महिला सशक्तिकरण
- महिला सशक्तिकरण का विस्तृत तात्पर्य है – महिलाओं को पुरुष के बराबर वैधानिक, राजनीतिक, शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में उनके परिवार, समुदाय, समाज एवं राष्ट्र की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में निर्णय लेने की स्वयतता से है। भारत में महिला सशक्तिकरण का प्रारंभिक उद्देश्य महिलाओं की सामाजिक एवं आर्थिक दशा को सुधारना है।
- महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए उन पहलुओं को मजबूत बनाने की आवश्यकता है, जिनका सीधा संबंध स्वावलम्बन और उत्थान से है। शैक्षणिक, सामाजिक, आर्थिक ओर राजनीतिक क्षेत्र इनमें से प्रमुख है।
- महिला की प्रगति पूरे घर परिवार समाज एवं राष्ट्र की प्रगति मानी जाती है। महिलाओं के प्रति होते तमाम अत्याचारों, शोषण की समाप्ति तथा दुराग्रही प्रकृतियों की समाप्ति को लेकर कृत संकल्पना दोहराने हेतु महिला सशक्तिकरण की रूप रेखा रखी गयी। ताकि नई सदी में हम एक ऐसे समाज और राष्ट्र के निर्माण पर अपना ध्यान केंद्रित कर सकें जहाँ महिलाओं को अपनी अभिव्यक्ति की वास्तविक स्वतंत्रता हो।
- इस संकल्पना के साथ ही महात्मा गाँधी के कथन भी पूर्णत: साकार हों कि ‘‘जब तक भारत की महिलाएँ सार्वजनिक जीवन में हिस्सा नहीं लेंगी, देश तरक्की नहीं कर सकता।’’ महिला सशक्तिकरण की अवधारणा मूलतः महिलाओं की कमजोर स्थिति में सुधार के परिणामस्वरूप की उत्पन्न हुए हैं। महिलाएँ जो आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करती हैं, करीब-करीब सम्पूर्ण विश्व में भेद-भाव, अन्याय एवं असमानता के चक्रव्यूह में से सदियों से ग्रसित रही हैं।(39) महिलाओं के सशक्तिकरण की स्थिति में कुछ भी नया नहीं है; बल्कि इसमें नई चीज यह है कि महिलाएँ अपनी कमजोर, भेदभाव एवं असमानता की स्थिति के विरूद्ध अब आवाज उठाने लगीं हैं। आज यह स्वीकार किया जाने लगा है कि मानव राष्ट्र एवं विश्व का वास्तविक विकास महिलाओं के सशक्तिकरण के माध्यम से ही संभव हो सकता है। अमर्त्य सेन ने इस बात पर जोर दिया है कि आज विश्व के विभिन्न देशों का विकास प्रक्रिया में महिला सशक्तिकरण निश्चित रूप से एक महत्वपूर्ण मुद्दा है।
- महिला सशक्तिकरण शब्द का राजनैतिक अध्ययन में अपना एक विशेष अर्थ है। ‘सशक्तिकरण’ एवं राजनैतिक सशक्तिकरण शब्द आज सरकारी एवं गैर-सरकारी संगठनों, विभिन्न विकास एजेंसियों, यूनाईटेड नेशन्स एवं अन्य अन्तर्राष्ट्रीय एजेंसियों, महिला समस्याओं के अध्ययनों आदि के सन्दर्भ में सशक्तिकरण शब्द वृहत रूप से व्यवहार हो रहा है।
- सशक्तिकरण के अभिप्राय का मुख्य केन्द्र, राजनैतिक सत्ता की भागीदारी, वितरण एवं पुनर्वितरण की गतिशीलता में अवस्थित है, जिसके पास एक वैधता का आधार होता है। सत्ता दूसरों पर नियंत्रण रखने हेतु व्यक्ति की क्षमता है ओर इस प्रकार जब नियंत्रण की यह क्षमता वैधता प्राप्त कर लेती है, तो वह प्राधिकार बन जाती है। दरअसल सशक्तिकरण की तर्कसंगति में प्राधिकार की गत्यात्मकता शामिल है। जब हम प्राधिकार अथवा उस अर्थ में वैधता प्राप्त सत्ता के वितरण अथवा पुनर्वितरण प्रक्रिया की बातें करते हैं तो स्वभाविक रूप से न केवल उस प्राधिकार हैतु वेधता के आधार पर; बल्कि उन सामाजिक श्रेणी-विभाजनों पर भी सवाल करते हैं, जिनके माध्यम से सत्ता संबंध कार्यरूप में व्यवहृत होते हैं। इसी तर्क के आधार पर सत्ताहीनता को भी प्रदत्त सामाजिक व्यवस्था में वैधता प्रदान कर दी गई है, ताकि सत्ता-वितरण की सशक्त प्रक्रिया बनी रहै।
- सशक्तिकरण न तो ओपचारिक ज्ञान मात्र है ओर न काल्पनिक जादुई छड़ी, बल्कि यह किसी विशिष्ट स्थान तथा कालखंड में घटित होने वाली मानवीय एवं सामाजिक प्रक्रिया है, जहाँ किसी शक्तिहीन, पीड़ित या शोषित को भिन्न-भिन्न तरीके से शक्ति-सम्पन्न किया जाता है, जिससे वह मानव जीवन के चरमोत्कर्ष को वैधिक ओर नैतिक रूप में प्राप्त कर सके।
- अत: सशक्तिकरण एक बहु-आयामी एवं बहुस्तरीय अवधारणा है। यह कोई अकेली चीज नहीं है; बल्कि यह कई कारकों जेसे-भोतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक आदि की क्रिया ओर अंत: क्रिया है। इसी संदर्भ में हम महिला-सशक्तिकरण को भी देखते हैं। महिला सशक्तिकरण को हम एक प्रक्रिया के रूप में देखते हैं, जिनमें महिलाएँ भौतिक, मानवीय एवं बोद्धिक-जैसे ज्ञान, सूचना, विचार ओर वित्तीय स्रोतों जैसे धन अथवा धन तक पहुँच एवं घर, परिवार, समुदाय, समाज एवं राष्ट्र आदि के संदर्भ में निर्णय लेने के सम्बन्ध में अधिक सहभागिता कर सकती हैं।
- ‘महिला-सशक्तिकरण’ शब्द सामाजिक न्याय एवं समानता प्राप्ति हेतु महिलाओं के संघर्ष से जुड़ी हुई हैं। महिला-सशक्तिकरण का मतलब यह नहीं है कि उन्हैं दूसरों पर प्रभुत्व जमाने की शक्ति प्रदान करना तथा अपनी श्रेष्ठता को स्थापित करने हैतु शक्ति सम्पन्न बनाना। महिलाओं के लिए सशक्तिकरण का मतलब यह है कि उसे ऐसी शक्ति प्राप्त हो, जिससे उसके महत्व को स्वीकार किया जा सके तथा उसे समान नागरिक एवं समान अधिकार की स्थिति तक ला सके। उनके लिए शक्ति का मतलब यह है कि न केवल घर के अंदर; बल्कि समाज के प्रत्येक स्तर एवं पक्ष में उनकी भागीदारी सुनिश्चित हो सके। उनकी शक्ति के मूल्य एवं भागीदारी को समाज द्वारा उचित मान्यता भी प्राप्त हो सके।
- महिलाओं की सशक्तिकरण होने से उनमें अपनी क्षमताओं एवं योग्यताओं को पहचानने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है, ताकि वे एक पूर्ण नागरिक के रूप में अपने देश एवं मानवता की सेवा में सहायता पहुँचा सकें। अपनी क्षमताओं के अनुरूप वे अपने परिवार, समुदाय एवं समाज के प्रत्येक स्तर पर अपनी एक सकारात्मक छवि का निर्माण कर सकें ओर अपने अंदर आत्मविश्वास को भी उत्पन्न करें। उनमें क्षमताओं का इतना विकास हो सके कि वे किसी भी समस्या का स्वयं समाधान कर सकें।
- जब महिलाएँ अपने प्रति होने वाले सामाजिक-मनोवैज्ञानिक-सांस्कृतिक अन्याय, लिंग-भेद, असमानता, सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक तथा राजनीतिक शक्तियों के नकारात्मक प्रभाव के विरूद्ध जागरूक हो जाए तो यह समझा जा सकता है कि उनका सशक्तिकरण हो रहा है। वास्तव में, इसकी शुरूआत तब होती है, जब वे अपनी सकारात्मक स्वच्छ छवि, अधिकार, कर्तव्य ओर अपनी क्षमताओं के प्रति पूरी जागरूक हो जाती है। अत: महिला सशक्तिकरण की सार्थकता यह है कि, उन्हैं इतना योग्य बनाया जाए कि वे अपनी क्षमताओं एवं योग्यताओं को पहचान सकें और इसका उपयोग अपने जीवन में कर सकें। वे अपने जीवन में विचारों, उसकी अभिव्यक्ति एवं कार्यों की स्वतंत्रता का उपयोग कर सकें। इतना ही नहीं, उन्हें केवल अपनी योग्यता को ही नहीं पहचानना है, बल्कि इसके लिए उन्हैं अवसर, सुविधा, बाहरी ओर आंतरिक वातावरण पर भी ध्यान देना है, ताकि वे अपनी क्षमताओं एवं आत्मसम्मान की समृद्धि भी कर सकें। अपने प्रति होने वाले अन्याय के विरूद्ध संघर्ष करने की क्षमता भी विकसित हो सके।
- लैंगिक-न्याय, लैंगिक-समानता, महिला-अधिकार एवं महिला-सशक्तिकरण आपस में एक दूसरे से जुड़े हुए मुद्दे हैं। इनमें आपसी क्रिया-प्रतिक्रिया होते रहते हैं। जब लैंगिक न्याय एवं समानता तथा महिला-अधिकार को मानवाधिकार के अन्तर्गत स्वीकार किया जाता है तभी यह कहा जा सकता है कि महिला-सशक्तिकरण के अनुकूल स्थिति उत्पन्न हुई है तथा लैंगिक-समानता एवं न्याय को तभी प्राप्त किया जा सकता है।
- महिला सशक्तिकरण को लिंग-समानता से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। महिला-सशक्तिकरण से लिंग समानता की स्थिति उत्पन्न होती है एवं लिंग-समानता की स्थिति से महिला-सशक्तिकरण की प्रक्रिया आगे बढ़ती है। समान एवं स्थायी मानवीय विकास तभी संभव हो सकता है, जब समाज के हर स्तर पर स्त्रियों एवं पुरुषों के बीच समानता की स्थिति आ जाए। लिंग-समानता का मतलब संसाधनों तक पहुँच के समान अवसरों, समानता से विश्वास के साथ मूल्य-व्यवस्था का निर्माण, निर्णय निर्धारण करने में पुरुष के समान सहभागिता तथा संसाधनों पर समान नियंत्रण से तात्पर्य लगाया जाता है।
- महिला सशक्तिकरण का अर्थ है ‘शक्तिसम्पन्न’ करना अर्थात् जो पहले से शक्तिहीन है, या शक्तिहीन बनाया गया है या शक्तिहीन माना गया है या जिसे शक्तिहीन रूप में देखा जाता है उसे ऐसी शक्तियाँ प्रदान की जाएँ जो उसके बहु-आयामी व्यक्तित्व के सम्मान हेतु, पुष्पित-पल्लवित और समृद्ध करने हैतु आवश्यक है। इस सम्मान ओर समृद्धि की कोई सीमा नहीं हैं ओर विभिन्न समाज में यह भिन्न-भिन्न स्वरूप व्यापकता, गहराई या अन्तर्वस्तु में परिभाषित हो सकती है। किन्तु एक मापदण्ड यह तो हो ही सकता है कि यह सम्मान एवं समृद्धि पुरुषों से किसी भी अर्थ में कम न हो।
- सशक्तिकरण किसी भी र्पकार के भेदभाव विषमता, स्तरण, अधीनता, हिंसा, अश्पृश्यता, वंचना तथा किसी भी आभाव को मिटाने वाली वह प्रक्रिया है जो अन्तत: सकारात्मक शक्ति का उपयोग करने की क्षमता पेदा करती है। महिलाओं के संदर्भ में सशक्तिकरण का अर्थ है संसाधनों पर उनका नियंत्रण तथा निर्णय का अधिकार।
वस्तुत: सशक्तिकरण के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए आवश्यक यह है कि महिलाओं की सैद्धान्तिक ओर सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में उनकी दयनीय स्थिति को समझना महिलाओं के दोयम दर्जे के लिए सैद्धान्तिक ओर सांस्कृतिक विचारधारा जिम्मेदार है। इन विचारधारों के कारण शक्ति संतुलन पुरूषों के पक्ष में रहा है। इसलिए सशक्तिकरण का तात्पर्य सिर्फ संसाधनों पर महिलाओं के अधिकार स्थापित होने से नहीं है इसका मूल तात्पर्य है समाज में मौजूद पुरुषों के अधिकार को निरापद बनाने वाली विचारधारा को चुनौती देना ओर समाप्त करना। इसके अतिरिक्त संसाधनों पर अधिकार, निर्णय की स्वतंत्रता, राजनीतिक प्रक्रिया में भागीदारी, स्वंय में विश्वास, इच्छा की अभिव्यक्ति अवसर की समता, आदि तत्व भी सशक्तिकरण की अवधारणा के परिधि में आता है।
महिला-सशक्तिकरण’ शब्द सामाजिक न्याय ओर समानता प्राप्ति हैतु महिलाओं के संघर्ष से जुड़ी हुई है। वास्तविक सशक्तिकरण विचारों जो व्यक्ति की सोच, उम्मीद, विश्वास, मूल्य एवं मनोवृत्तियों में विद्यामान है को नियंत्रित करता है। यह नियंत्रण महिलाओं के शक्ति को निर्धारित कर स्रोतों पर उनकी पकड़ को मजबूत बनाता है, अर्थात् सशक्तिकरण का अर्थ शक्तिहीनता से शक्ति समान्नता की ओर जाना है। यह महिलाओं में शक्ति की वृद्धि करता है तथा उनमें एक सकारात्मक सोच का निर्माण करता है।
भारत में महिला सशक्तिकरण से आशय प्राथमिक रूप से महिलाओं की सामाजिक ओर आर्थिक दशा में सुधार लाना है। यहाँ सशक्तिकरण के विभिन्न आयामों पर भी दृष्टिपात करना उचित होगा। उल्लेखनीय है कि शक्ति कोई वस्तु नहीं है जिसका आदान-प्रदान किया जा सकता है। इसे बाहर से थोपा नहीं जा सकता है। शक्ति वस्तुत: एक आंतरिक ऊर्जा है। जिसे प्राप्त किया जा सकता है। पुन: यह एक प्रक्रिया है। जिसे एक प्रक्रिया के रूप में उत्तरोत्तर ग्रहण किया जा सकता है। साथ ही यह कोई एकल परिघटना नहीं है बल्कि एक संबंध श्रृंखला है। इसीलिए सशक्तिकरण की सार्थकता के लिए आवश्यक है कि इसे मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्वीकार करना इस दृष्टिकोण से महिला सशक्तिकरण के विभिन्न आयाम है –
महिला सशक्तिकरण के आयाम
- आर्थिक सशक्तिकरण
- सामाजिक सशक्तिकरण
- राजनैतिक सशक्तिकरण
- धार्मिक सशक्तिकरण
1. आर्थिक सशक्तिकरण –
कार्ल माक्र्स ने कहा है कि :- ‘‘जिसके पास आर्थिक गतिविधियों पर नियंत्रण की ज्यादा शक्ति होगी, वह शक्तिशाली होगा।’’ तथा मैब्सबेवर ने ‘मार्केट वेल्यु’ की बात तथा शक्ति, राजनीति सत्ता के आधार पर वर्चस्व की बात को कहा। महिलाओं की शक्तिहीनता का मुख्य कारण उनकी आर्थिक पराधीनता है।(51) महिला उत्पीड़न का एक प्रमुख कारण महिलाओं की पुरूषों पर आर्थिक निर्भरता है।(52) चूंकि घरेलु महिलाएं जो काम करती हैं, उसके लिए उन्हें कोई अलग से मजदूरी नहीं दी जाती है। उसके परिश्रम को मूल्यवान नहीं समझा जाता है, इसलिए मजदूरी लाने वाले पुरुष के प्रति वह स्वत: अधीनता स्वीकार कर लेती है। यही आर्थिक निर्भरता स्त्री के ‘स्व’ को परजीवी बना देती है। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि महिलाओ को हमेशा से धन, धरती ओर सत्ता से वंचित रखने के कारण इस वर्ग की आर्थिक ओर सामाजिक स्थिति अत्यन्त दुर्बल रही है, साथ ही कम वेतन, श्रम विभाजन में निम्नतम स्थान भी आर्थिक निर्योग्यता को सम्पुष्ट करती है।
इन अर्थों में महिलाओं का आर्थिक पक्ष सशक्त होना आवश्यक है। महिलाओं का आर्थिक रूप से सुदृढ़ होना, महिला सशक्तिकरण का आधारभूत तथ्य है क्योंकि पुरुषों का महिलाओं पर वर्चस्व होने में महिलाओं की आर्थिक आश्रिता की प्रमुख भूमिका होती है।(53) इसलिए आर्थिक रूप से महिलाओं को संबल बनाने की सबसे बड़ी आवश्यकता है। इसके लिए उन्हें शिक्षा एवं तकनीकी कुशलता से युक्त करने की आवश्यकता है ताकि आर्थिक पारिश्रमिक वाले कार्यों में उनकी भागीदारी सुनिश्चित हो सके।
महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण का तात्पर्य उनकी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भरता एवं सशक्त क्षमता से है। यह तभी संभव है जब नारी अपना श्रम उत्पादक कार्य में दे, चाहे प्राथमिक क्षेत्र, द्वितीयक क्षेत्र या तृतीयक क्षेत्र हो, अपना उचित पारिश्रमिक हक ओर समानता से प्राप्त करे। महिलाओ के आर्थिक सशक्तिकरण के लिए उन्है जमीन-जायदाद, बैंक-खाता, बचत, निवेश में निर्णय लेने, सम्पत्ति पर समान अधिकार इत्यादि होना ही चाहिए।
आर्थिक सशक्तिकरण (54) जमीन एवं सम्मत्ति में शिक्षा और उत्पादन में समान अधिकार तकनीकी प्रशिक्षण सक्रिय भूमिका महिलाओं के नियंत्रण में आय आय में वृद्धि महिलाओं के निर्णय-बचत और खर्च में महिलाओं के निर्णय – उपभोग ओर निवेश में आर्थिक गतिविधियों में नियंत्रण स्व-मजदूरी, वेतन, कार्य के शर्त्तों का अधिकार सम्पूर्ण विकास
2. सामाजिक सशक्तिकरण –
महिलाओं के दोयम दर्जे की हैसियत को निर्धारित करने में परिवार एवं अन्य सामाजिक प्रथाओं में परिवार एवं अन्य सामाजिक प्रथाओं की भूमिका सर्वोपरि रही है। पितृ सत्तावादी मूल्यों के विकास एवं संरक्षण में समाज की ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है। स्त्रियों की पराधीनता की कथा यहीं से प्रारम्भ होती है। इसलिये महिलाओं का सामाजिक सशक्तिकरण सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, ताकि समाज में उनकी गरिमा बहाल हो।
प्रत्येक समाज का अपना रीति-रिवाज, संस्कृति एवं जीवन शेली होती है, परन्तु एक बात प्राय: समानता लिए हुए है कि हर समाज में स्त्रियों की दशा निम्न स्थिति में है। उन्हैं धर्म, संस्कार, रीतियों के नाम पर अनेकानेक बंधनों में जकड़ दिया गया है जिसे स्त्री भी अपनी नियति मान चुकी है। इसके पीछे मूल कारण पुरुष प्रधान या पितृप्रधान समाज है जो सदियों से ओरतों को हांकने का काम करते आ रहा है। वह ओरतों को अपनी सम्पत्ति समझता है और उस पर अपना अधिकार जताते रहा है। परिवार समाज का सबसे छोटा रूप है। यहीं से भेदभाव शुरु होता है ओर सामाजिक पृष्टभूमि में यह विकराल रूप लेता चला गया। जेसे बेटा-बेटी मेुंर्क या कहैं लिंग भेद। पुत्री का जन्म-मरण का निणर्य, रहन-सहन मे भेद, शिक्षा-स्वतंत्रता में भेद, कार्य का विभाजन, रीतियों और धर्म के नाम पर अनेक बंधनों को थोपना ओर इससे स्त्री की स्वतंत्र अस्तित्व कहीं दब गया है।
अत: आज समानता एवं स्वत्रंतता के मानवीय अधिकारों पर जिस पर प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार है, के तर्ज पर सामाजिक रूप से महिलाओं के सशक्तिकरण की आवश्यकता है। यह तभी संभव है जब प्रत्येक समाज में नारी को पुरुष की सहगामी मान कर उसे वह सब अधिकार समानता के साथ दिया जाय जिसकी वह अधिकारिणी रही है। उन पर कोई बंधन न रहै और समानता का व्यवहार किया जाय।
3. राजनीतिक सशक्तिकरण –
भारत में राजनीति परिवर्त्तन का महत्वपूर्ण माध्यम है। इसलिए राजनीतिक प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी एक ऐसे वातावरण सृजित करने में सफल हो सकती है जहाँ महिलाओं के बुनियादी सवालों पर विमर्श किया जा सकता है। राजनीतिक भागीदारी एक उत्प्रेरक भूमिका निभा सकती है। इनकी राजनीतिक भागीदारी से महिलाओं से जुड़े सवाल को राष्ट्रीय नीति में केन्द्रीय स्थान मिलना आसान हो जाएगा।
महिलाओं की शक्तिहीनता का एक मुख्य कारण यह भी है कि राजनीतिक परिदृश्य पर उनकी अत्यन्त सीमित प्रतिनिधित्व होना।(56) उनमें राजनीतिक चेतना की कमी होती है। उनका अपना कोई अलग संगठन या दल नहीं होता। तथा मुख्य धारा के राजनैतिक दलों में उनका खास महत्व नहीं होता। राष्ट्रीय और प्रान्तीय विद्यायिका द्वारा बनायी गयी विधियों ज्यादातर एकांगी और स्त्री विरोधी होती है तथा सामाजिक परम्परा और रीति रिवाज के आधार पर ही राजनैतिक नियमावली बनती है।
महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण से तात्पर्य उन्हैं देश की राजनीति में सशक्त भूमि मिले। उन्हैं वे सभी अधिकार और शक्ति मिले जिससे कि वे देश की राजनीति को चलाने में अहम भूमिका निभा सके। महिलाओं के मुद्दे, निर्णय विचार, दृष्टिकोण को देश की राजनीति में, कानून व्यवस्था में उचित जगह मिले। महिलाओं में राजनीतिक जागृति उत्पन्न हो उन्हैं शासन व्यवस्था में भागीदारी मिले इस हैतु अनेक आरक्षण एवं कानूनी निर्णय कड़ाई से लागू करने होंगे।
पंचायती राज व्यवस्था के त्रिस्तरीय व्यवस्था ने महिलाओं में राजनीतिक जागृति लाने का काम किया है। बिहार में 50 प्रतिशत महिलाऐं पंचायत मुखिया हैं यह एक सराहनीय कदम है। परन्तु लोक सभा ओर विधान सभाओं में अभी भी बहुत कम प्रतिशत महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित हो पायी है। 33 प्रतिशत आरक्षण का मुद्दा अभी भी लटका पड़ा है।
4. धार्मिक सशक्तिकरण –
धर्म ने महिलाओं की गोण सामाजिक भूमिका में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। धार्मिक कर्मकांडों एवं धार्मिक नैतिकताओं ने उन्हैं हाशिये पर पहुँचा दिया। इसलिए इस बात की भी महत्ती आवश्यकता है कि महिला धर्म के बाहरी स्वरूप एवं कर्मकांड के आडम्बर की वास्तविकता को समझे। उसे चुनोती दे एवं धर्म के आंतरिक मर्म को अंगीकार करे।(58) यह सर्वविदित है कि प्रत्येक धर्म में धार्मिक रीतियों एवं क्रियाओं का संचालन प्राय: पुरूष ही करते है। चाहै वह हिन्दु धर्म हो, सिख धर्म हो, मुस्लिम धर्म, ईसाई धर्म, बौद्ध धर्म या जैन धर्म प्राय: धर्म के ठेकेदार पुरूष ही है। ऐसा क्यों? यह एक विवादित प्रश्न है। खेर कुछ स्त्रियाँ नन ओर भिक्षुवियाँ रहती है परन्तु इनका अधिकार क्षेत्र बहुत विस्तृत न होकर सीमित ही है। धर्म के मुख्य कर्मकाण्डों में पुरूषों को ही अधिकार मिले हैं।
ऐसे में धर्म के प्रति स्त्रियों के क्या कर्त्तव्य हैं क्या होने चाहिए इन सब का निर्णय कोन करें? जरूरत यह है कि यह स्त्रियों के हक में हो इस हैतु धर्म की किताबों के गूढ़ रहस्यों को जानने समझने एवं साकारात्मक निर्णय की जरूरत हैं क्योंकि प्रत्येक धर्म समानता एवं नैतिकता पर ही टिका है।
इस प्रकार महिला सशक्तिकरण एक वृहत् अवधारणा है ओर इसे सम्पूर्णता में एक प्रक्रिया के तहत ही ग्रहण किया जा सकता हैं सरकार की जागरूकता इस दिशा में बढ़ी है ओर मूर्त्त रूप देने की पुरजोर कोशिश भी की जा रही है। सरकार विशेषकर शिक्षा के प्रसार एवं आर्थिक अवसरों के सृजन के साथ महिला सशक्तिकरण की अवधारणा को सफल करने का प्रयास कर रही है।
महिला सशक्तिकरण कार्यक्रम
- महिलाओं को रोजगार और प्रशिक्षण के लिए सहायता देने का कार्यक्रम (स्टेप)-वर्ष 1987 में केन्द्रीय क्षेत्र की योजना के रूप में शुरू किया गया। इसका उद्देश्य इस प्रकार है- (1) परम्परागत क्षेत्रों में महिलाओं के कौशल में सुधार तथा परियोजना आधार पर रोजगार उपलब्ध करके, महिलाओं की स्थिति में महत्त्वपूर्ण सुधार करना है। (2) इसके लिए उन्हैं उपयुक्त समूहों में संगठित किया जाता है, विपणन सम्बन्धी सम्पर्क कायम करने के लिए व्यवस्थित किया जाता है। सेवाओं में मदद दी जाती है ओर ऋण उपलब्ध कराया जाता है। (3) इस योजना में रोजगार के आठ परम्परागत क्षेत्र शामिल हैं जो इस प्रकार हैं- कृषि, पशुपालन, डेयरी व्यवसाय, मत्स्य पालन, हथकरघा, हस्तशिल्प, खादी और ग्राम उद्योग और रेशम कीट पालन आदि। (4) यह योजना सार्वजनिक क्षेत्र के संगठनों, राज्य निगमों, जिला ग्राम्य विकास अधिकरणों, सहकारिताओं, परिसंघों ओर ऐसी पंजीकृत स्वैच्छिक संगठनों के माध्यम से लागू की जा रही हैं जो कम-से-कम तीन साल से अस्तित्व में हैं।
2. स्वयंसिद्धा–स्वयंसिद्धा महिलाओं के विकास ओर सशक्तिकरण की समन्वित योजना है। इस योजना की दीर्घकालीन उद्देश्य महिलाओं का चहुँमुखी विकास, विशेष तोर पर उनका सामाजिक और आर्थिक विकास करना है। इसके लिए सभी वर्तमान क्षेत्रीय कार्यक्रमों में समन्वय और लगातार चलने वाली प्रक्रिया के जरिये संसाधनों तक उनकी सीधी पहुँच तथा नियन्त्रण सुनिश्चित करना है। योजना का उद्देश्य इस प्रकार है –
- स्वयं सहायता समूहों का गठन।
- लघु ऋण योजनाओं तक महिलाओं की पहुँच बनाना।
- ग्रामीण महिलाओं में बचत की आदत डालना और आर्थिक मुद्दों के प्रति जागरूकता पैदा करना।
- महिला ओर बाल-विकास मंत्रालय और अन्य विभागों की सेवाओं की तरफ अभिमुख करना।
- महिला सामाख्या कार्यक्रम–महिला सामाख्या भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा चलाया जा रहा एक कार्यक्रम है, जिसकी अवधारणा 1986 की नयी शिक्षा प्रणाली से उभरी है। कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य कमजोर, वंचित, निर्धन वर्गों की महिलाओं व बालिकाओं की, शिक्षा तक पहुँच सुनिश्चित करना है। कार्यक्रम के अन्तर्गत शिक्षा को व्यापक अर्थों में देखते हुए व्यावहारिक शिक्षा का समावेश किया गया है। इसमें नारीवादी सोच का विकास, स्वयं के मुद्दों तथा सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर समझ विकसित करना तथा सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी व हस्तक्षेप को प्रमुखता से शामिल किया गया है।
महिला सामाख्या शैक्षिक पहुँच एवं उपलब्धि के क्षेत्र में लैंगिक अन्तराल का निराकरण करती है। इसका उद्देश्य ग्रामीण महिलाओं, विशेषकर सामाजिक, आर्थिक रूप से पिछड़ी एवं वंचित महिलाओं को इस योग्य बनाना है कि वे अलग-अलग पड़ने और आत्मविश्वास की कमी जैसी समस्याओं से जूझ सकें ओर दमनकारी सामाजिक रीति-रिवाज के विरूद्ध खड़े होकर अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष कर सकें। वर्तमान में महिला सामाख्या कार्यक्रम देश के ग्यारह (11) राज्यों में संचालित किया जा रहा है।
4. उज्ज्वला–अवैध व्यापार को रोकने के लिए 4 दिसम्बर, 2007 से उज्ज्वला नाम से एक व्यापक योजना शुरू की गयी। इस योजना के पाँच घटक हैं- रोकथाम, रिहाई, पुनर्वास, पुन: एकीकरण ओर स्वदेश भेजना। इस योजना के तहत 2008-09 के लिए 10 करोड़ रूपये आबंटित किये गये हैं। उज्ज्वला के पाच घटक इस प्रकार हैं-
- रोकथाम–सामुदायिक निगरानी दल एवं किशोर दल बनाना, पुलिस, सामुदायिक नेताओं को जागरूक करना आदि।
- रिहाई–शोषण किये जाने वाले स्थान से सुरक्षित रिहाई।
- पुनर्वास–चिकित्सीय सहायता, कानूनी सहायता, व्यावसायिक प्रशिक्षण तथा आमदनी वाले कामों की भी व्यवस्था हो।
- पुन: एकीकरण–पीड़ित की इच्छानुसार उसे परिवार समुदाय में एकीकृत करना।
- स्वदेश–सीमा पार चले गये पीड़ितों की सुरक्षित स्वदेश वापसी।
- स्वाधार–यह योजना केन्द्र सरकार द्वारा 2 जुलाई, 2001 से आरम्भ की गयी। इसका उद्देश्य गम्भीर परिस्थितियों में स्थित महिलाओं को समग्र व समन्वित सहायता प्रदान करना है। परिवार से अलग कर दी गयी महिलाएँ, जेल से मुक्त की गयी महिलाएँ, प्राकृतिक आपदा से पीड़ित महिलाएँ, वेश्यालयों से मुक्त करायी गयी महिलाएँ/लड़किया ँ आदि इस योजना की पात्र हैं। इस योजना में भोजन, आवास, आश्रय, स्वास्थ्य सेवा, कानूनी मदद ओर सामाजिक व आर्थिक पुनर्वास की सुविधाए ँ उपलब्ध करायी जाती है। यह योजना केन्द्र व राज्य सरकारों के सम्मिलित संसाधनों से पंचायतों एवं स्वयं सहायता समूहों तथा गैर-सरकारी संगठनों के माध्यम से चलायी जा रही हैं।
6. स्वावलम्बन–इस कार्यक्रम का उद्देश्य महिलाओं को परम्परागत तथा गैर-परम्परागत व्यवसायों में प्रशिक्षण और कौशल उपलब्ध कराकर उन्हैं स्थायी आधार पर रोजगार या स्वरोजगार प्राप्त करने में सहायता देना है। इस योजना के अधीन लक्ष्य-समूहों में निर्धन तथा जरूरतमन्द तथा समाज के दुर्बल वर्गों की महिलाएँ शामिल की जाती हैं। इस योजना के अन्तर्गत महिला विकास निगमों, सार्वजनिक क्षेत्र के निगमों, स्वायत्त संगठनों, न्यासों ओर पंजीकृत स्वेच्छिक संगठनों को वित्तीय सहायता दी जाती है। प्रशिक्षण दिये जाने वाले व्यवसायों में शामिल हैं-कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग, इलेक्ट्राूनिक्स, घड़ीसाज, रेडियो ओर टेलिविजन की मरम्मत, वस्त्रों की सिलाई, हैंडलूम का कपड़ा बुनना, सामुदायिक स्वास्थ्य-कार्य तथा कशीदाकारी।
- स्वशक्ति–यह योजना 1998 से शुरू की गयी थी। केन्द्र सरकार द्वारा प्रायोजित विश्व बैंक एवं अन्तर्राष्ट ्रीय कृषि विकास कोष के सहयोग से यह योजना बिहार, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ तथा उत्तराखण्ड में महिला विकास निगमों तथा स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से संचालित की जा रही है। इस योजना के अन्तर्गत अब तक 57 जिलों के 1,210 गा ँवों ओर शहरों, बस्तियों में 17 हजार से अधिक स्वयं सहायता समूहों का गठन किया जा चुका है। महिलाओं में आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास बढ़ाने तथा स्वरोजगार की दिशा में उन्हैं प्रेरित करने में स्वयं सहायता समूह इस योजना के अन्तर्गत काफी महत्तवपूर्ण भूमिका निभा रहै हैं।
8. जननी सुरक्षा योजना (2005) – दक्ष जन्म परिचारको द्वारा किये जाने वाले संस्थानिक जनन को प्रोत्साहित करके मातृत्वदर को नीचे लाना।
9. बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006
10. 1997 में बालिका सम ृद्धि योजना –जन्म के समय बच्चियों को नकद पैसा ओर प्रतिवर्ष स्कूल में सफल होने के साथ 10वीं कक्षा तक दिया जाता है।
11. धन लक्ष्मी योजना –यह 3 मार्च 2008 को शुरू हुई बच्चियों के लिए सशर्त धन ओर बीमा सुविधा उपलब्ध करायी जाती हैं।
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इंदिरा गांधी मातृत्व सहयोग योजना2010 को प्रारंभ किया गया। इसके तहत गर्भवती महिलाओं को ओर दूध पिलाने वाली माताओं को तीन किस्तों में कुल 400 रू की नकद राशि उपलब्ध करायी जाती है।
13. सबला योजना –केन्द्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा राजीव गांधी किशोरी सशक्तिकरण योजना सबला 19 नवम्बर 2010 को इंदिरा गाधी के जन्म दिवस पर प्रारंभ किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य आत्मविश्वास एवं सशक्तिकरण हैतु किशोरियों को सक्षम बनाना। उनके स्वस्थ, पोषण, कौशल उन्नयन में जागरूक करना पढ़ाई छोड़ चुकी किशोरियों को पुन: ओपचारिक, अनौपचारिक शिक्षा की मुख्यधारा में जोड़ना इत्यादि।
14. बेटी बचाओं, बेटी पढ़ाओं अभियान – 22 जनवरी 2015 को प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा शुरू की गई। मूलत: अल्प बाल लिंग अनुपात की समस्या को दूर करने, बच्चियों के समुचित विकास, समानता, पढ़ाई इत्यादि से जुड़ा है।
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सुकन्या समृद्धि योजना –22 जनवरी 2015 को ही नरेन्द्र मोदी द्वारा राष्ट्रीय बेटी बचाओं बेटी पढ़ाओं अभियान के तहत बेटियों की उच्च शिक्षा और उनके विवाह के लिए सुकन्या समृद्धि योजना शुरू की गई।
16. किशोरी शक्ति योजना –यह महिला ओर बाल विकास मंत्रालय द्वारा आत्म विकास, पोषण, स्वास्थ्य, देखभाल, साक्षरता, अंकीय ज्ञान, व्यावसायिक कोशल इत्यादि को ध्यान में रखकर शुरू किया गया।
17. एकीकृत बाल विकास सेवा स्कीम – इसका उद्देश्य 6 वर्ष से कम आयु के बच्चों का समग्र विकास और गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं के लिए उचित पोषण।
- महिला सशक्तिकरण हैतु राष्ट्रीय मिशन –विभिन्न मंत्रालयों की नीतियों कार्यक्रमों ओर स्कीमों के बेहतर अभिसरण के माध्यम से महिलाओं के समग्र सशक्तिकरण की इस पहल को वर्ष 2010-11 में प्रचलन में लाया गया। इसके तहत देश भर में महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए की गई पहलों को सुर्पवाही बनाने के लिए मुख्यमंत्रियों की अध्यक्षता में राज्य मिशन प्राधिकरणों ओर महिलाओं के लिए राज्य संसाधन केन्द्रों सहित राज्य स्तर पर संस्थागत ढाचे स्थापित किये गए हैं
राष्ट्रीय महिला सशक्तिकरण मिशन के मुख्य कार्य
- महिलाओं का आर्थिक सशक्तिकरण।
- महिलाओं पर केंद्रित सरकारी स्कीमों का संकेन्द्रन।
- सुनिश्चित करना कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा प्रगामी रूप से समाप्त हो जाती है।
- महिलाओं के स्वस्थ ओर शिक्षा पर विशेष बल सहित सामाजिक सशक्तिकरण सुनिश्चित करना।
- भागीदार मंत्रालयों, संस्थानों तथा संगठनों के कार्यक्रमों, नीतियों, संस्थागत व्यवस्थाओं ओर प्रक्रियाओं को जेंडर की दृष्टि से मुख्य धारा में लाने का निरीक्षण
- जागरूकता लाना और विभिन्न स्कीमों तथा कार्यक्रमों के तहत लाभों की मांग को आगे बढ़ाने के लिए समर्थन गतिविधि तथा इनको पूरा करने के लिए पंचायतों को जिला, तहसील और ग्राम स्तर पर संरचना का सृजन करना यदि आवश्यक हो।
राष्ट्रीय महिला सशक्तिकरण के अन्य विशेष कार्यक्रम-
- आशा योजना–11 फरवरी, 2005 को केन्द्र सरकार द्वारा इस योजना की घोषणा की गयी। योजना के अन्तर्गत ग्रामीण महिलाओं के स्वास्थ्य की देखभाल करने के लिए प्रत्येक गाँव में स्थानीय स्तर पर एक आशा कार्यकर्ती की तैनाती का प्रावधान है।
- स्वर्णिम योजना–पिछड़े वर्ग की ऐसी महिलाएँ, जो गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले परिवार की हैं, उन्हैं आर्थिक रूप से सक्षम बनाने के उद्देश्य से भारत सरकार द्वारा इस योजना का संचालन किया जा रहा है।
- मंत्रालय की पहल पर लिंग आधारित बजट–बजटीय प्रक्रिया में लिंग की मुख्य धारा से शामिल करने के लिए लिंग आधारित बजट की शुरूआत की गयी है। बजट की प्रक्रया के दौरान ही लिंग सम्भावनाओं को हर स्तर ओर चरण में शामिल कर लिया जाता है। इसके साथ बजट में ही लिंगभेद आकलन का अनुमान लगाकर उन उपायों का बजट में ही पूरा कर लिया जाता है।
- महिलाओं का घरेलू हिंसा से संरक्षण अधिनियम, 2005 (2005 का 43वां)-महिलाओं को घरेलू हिंसा से बचाने के लिए एक नया कानून बनाया है ओर उसे 26 अक्टूबर, 2006 से लागू कर दिया गया है।
- महिलाओं के प्रति भेदभाव की समाप्त करने पर सम्मेलन (सीईडीएडब्ल्यू)-भारत ने महिलाओं के प्रति भेदभाव को समाप्त करने संबंधी सम्मेलन (सीईडीएडब्ल्यू) पर 30 जुलाई, 1980 में हस्ताक्षर किए थे ओर एक आरक्षित ओर दो घोषित वक्तव्यों के साथ 9 जुलाई, 1993 को उसकी पुष्टि कर दी थी। कार्यवाही के लिए बीजिंग प्लेटफार्म-वर्ष 1995 में बीजिंग में महत्त्वपूर्ण चोथे विश्व सम्मेलन का आयोजन किया गया। इसमें महिलाओं के सशक्तिकरण को रफ्तार देने के लिए घोषणा और कार्यवाही के लिए प्लेटफार्म वीपीएफए को स्वीकार किया गयी।
- राष्ट्रीय पोषाहार मिशन–15 अगस्त, 2001 से चालू इस योजना के अन्तर्गत गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाली गरीब महिलाओं को सस्ते दर पर खाद्यान्न उपलब्ध कराया जाता है।
- जीवन भारती महिला सुरक्षा योजना– 8 मार्च, 2003 से शुरू इस योजना के अन्तर्गत भारतीय जीवन बीमा निगम द्वारा 18-50 वर्ष आयु की ग्रामीण महिलाओं को गम्भीर बीमारियों एवं उनके शिशुओं की अपंगता आदि की स्थितियों में सुरक्षा कवच प्रदान किया जाता है।
महिला सशक्तिकरण कानून
भारतीय संविधान, कानून, अधिनियम, विशिष्ट अध्यादेश, महिला आरक्षण, पंचायती राज व्यवस्था एवं विकास कार्यों द्वारा महिलाओं के सशक्तिकरण सुरक्षा एवं संरक्षण हेतु प्रदत्त अधिकार-
1. अनु० 14 समता का अधिकार – इसके तहत महिला और पुरुष दोनों को राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक सभी क्षेत्रों में समान अधिकार प्रदान किये गए हें।
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अनु० 15(3) – के द्वारा महिलाओं को भेदभाव से सुरक्षा प्रदान कर शिक्त्त सम्पन्न (अधिकार सम्पन्न) बनाने की विशेष व्यवस्था की गई है। अनु० 15 द्वारा अवसर की समता प्रदान की गई हे। इसमें धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध है। इसके तहत सार्वजनिक स्थानों में जाने एवं सार्वजनिक के लिए बनाये गए कुँओं, तालाबों, स्नानघरों इत्यादि के प्रयोग पर कोई प्रतिषेध न होगी। इस अनुच्छेद की या अनु० 29 के खण्ड (2) की कोई बात राज्य को सामाजिक ओर शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किसी भी वर्ग की उन्नति के लिए या महिलाओं, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी।
- अनु० 16: –लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता – (1) राज्य के अधीन किसी भी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समता होगी। (2) राज्य के अधीन किसी भी नियोजन या पद के संबंध में केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव, जन्म स्थान, निवास या इनमें से किसी एक के आधार पर न तो कोई नागरिक अपात्र होगा और न ही उससे विभेद किया जाएगा। (3) इस अनु० की कोई भी बात संसद को ऐसी विधि बनाने से निवारित नहीं करेगी जो किसी भी राज्य या संघ, राज्य क्षेत्र की सरकार के या उनमें से किसी स्थानीय या अन्य प्राधिकारी के अधीन वाले किसी वर्ग या वर्गों के पद पर नियोजन या नियुक्ति के संबंध में ऐसे नियोजन या नियुक्ति से पहले उस राज्य या राज्य क्षेत्र या संघ के भीतर निवास विषयक कोई अपेक्षा निहित करती है। (4) इस अनु० की कोई बात राज्य के पिछड़े नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियुक्तियों या पदों के आरक्षण के लिए उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी। (5) इस अनु० की कोई बात ऐसी विधि के प्रवर्त्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी जो यह उपबंध करती है कि किसी भी धार्मिक या सम्प्रदायिक संस्था के कार्यकाल से संबंधित कोई पद्धारी या उसके शासीनिकास का कोई सदस्य किसी विशिष्ट धर्म को मनाने वाला या विशिष्ट सम्प्रदाय का ही हो।
- अनु० संख्या (19) –के अनुसार समान रूप से सभी महिलाओं ओर पुरुषों के सभी अभिव्यक्तियों की स्वतंत्रता प्रदान की गई हे।
- अनु० 21 –में प्रावधान हे सभी नागरिकों को समान रूप से प्राण एवं दैहिक स्वाधीनता से संबंधित व्यवस्था का अधिकार प्राप्त होगा।
- अनु० 23 –के अन्तर्गत मानव समुदाय के व्यापार तथा मनुष्य से भीख मंगवाने या इसके समकक्ष कार्य करवाने, जबरन बंधुआ मजदूरी करवाने को निषेध किया गया है। तथा इस व्यवस्था का किसी भी प्रकार से उल्लंघन कानूनी अपराध हे एवं इसके लिए कानून के द्वारा सजा का प्रावधान है। क्योंकि मानव समुदाय का व्यापार अवैध हैं स्त्री एवं पुरुष का वस्तु की तरह या अन्य तरह से उपयोग करना, बेचना या इसका निपटारा करना तथा स्त्री एवं बच्चों का अनैतिक उद्देश्यों से इस्तेमाल कानूनन अवैध घोषित किया गया है।
- अनु० 39 (अ)– के तहत राज्य अपनी नीतियों द्वारा महिला ओर पुरुष दोनों के लिए रोजगार के समान अवसर सुनिश्चित करेगा।
- अनु० 39 (ग) –इसके द्वारा समान कार्य हेतु महिलाओं के लिए पुरुषों के समान ही वेतन की सुनिश्चित व्यवस्था की गई है।
- अनु० 40 –इसके तहत पंचायती राज संस्थाओं में 73वें, 74वें संविधान संशोधन के माध्यम से महिलाओं के लिए राजनीतिक ‘आरक्षण’ की व्यवस्था की गई हे।
- अनु० 42 – यह राज्य को निर्देशित करता है कि वह सुनिश्चित करें कि महिलाओं से मानवीय आधार पर कार्य लियें जाए तथा प्रसव काल के दौरान उन्हें प्रसव अवकाश एवं आर्थिक सहायता दी जाए।
- अनु० 47 – इसके तहत महिलाओं के लिए पोषाहार, जीवन स्तर तथा लोक-स्वास्थ्य में सुधार करना सरकार का दायित्व है।
- अनु० 51 (क) –वैसी अपमान जनक प्रथाओं को छोड़ने एवं त्यागने को विवश करता हे, जो अर्पतिष्ठाजनक हो तथा महिलाओं की गरिमा के विरूद्ध हो।
- अनु० 330 –की व्याख्यानुसार 84वें संविधान संशोधन के जरिये लोकसभा में महिलाओं के लिए आरक्षण की उचित अनुपात में व्यवस्था सुनिश्चित करना।
- अनु० 332 (क) –के आधार पर यह व्यवस्था की गई हे कि 84वें संविधान के जरिये राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए राजनीतिक आरक्षण की व्यवस्था सुनिश्चित करना जिससे पिछड़ी जाति, अनुसूचित जाति तथा जनजातीय समाज की महिलाएँ आगे बढ़ सके।
- प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम, 1994 का मुख्य उद्देश्य गर्भावस्था में बालिका भ्रूण की पहचान कराने वाले तकनीक पर रोक लगाना।
16.73वाँ ओर 74वाँ संविधान संशोधन, 1993 – के माध्यम से महिलाओं को त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था में एक तिहाई आरक्षण की व्यवस्था करने हेतु प्रावधान सुनिश्चित किया गया हे।
- वैश्य वृतिनिवारण (संशोधन 1956 का) अधिनियम, 1986 –के द्वारा भारत महिलाओं को अनैतिक कार्यों में दुरुपयोग करने वालों पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाना।
18.स्त्री अशिष्ट निरूपण निषेध अधिनियम, 1986 – के माध्यम से महिलाओं के अश्लील चित्र प्रदर्शन एवं आपत्तिजनक बैनर पोस्टर आदि पर रोक लगाना।
- अन्तर्राज्यिक प्रवासी कर्मकार अधिनियम, 1979 –द्वारा कुछ विशेष नियोजन स्थलों में महिलाओं के लिए सुविधा जनक स्थल पर अलग से शौचालय तथा स्नानगारों की व्यवस्था सुनिश्चित करना।
- बाल विवाह निषेध अधिनियम, 1976 – में प्रावधान किया गया है कि कम उर्म की बालिकाओं के विवाह पर रोक लगे।
- प्रसूति प्रसुविधा अधिनियम, 1961 – में प्रावधान किया गया है कि 80 कार्य दिवस पूरे होने पर महिला कर्मियों को प्रसव। गर्भपात हेतु आवश्यक रूप से निर्धारित अवकाश तथा चिकित्सा सुविधा दिया जाना।
- कर्मचारी राज्य बीमा विनियमन अधिनियम, 1952 – के आधार पर प्रसूति लाभ के लिए दावा को चिकित्सकीय र्पमाण-पत्र की तिथि से मान्य किया जाना।
- खान अधिनियम, 1952 –यह सुनिश्चित करता हे कि भूमिगत खानों में महिलाओं के नियोजन पर प्रतिबंध लगाया जाय।
- बगान श्रम अधिनियम, 1951 – के द्वारा इस बागान में काम के मध्य में महिला कर्मकारों को अपने बच्चों को दूध पिलाने हेतु अवश्य ही अवकाश दिया जाना चाहिए।
- विशेष विवाह अधिनियम 1954 –इस अधिनियम के अनुसार विवाह करने वाले अपने धर्म, सम्प्रदाय और जाति में बिना परिवर्त्तन किये किसी भी धर्म सम्प्रदाय ओर जाति में शादी आपसी सहमति के आधार पर कर सकते हें और समाज में वह शादी वैध मानी जाएगी।
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हिन्दूविवाह अधिनियम 1955 –यह भारतीय संसद द्वारा सन् 1955 में पारित किया गया और इसे 18 मई 1955 से जम्मू और कश्मीर राज्य को छोड़कर सम्पूर्ण भारत में लागू किया गया। इसके अन्तर्गत शादी की उर्म निर्धारित की गई हे। देश में यह अधिनियम केवल अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होता हे। इस अधिनियम के पूर्व हिन्दू-विवाह संबंधी कानून संहितावद्ध नहीं था। वह श्रुति, स्मृति, टीकाओं ओर रीति रिवाजों पर आधारित था। उसमें स्त्रियों को बहुत कम अधिकार दिये गए थे। पुरुष बहु विवाह कर सकते थे पर महिलाएं नहीं। इस अधिनियम में अन्तर्जातीय विवाह, तलाक, विवाह की अकृतता या समाप्ति, न्यायिक पृथक्करण, दाम्पत्य अधिकारों की पुन: स्थापना इत्यादि का प्रावधान नहीं था। इस अधिनियम के पारित हो जाने के बाद विवाह संबंधी वे सभी नियम शर्तें विधि प्रथाएँ जो इनके पारित होने के पूर्व लागू नहीं थी, परन्तु जिनके स्थान पर इस अधिनियम में उपबंध किया गया हे प्रभाव शून्य माने जाएंगे।
27. भरण–पोषण अधिनियम 1956 – इस अधिनियम के तहत एक हिन्दु पत्नी को चाहे वह इस अधिनियम के लागू होने के पूर्व या बाद में ब्याही गई हो, अपने जीवन काल में अपने पति से भरण-पोषण पाने की हकदार हे। इन सभी सामाजिक विधानों से समाज में स्त्रियों को न केवल सुरक्षा प्राप्त होता हे, बल्कि उनके जीवन स्तर को ऊपर उठाने में सहायता देते हैं। ये अधिनियम और प्रावधान महिलाओं को राजनीतिक आर्थिक क्षेत्र में प्रवेश कराने में बहुत ही सहायक है।
28. हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम – इसके अन्तर्गत महिलाओं को पुरुषों के समान हक अपने पिता की सम्पति में दिया गया हे, लेकिन पूर्वजों की सम्पति में बेटी का हक बेटे से अभी भी न्यून हे। जबकि महाराष्ट्र राज्य ने कानून बना कर बेटे-बेटी की भिन्नता को दूर किया है।
29. देश में महिलाओं को हक देने वाला कानून – इस अधिनियम में पिता को अपनी सम्पति का वसीयतनामा बनाने का भी हक है। महिला भी पति की म ृत्यु के बाद अपने हिस्से में प्राप्त सम्पति का हस्तांतरण वसीयत द्वारा कर सकती हे।30. हिन्दू उत्तराधिकार कानून 1956(95) (संशोधन कानून–2005) – हिन्दू उत्तराधिकार कानून के अनुसार अब पारिवारिक सम्पति पर लड़का-लड़की, महिला-पुरुष को एक समान अधिकार प्राप्त हे।
- (क) भारत में सभी राज्यों के ईसाई, मुस्लिम, पारसी तथा यहूदी धर्म को मानने वालों को छोड़ कर हिन्दु धर्म के सभी वर्ग तथा बौद्ध धर्म, जैन धर्म या सिक्ख धर्म मानने वालों पर लागू होता हे।
- (ख) हिन्दू उत्तराधिकारी (संशोधन) कानून-2005 सेक्शन 6 के अनुसार बेटी को संयुक्त हिन्दु परिवार में वे सभी सम्पति अधिकार उनको प्राप्त होंगे जो बेटे को हे।
- (ग) यह कानून खेती ओर बासगीत जमीन पर महिला एवं पुरूष को बराबरी का हक दिलाता हे। जो उसका जन्मसिद्ध अधिकार हे।
- (घ) एक बेटी को इस प्रकार की सम्पति के मामले में वे सभी दायित्व होगें जो कि एक बेटे को प्राप्त होते हैं। (Section 6)
- (ड़) हिन्दू उत्तराधिकार कानून-1956 (संशोधन कानून 2005) के अनुसार महिला अपने सम्पति के संबंध में किसी प्रकार का निर्णय ले सकती हे।
- (च) हिन्दू उत्तराधिकार (मुख्य) कानून-1956 lssection 23 को रद्द करने के बाद, अब महिलाओं को यह अधिकार प्राप्त हे कि वे सम्पति बंटवारे की मांग कर सकती है।
- (छ) यह प्रमाणित करता है कि विवाह पश्चात भी लड़की अपने पैतृक घर की सम्पति में समान रूप से हकदार रहेगी।
- दहेज निषेध अधिनियम – 1961 में संशोधन कर 1984 ओर 1986 के दहेज निषेध अधिनियम के अन्तर्गत दहेज लेने देने के लिए उसकाने को संज्ञेय अपराध घोषित किया गया हे। इस अपराध के लिए 5 वर्ष के कारावास तथा 15,000 रूå जुर्माना की व्यवस्था की गई हे। इस अधिनियम द्वारा अपराध को गैरजमानतीय घोषित किया गया हे। दहेज हत्या के अपराध को भारतीय दंड संहिता में आंशिक संशोधन द्वारा सम्मिलित किया गया है। शादीशुदा महिला की शादी के 7 वर्ष के अन्दर संदिग्ध अवस्था में मौत को अपराध संहिता की धारा-498-ए. के अन्तर्गत शामिल किया गया है। इसके अन्तर्गत 3 वर्ष तक का कारावास तथा जुर्माना है। इसमें जमानत नहीं हो सकती, न ही कोई समझोता हो सकता हे।
32. सती प्रथा निषेध संशोधित अधिनियम 1987 –इसके तहत धर्म के नाम पर विधवा को जलाने व सती होने के लिए उसकाने तथा सती के महिमा मंडन को अपराध मानते हुए कठोर दण्ड की व्यवस्था करता है।
33. डाक्टर गर्भपात कानून – 1972 – इस कानून से कोई महिला अवांछित बच्चे को जन्म नहीं देना चाहती हो तो अपनी इच्छानुसार डाक्टर के परामर्श से गर्भपात करवा सकती हे, लेकिन 12 सप्ताह तक के गर्भपात को ही वैध माना जाता है।
34. मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961(96) –महिलाओं को संसार में, मानव अस्तित्व को बनाये रखने के लिए उसे मातृत्व की स्थिति से गुजरना पड़ता है। प्रसव के पूर्व व बाद में महिलाएँ कुछ समय के लिए कार्य करने में सक्षम नहीं रह पाती हैं। किसी भी संस्थान में कार्यरत महिलाओं को प्रसव की स्थिति में विशेष सुविधा एवं सुरक्षा की आवश्यकता होती है। अत: महिलाओं को प्रसव की स्थिति से उत्पन्न कठिनाइयों को देखते हुए भारत में सर्वप्रथम ‘मुम्बई मेटरनिटी एक्ट 1929’ बनाया गया। इसके बाद विभिन्न राज्य सरकारों ने अपने-अपने राज्य के लिए अलग-अलग मेटनिटी एक्ट पारित व लागू किये हें।
मातृत्व लाभ का पहला ब्रिटिश कानून, 1941 में बनाया गया। उसके बाद कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948 के अन्तर्गत अंशदान की शर्त पूरी करने पर, पूरे देश के लिए मातृत्व लाभ का प्रावधान रखा गया। कुछ प्रशासनिक दोष, नियोजकों की चालाकी, सामाजिक ओर भोगोलिक दशाएँ इस तरह से प्रमाणित करती थी कि महिला श्रमिक ठीक ढंग से मातृत्व लाभ या अवकाश प्राप्त नहीं कर पाती थी। अंशत: भारत सरकार ने कामकाजी महिलाओं को मातृत्व लाभ नियमन में एक रूपता लाने के लिए तथा प्रसव की स्थिति में महिला श्रमिकों को विशेष सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से एक कानून पारित किया गया। जिसे ‘मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961’ के नाम से हम जानते हैं। यह केन्द्र सरकार द्वारा 1 नवम्बर 1961 से ही लागू हो गया तथा कुछ संशोधन के बाद आज भी लागू हे।
35. हिन्दु अल्पवयस्क तथा अभिभावक अधिनियम – 1956 – इसके अनुसार हिन्दू अल्पवयस्क बेटे का अभिभावक उसका पिता होता है ओर अविवाहित बेटी का भी अभिभावक पिता ही होता है। नाजायज बच्चों की अभिभावक माँ होती हे ओर उसके नहीं रहने पर अभिभावक पिता होता है। अभिभावक प्राकृतिक होते है। जैसे पिता ओर माता, जबकि विवाह के बाद पत्नी का अभिभावक पति होता है।
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गोद लेना और निर्वाह भत्ता अधिनियम – 1956 –कोन गोद ले सकते हैं ओर किसे गोद में दिया जा सकता हे के संदर्भ में हिन्दू गोद लेना अधिनियम की धारा 7 द्वारा एक हिन्दू पुरुष या महिला पुत्र या पुत्री दोनों में से किसी को भी गोद ले सकते हें। 37. निर्वाह भत्ता अधिनियम – के संदर्भ में उस पत्नी को निर्वाह भत्ता का हक दिया गया हे, जिसके पति ने उसका परित्याग कर दिया हे या उसके साथ र्कूरता का व्यवहार किया हे। अथवा वह कुष्ठ रोग से पीड़ित हे या वह दूसरी शादी कर नयी पत्नी के साथ रहता हे या उसी घर में दूसरी रखेल ले आया हे तो उसे पति से निर्वाह भत्ता पाने का हक है। जो पति की आमदनी में तीन में एक हिस्सा हो सकता हे।
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आपराधिक दण्ड संहिता की धारा, 125 – के अन्तर्गत निर्वाह भत्ता का अधिकार असमर्थ हिन्दू पत्नी, नाबालिग बच्चों तथा वृद्धों को भी उनके बच्चों से हे, बच्चा चाहे जायज हो या कानून सम्मत हो, उसे अपने बाप अथवा माँ से निर्वाह भत्ता पाने का हक हे। इस अधिनियम में सौतेली माँ को भी निर्वाह भत्ता का दायित्व उसके सौतेले बेटे या बेटी पर डाला गया है अगर उसके अपने बच्चे न हो तो निर्वाह भत्ता की अधिकतम सीमा 500 रुपये तक ही है।
39. समान मजदूरी अधिनियम – 1976 –में भी महिलाओं के लिए सुविधाजनक संशोधन करते हुए महिला एवं पुरुष दोनों को एक समान कार्य के लिए एक समान वेतन की व्यवस्था की गई हे। ठेका मजदूरी अधिनियम 1978 ठेका मजदूरों के कार्य (श्रम) की शर्तों को सुव्यवस्थित करता हे तथा इन्हें कल्याणकारी सुविधा प्रदान करता हे। वैसी महिला श्रमिकों के लिए जो निर्माण के कार्य से जुड़ी हे उनके बच्चों के लिए शिशु सदन की व्यवस्था करता है।
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वेदी एवं सीजर कर्मचारी अधिनियम – 1966 –इसकी धारा 14 के अनुसार बच्चों, वयस्क महिला एवं पुरुषों से सुबह 7 बजे से रात्रि 10 बजे तक ही कार्य लिया जा सकता है, वैसे प्रतिष्ठान जहाँ 7 बजे सुबह एवं रात्रि 10 बजे के पश्चात कार्य होते हें वहाँ बच्चों एवं महिलाओं से कार्य लिया जाना वर्जित हे।
41. महिलाओं का अश्लीलप्रदर्शन निषेध अधिनियम – 1986 – यह कानून विज्ञापनों में ओरतों के अपमानजनक प्रदर्शनों पर रोक लगाता हे। कोई व्यक्ति ऐसे विज्ञापनों को प्रकाशित नहीं करवा सकता हे, जो महिलाओं का अश्लील प्रदर्शन करता हो। इस कानून की धारा 4 के अन्तर्गत कोई भी व्यक्ति ऐसी पुस्तक, पुस्तिका, पर्चे, स्लाइड, फिल्म, विज्ञापन, चित्र, फोटो, लेख, आकार आदि का प्रकाशन, बिक्री, आवंटन, प्रसार-प्रचार, डाक द्वारा भेजने व किराये पर देने का काम कदापि नहीं कर सकता हे।
इस कानून का उल्लंघन करने वाले को पहली बार दोषी पाने पर दो साल की सजा और दो हजार रूपये तक का जुर्माना हो सकता है। ओर दूसरी बार या ज्यादा बार दोषी पाये गए व्यक्ति को कम से कम छ: महीने ओर अधिकतम 5 साल तक जेल की सजा ओर जुर्माने के रूप में कम से कम 10 हजार रूपये व ज्यादा से ज्यादा 1 लाख रूपये हो सकते हैं।
42. मुस्लिम महिला (तलाक से सुरक्षा) अधिनियम – 1986 – इस अधिनियम के अनुसार तलाक शुदा मुस्लिम महिलाओं को निम्नलिखित हक प्रदान किये गए है : (क) इदत्त की अवधि तक का निर्वाह भत्ता (ख) देन मेहर की रकम (ग) लड़की की शादी में जो भी सम्पति दी गई हो तथा (घ) उसके बच्चों को दो वर्ष की उम्र तक का खाना खर्चा इत्यादि की व्यवस्था करना।
43. बलात्कार विरोधी अधिनियम 1987 (भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 एवं 376) – अपराध संहिता कानून 1983 में संशोधन कर बलात्कार के सामान्य मुकदमों में 7 वर्ष तथा हाजत या बंदी गृह में बलात्कार के मामले में 10 वर्ष की सजा की व्यवस्था की गई है। इसमें अधिकतम सजा उम्र कैद भी हो सकती हे। बलात्कार अधिनियम 1987 में महिला की रक्षा हेतु बल दिया गया हे। यह अधिनियम इनके विरूद्ध शोषण का निषेध कर उन्हें सुरक्षा प्रदान करता हे।
44.राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम, 1980(97) – द्वारा राष्ट्रीय महिला आयोग बनाने की व्यवस्था की गई हें। इसके वैधानिक शिखर नेतृत्व ने समीक्षोपरांत महिलाओं के संविधानिक एवं कानूनी अधिकारों की सुरक्षा हेतु र्पतिकारी (उपकारी) विधान निर्माण का सुझाव दिया है।
45.73वाँ ओर 74वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 – में पारित हुआ। जिसके द्वारा ग्रामीण पंचायतों एवं नगरपालिकाओं में सदस्यों एवं सभापति के लिए 46. कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न अधिनियम – 1997 के अगस्त माह में सरकारी ओर निजी क्षेत्र की संस्थाओं में कामकाजी महिलाओं के कार्यस्थल पर होने वाले यौन शोषण को रोकने के लिए सर्वोच्य न्यायालय पांच सूत्री दिशा निर्देश जारी किये हैं ओर कानून बनाने तक इनके अनुपालन का प्रावधान किया है। इसमें दोषी व्यक्तियों के लिए सजा का भी प्रावधान है। यौन शोषण के अन्तर्गत निम्नलिखित बातें शामिल हो सकती हैं – शारीरिक स्पर्श तथा आगे बढ़ना, यौन अनुग्रह की माँग का प्रार्थना, योनेच्छा से जुड़ी टिप्पणियाँ, अश्लील सामग्री दिखाना, कई अन्य अनचाहा यौन, प्राकृतिक, शारीरिक, मौखिक तथा गैर-मोखिक व्यवहार आदि।
47. घरेलू हिंसा विरोध अधिनियम/महिला संरक्षण कानून – 2005 – इस कानून के अन्तर्गत घरेलू हिंसा से तात्पर्य ऐसी हिंसा से है जो घरेलू रिश्तों में किसी भी महिला के स्वास्थ्य, सुरक्षा, हित, जीवन, शारीरिक अंग को चोट या मानसिक रूप से हानि पहुँचाती हो, दहेज व अन्य सम्पति की मांग भी इस कानून के तहत दण्डनीय हे। घरेलू हिंसा के अन्तर्गत शारीरिक, योनिक, भावनात्मक, मानसिक या मोखिक तथा आर्थिक हिंसा शामिल हें।
48. र्भूण हत्या निषेध कानून – 1955 – PCPNDT एक्ट 1994 के अन्तर्गत गर्भस्थ शिशु का लिंग जाँच करना/करवाना कानूनन अपराध हे। गर्भवती महिला पर र्भूण जाँच के लिए दबाव डालने वाले किसी भी व्यक्ति को सजा हो सकती हे। भ्रूण की लिंग जाँच करने वाले चिकित्सक को 5 वर्ष तक जेल की सजा और 50,000 रू तक का आर्थिक जुर्माना हो सकता हे। इसके अन्तर्गत सभी अल्ट्रासाउण्ड क्लिनिक का निबंधित होना अनिवार्य हे, फिर भी नगरों या महानगरों में गुप्त रूप से भ्रूण की जाँच कुछ न कुछ की जा रही है।
49. सूचनाधिकार अधिनियम – 2005(98) – ‘सूचनाधिकार अधिनियम’ 13 अक्तूबर 2005 से पूरे देश में लागू हो गया है। भारत में आम लोगों को सूचना का यह अधिकार हासिल करने में वर्षों लगे हैं। वर्तमान समाज में सूचना पाने का अधिकार सबको हे। कोन सी सूचना सही ओर कौन सी सूचना गलत हे, इसके बारे में कोई भी सूचना के अधिकार के तहत संबंधित विभागों से इसकी छान-बीन कर सकता है। RTI व्यक्ति को सरकार से उन सूचनाओं की जानकारी प्राप्त करने का अधिकार प्रदान करता है जो भ्रष्टाचार को उजागर कर सकती है ओर इसके तहत हम अपनी शिकायत दर्ज भी करा सकते हें।
इस अधिनियम के तहत हम सरकारी समझोते, तनख्वाह, अनुमानित खर्च मशीनरी कार्यों के मानदंड आदि की मांग कर सकते है। सरकारी विभागों से संबंधित सूचनाओं की मांग भी कर सकते है। जिसका संबंध उनके किसी विभाग से है। रोड, निकासी मार्ग, भवन निर्माण, आदि में इस्तेमाल की जाने वाली सामग्रियों के सरकारी नमूनों की मांग कर सकते हैं, इसके अलावा हम किसी भी सार्वजनिक विकास कार्य के देख रेख की मांग कर सकते हें जो या तो बन चुका हो या निर्माणाधीन हो। हम सरकारी दस्तावेज, कंस्ट्रक्शन, ड्राइंग, रिकार्डबुक और रजिस्टर आदि के निरीक्षण की मांग कर सकते हैं। यदि किसी विभाग में कोई शिकायत या निवेदन किया गया है, तो उस पर क्या कार्यवाई हो रही है इससे संबंधित सूचनाओं को जानने का अधिकार भी आम जनता को है।
‘सूचनाधिकार अधिनियम’ की धारा 2ए ओर 2एच के तहत जनता को केन्द्र सरकार के किसी भी विभाग, पंचायती राज संस्थान, अन्य संगठनों और संस्थानों (NGO) सहित से सूचना प्राप्त करने का अधिकार है जो राज्य या केन्द्र सरकार द्वारा र्पत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से स्थापित, संगठित, पूरी तरह से आर्थिक सहायता प्राप्त करते हें। धारा 5(1) के तहत विभागों के P.R.O. से जनता को सूचना प्राप्त करने का अधिकार होगा। धारा 5(2) के अन्तर्गत हर उप जिला स्तर पर असिस्टेंट पी.आर.ओ. होते हें जो पीåआरåओå के निर्णयों के खिलाफ सूचनाओं ओर अनुरोधों के लिए निवेदन स्वीकार करते हें और उन्हें संबंधित अधिकारियों को भेज देते हैं।
- अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार द्वारा प्रदत्त नागरिक अधिकार–अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ‘‘संयुक्त राष्ट्र संघ’’ द्वारा देश धर्म लैगिक-भेदभाव ओर जातिगत-भेदभाव के बिना सम्पूर्ण विश्व के प्रत्येक मानव को मूलभूत अधिकार दिलाने के लिए ‘‘मानवाधिकार घोषणा-पत्र‘‘ के नाम से एक महत्वपूर्ण प्रयास किया गया। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 10 दिसम्बर 1948 को जारी ‘‘मानवाधिकार घोषणा-पत्र‘‘ में सभी देशों के प्रत्येक व्यक्ति को चाहे वह महिला हो या पुरुष हो को कम से कम 30 अधिकारों को प्रदान करने की घोषणा की गई है। देश में इसी आधार पर महिलाओं ओर पुरुषों को सहज ओर प्राकृतिक रूप से प्राप्त होने वाले इन 30 अधिकारों को दिलाने के लिए सरकार द्वारा त्वरित प्रयास किये गए है। अमानवीय त्रासदी से पीड़ित महिलाओं के प्रति अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया की सजग, निष्पक्ष एवं सार्थक हे।
(क) राजनैतिक मानवाधिकार – राज. मानवाधिकार किसी भी लोकतंत्रात्मक राष्ट्र या समाज के आधार स्तम्भ माने जाते हैं। इसलिए इसे मानवाधिकारों के सार्वभोमिक घोषणा-पत्र में एक निश्चित स्थान प्रदान किया गया हे, जिन्हें राष्ट्रीयता और ऋण पाने का अधिकार, शांतिपूर्वक सभा एवं संघ गठित करने का अधिकार, सरकार में शामिल होने व आन्दोलन करने की स्वतंत्रता का अधिकार एवं विचार अभिव्यक्ति का अधिकार समाज के सभी वर्गों को समान रूप से प्रदान किया गया है।
(ख) आर्थिक मानवाधिकार – मानवाधिकार के सार्वभोमिक घोषणा-पत्र के अनुच्छेद 22 से 27 में वे सभी सामाजिक और आर्थिक अधिकार दिये गए हैं जिनके सभी मनुष्य हकदार है। इनमें सामाजिक सुरक्षा, कार्य करने, आराम करने, अवकाश प्राप्त करने, स्वास्थ एवं सकुशल सुरक्षित जीवन जीने के लिए आवश्यक मानव जीवन स्तर को बनाये रखने के अधिकार वर्णित हैं।
51. अपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम 2013 – इसे 2 अप्रैल 2013 को मंजूरी प्रदान की बलात्कार, छेड़छाड़, तेजाब हमला आदि से संबंधित।
- विवाह कानून (संशोधन) विधेयक17 जुलाई, 2013 को स्वीकृति प्रदान की गई। विधेयक में यह प्रावधान है कि तलाक के बाद महिला की आर्थिक स्थिति में सुधार की गुंजाइश न होने पर विवाह विच्छेद के बाद महिला, पति की पैतृक सम्पति में मुआवजे की हकदार होगी।
53. तेजाब बिक्री के लिए लाइसेंस की अनिवार्यता –लगातार बढ़ रही तेजाब से हमले की घटनाओं को देश की शीर्ष अदालत ने गंभीरता से लेते हुए 18 जुलाई 2013 को देश के सभी राज्यों ओर केन्द्रशासित प्रदेशों को यह निर्देशित किया कि वे न तो तेजाब की खुदरा बिक्री पर रोक संबंधी कायदे कानून बनाये, बल्कि एसिड अटैक को गैर जमानती अपराध के दायरे में लाने के लिए भी कानून बनाएँ।
54. विवाह पंजीकरण अब अनिवार्य – 12 अगस्त 2013 को राज्य सभा द्वारा जन्म और मृत्यु का पंजीकरण (संशोधन) विधेयक 2012 को पारित कर दिया गया। इस विधेयक के अनुसार भारत में सम्पन्न किये गए किसी भी विवाह, तो वह किसी भी धर्म के लोगों से संबंधित हो का पंजीकरण कराया जाना अनिवार्य होगा। इस विधेयक का उद्देश्य महिलाओं को वैवाहिक एवं रख-रखाव संबंधी मामलो में अनावश्यक प्रताड़ना से सुरक्षा।
55. संज्ञेय अपराधों (हत्या, अपहरण, बलात्कार व चोरी आदि) में एफआईआर (FIR) अनिवार्य – सर्वोच्च न्यायालय ने 12 नवम्बर 2013 को फैसला दिया। इसमें यह कहा गया कि इस प्रकार के गंभीर अपराधों में पुलिस यह नहीं कह सकती कि वह जाँच पड़ताल के बाद रिपोर्ट दर्ज करेगी। इसमें पुलिस को किसी प्रकार की ढील नहीं दी जा सकती।
56.21 अप्रैल 2014 को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति बी.एस. चौहाण ओर जे. चेलेमेश्वर की खण्ड पीठ ने ‘उदय गुप्ता बनाम आयशा’ मामले में स्पष्ट किया है कि लिव इन रिलेशनशिप अपराध नहीं है तथा इस दोरान संसर्ग से उत्पन्न बच्चे को वैध संतान का दर्जा प्राप्त होगा।