतिक समाजीकरण की प्रक्रिया पर बहुत जोर देते हैं। वे संकीर्ण राजनीतिक संस्कृति को सहभागी राजनीतिक संस्कृति के विकास में राजनीतिक समाजीकरण ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। यह राष्ट्र के प्रति निष्ठा तथा विशिष्ट मूल्यों को पनपाने में मदद करता है और राजनीतिक व्यवस्था के प्रति लोगों का लगाव भी बढ़ाता है। यह प्रक्रिया जीवन भर चलती रहती है। इस प्रक्रिया को गति देने में राजनीतिक समाजीकरण के अभिकरण-परिवार, शिक्षण संस्थाएं, स्वैच्छिक समूह, सरकार, राजनीतिक दल व जनसम्पर्क के साधन अहम् भूमिका निभाते हैं। 

 

इसी तरह राजनीतिक संस्कृति की प्रकृति भी राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित करके राजनीतिक समाजीकरण को कुछ न कुछ प्रभावित करने की चेष्टा करती है। राजनीतिक संस्कृति ही राजनीतिक प्रक्रिया को अर्थ व ढांचा प्रदान करती है। राजनीतिक व्यवस्था का ढांचा ही समाजीकरण की मात्रा को निश्चित करता है। पराधीन संस्कृति वाले समाजों में समाजीकरण की प्रक्रिया अधिक सक्रिय नहीं हो पाती है, जबकि विकसित संस्कृति वाले देशों में समाजीकरण को विशेष महत्व दिया जाता है। इसी कारण राजनीतिक संस्कृति का पराधीन रूप सर्वाधिकारवादी देशों में राजनीतिक समाजीकरण की प्रक्रिया पर नियन्त्रण बनाये रखने में सफल रहता है। राजनीतिक संस्कृति लोगों की राजनीतिक व्यवस्था के प्रति मनोवृति व रुचि का प्रतिमान होने के कारण राजनीतिक समाजीकरण की दिशा निर्धारित भी करती है। प्रत्येक राजनीतिक समाज अपनी राजनीतिक संस्कृति के अनुरूप ही राजनीतिक समाजीकरण का नियमन करता है। राजनीतिक संस्कृति और राजनीतिक समाजीकरण के आपसी सम्बन्ध ही राजनीतिक व्यवस्था को नया अर्थ देते हैं। अड़ियल प्रकार की संस्कृति राजनीतिक समाजीकरण के साथ साथ राजनीतिक व्यवस्था को भी गतिहीन बना देती है।

राजनीतिक समाजीकरण की अवधारणा का मूल्यांकन

उपरोक्त विवेचन के बाद कहा जा सकता हैं कि राजनीतिक समाजीकरण की प्रक्रिया राजनीति विज्ञान की नई संकल्पना है जो द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उजागर हुई है। यह राजनीतिक विकास व आधुनिकीकरण को गति देती है और राजनीतिक संस्कृति का अनुरक्षण करती है। व्यक्ति के राजनीतिक व्यवहार को राजनीतिक व्यवस्था की प्रकृति के अनुरूप बनाकर यह राजनीतिक व्यवस्था में स्थायित्व व कार्यकुशलता का गुण भी पैदा करता है। राजनीतिक भर्ती व सहभागिता को क्रियान्वित करके राजनीतिक समाजीकरण ही राजनीतिक विकास व आधुनिकीकरण के लक्ष्य को पूरा करता हैं मनुष्य को राजनीतिक मानव बनाने में राजनीतिक समाजीकरण जो भूमिका अदा करता है, वह कार्य अन्य किसी व्यवस्था द्वारा सम्भव नहीं है। एक सतत् प्रक्रिया के रूप में यह राजनीतिक व्यवहार व राजनीतिक व्यवस्था दोनों का नियामक होता है। इसका राजनीतिक संस्कृति, राजनीतिक विकास, राजनीतिक आधुनिकीकरण व राजनीतिक व्यवहार से गहरा सम्बन्ध रहता है। अपने विभिन्न अभिकरणों के माध्यम से यह नियामक बना रहता है। अत: राजनीतिक समाजीकरण की संकल्पना राजनीतिक विज्ञान में काफी महत्व रखती है। इसके आगमन से राजनीति विज्ञान को नई दिशा मिली है।

 

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