गीता तात्पर्य -श्रीमदभगवदगीता विश्व के सबसे बडे महाकाव्य महाभारत के “भीश्मपर्व” का एक अंश है। भगवदगीता भगवान कृष्ण द्वारा कुरूक्षेत्र युध्द में दिया गया दिव्य उपदेश है जब अर्जुन मोहग्रस्त होकर किंकर्तव्यविमूढ़ कि स्थिति में पहुच चुके थे। इस प्रकार अर्जुन को केन्द्र में रखकर दिया गया यह भगवान का गीता अमृत रूपी वाणी से समन्वित उपदेश है। इस प्रकार श्रीमदभगवदगीता भगवान की साक्षात दिव्य वाणी होने से इसके श्लोकों को मंत्र का दर्जा प्राप्त है।-
“सर्वोपनिशदो गावो दोग्धा गोपालनन्दन:।
पार्थोवत्स: सुधीभोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत”।।
अर्थात् यह गोपालनन्दन श्री कृष्ण के द्वारा अर्जुन को बछड़ा बनाकर उपनिशद रूपी गायों से दुहा गया अमृतमय दूध है जिसे सुधीजन पीते हैं। श्रीमदभगवदगीता संसार के अति महत्वपूर्ण ग्रन्थों में अपना विशेष स्थ्ज्ञान रखती है। श्रीकृष्ण भगवान स्वयं इसके वक्ता हैं और उनका कहना है ‘गीता मे हृदयं पार्थं’ अर्थात हे अर्जुन गीता मेरा हृदय है इस प्रकार गीता को ‘सर्वशास्त्रमयी’ कहा गया है क्योंकि सभी शास्त्रों में मंथन करके अमृतमयी गीता काउदय या प्रकटीकरण हुआ है। इसका दिव्य संदेश किसी जाति – विशेष सम्प्रदाय के लिये नही है बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति के लिये है जो सर्वभौम है। विभिन्न मत मतान्तरों को यदि ध्यान न दिया जाय तो अधिकांश विद्वान इस मत पर सहमत हैं कि गीता में 18अध्याय है और 700 श्लोक है इसके संकलनकर्ता स्वयं वेदव्यास जी हैं वेद भगवान के नि:श्वास हैं किन्तु गीता भगवान की वाणी है नि:श्वास तो स्ववभाविक होते हैं, इसमें कोई अतिरिक्त श्रम नहीं करना पड़ता है। किन्तु गीता को भगवान ने योग में स्थित होकर अपने श्री मुख से कही है अतेव गीता को वेदों की अपेक्षा भी श्रोश्ठ कहा गया है। प्रसथानत्रयी के अन्तर्गत ब्रह्मसूत्र, गीता और उपनिशद आते हैं । इसमें गीता का महत्व और अधिक बढ़ जाता है कि गीता में ब्रह्मसूत्र और उपनिशद दोनों का ही तात्पर्य आ जाता है गीता एक परम रहस्यमय ग्रन्थ है इसमें सम्पूर्ण वेदों का सारसंग्रह किया गया है। स्वयं भगवान वेदव्यास ने कहा है कि –
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै:शास्त्रसंग्रहै:।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपदमाद्विनि:सृता।।(महा0 भीश्म0 43/1)
अर्थात् गीता का ही भली प्रकार से श्रवण मनन, किर्तन, पठन- पाठन, और धारण करना चाहिये, अन्य शास्त्रों के संग्रह की क्या आवश्यकता है ? क्योंकि वह स्वयं पùनाभ भगवान के साक्षात् मुख-कमल से निकली हुई है। भगवान ने स्वयं गीता के विषय में कही है कि -मैं गीता के आश्रम में रहता हूँ, गीता मेरा श्रेष्ठ घर है। गीता के ज्ञान का सहारा लेकर ही मैं तीनों लोकों का पालन करता हूँ।
गीतााश्रयेSहं तिश्ठामि गीता मे चोत्तमं गृहम।
गीताज्ञानमुपश्रित्य त्रील्लोकान्पालयाम्यहम।।(वराहपुराण)
गीता की महिमा बतलाते हुये भगवान कहते हैं कि गीता गंगा से भी बढ़कर है शास्त्रों में गंगा स्नान का फल मुक्ति बताया गया है परन्तु गंगा में स्नान करने वाला स्वयं मुक्त तो हो सकता है किन्तु दूसरे को तारने की सामथ्र्य नही रखता है किन्तु गीता रूपी गंगा में गोता लगाने वाला स्वयं मुक्त तो होता ही है और दूसरे को तारने में भी सामथ्र्यवान होता है एक तरफ से उद्गम देखा जाय तो गंगा भगवान के श्री चरणों से निकली हुई है गंगा में जाकर जो स्नान करेगा गंगा उसी को मुक्त करती है किन्तु गीता धर धर में जाकर उन्हें मुक्ति का मार्ग दिखलाती है इन्ही सब कररणों से गीता को गंगा से भी बढ़कर भगवान बतलाते हैं-
गंगा गीता च सावित्री सीता सत्या पतिव्रता।
ब्रह्मावलिबर्रविद्या त्रिसंध्यया मुक्तिगोहिनी।।
गीता का महत्व बतलाते हुये कहा गया है कि गीता अर्धमात्रा, पिदानन्दस्वरूपिणी, भवरोगनाषिनी, भ्रान्ति का नाश करने वाली त्रिवेदमयी, परमानन्दस्वरूपिणी तत्वार्थ ज्ञान देने वाली है जो मनुष्य प्रतिदिन स्थिर चित्त से इन नामों का जप करता है , उसे इस लोक में नित्य ज्ञान की सिध्दि तथा जीवन का अन्त होने पर परमपद की प्राप्ति होती है सम्पूर्ण गीता का पाठ करनें में असमर्थ होने पर अध्दार्ंश का पाठ करना चाहिये उसे गोदान का पुन्य फल मिलता है इसमें सन्देह नही है तृतीयांश का पाठ करने से गंगा स्नान का फल मिलता है जो व्यक्ति गीता के दो अध्यायों का पाठ करता है वह इन्द्रलोक जाता है और वहाँ एक ब्रा के कल्प तक निवास करता है अन्तिम में गीतार्थ का पाठ या श्रवण करने से महापापी भी मुक्तिभागी हो जाता है। आगे गीता की महिमा बतलाते हुए कहा गया है कि-
गीता पुस्तक संयुक्त: प्राणास्त्याक्त्वा प्रयाति य: ।
बैकुण्ठ सम्वाप्नोति विष्णुना सह मोदते ।।
अर्थात जो व्यक्ति गीता की पुस्तक लिए हुए, प्राणत्याग कर देता है वह बैकुण्ठ धाम जाकर विष्णु के साथ आनन्द भोग करता है। इस प्रकार गीतासार ईश्वर साक्षात्कार का दर्शन् है। जिसे भी ईश्वर दर्शन् की इच्छा होगी, उसे गीता से बढ़कर कोई ग्रन्थ नहीं मिलेगा-
‘‘गीताभाश्यं पुन: कृत्वा लभते मुक्ति मुत्तमाम’’ ।।(वाराहपुराण)
गीताशास्त्र की एक अप्रतिम विशेषता है कि यह किसी वाद को लेकर नहीं चली है अर्थात् द्वैत, अद्वैत, विशिष्टताद्वैत, विशुद्धाद्वैत, अचिन्त्य भेदाभेद आदि किसी भी वाद को या किसी के सिद्धान्त को लेकर नहीं चली है। गीता का मुख्य उद्धेश्य है कि व्यक्ति किसी भी वाद मत सिद्धान्त को मानने वाला क्यों न हो उसका प्रत्येक परिस्थिति में कल्याण हो जाय। वह किसी भी परिस्थिति परमात्म प्राप्ति से वंचित न रह जाय। क्योंकि मनुष्य योनि ही एक ऐसी योनि है जिसमें जन्म केवल अपने कल्याण के लिए ही हुआ है। गीता की अद्वैतवादी टीकाओं भगवदगीता को वस्तुत: गीतोपनिशद के रूप में ही स्वीकार किया है और श्रुति प्रस्थान का स्थान दे दिया गया है। अधिकांश आचार्य मानते है कि गीता में जहां-जहां श्रीभगवानुवाच् है वह श्रुति है, स्मृति प्रस्थान तो वह है ही। पुन: इन दोनों प्रस्थानों से बढ़कर उसी ब्रह्मसूत्र का भी प्रकार्य कर दिया है। अधिकांश अद्वैतवादी सन्यासी का गीता का ही अध्ययन करते है, जो गृहस्थ अद्वैतवेदान्ती है, वे भी भागवत्पुराण, रामायण, राम चरित मानस, दुर्गासप्तषती आदि ग्रन्थों की अपेक्षा गीता का ही स्वाध्याय करते है। इसलिए कहा जाता है कि गीता ने अद्वैतवेदान्त के प्रचार-प्रसार में जितना योगदान दिया है उतना किसी अन्य ग्रन्थ ने नहीं दिया है। इस प्रकार गीता का माहात्म्य प्रतिपादित करते है। स्वयं भगवान कृष्ण ने कहा है-
‘‘जो कोई मेरे इस गीता रूप आज्ञा का पालन करेगा वह नि:संदेह मुक्त हो जायेगा।’’ (गीता 3/31)
यही नहीं भगवान यह भी कहते है कि जो इसका अध्ययन भी करेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञान यज्ञ से पूजित होऊँगा। (गीता 18/70)
जब गीता का अध्ययन मात्र का माहात्म्य है तब जो मनुष्य इसके अनुसार अपना जीवन व्यतीत करता है और इसके आदर्श को जीवन में उतार कर चलता है, तब उसकी बात ही क्या? ऐसे भक्तों के लिए भगवान कहते है वह मुझे सबसे प्रिय होते है और ऐसे भक्तों के अधीन मैं स्वयं हो जाता हॅूं।
इस प्रकार गीता भगवान का प्रधान रहस्यमय आदेश है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के उपदेश का कितना ही अंश श्लोकों में, पद्यों में कहा था और कुछ गद्यों में, पद्यों का अंश ज्यों का त्यों वेद व्यास जी ने रख दिया किन्तु गद्यात्मक भाग को स्वयं श्लोकबद्ध कर लिया और इस सात सौ श्लोक और अठ्ठारह अध्याय वाली ग्रन्थ गीता को महाभारत के अन्दर मिला लिया, जो आज हमें इस अपने विशद् और मनोरम् कलेवर में प्राप्त होती है। इस प्रकार गीता शास्त्र ब्रह्म विद्या है। उसमें ब्रह्म विद्या के साध्य और साधन दोनों का वर्णन प्राप्त होता है जबकि और अन्य ग्रन्थों में या तो साध्य का या साधन का वर्णन होता है। इस दृष्टि से गीता सर्वशास्त्रमयी, सर्वधर्ममयी है। विश्व में गीता जैसा कोई ग्रन्थ नहीं है जिसमें सर्वधर्म का सार संग्रह हो, जिसमें ईश्वर और ईश्वर प्राप्ति दोनों के विधान किये गये है। इस दृष्टि से गीता के व्यवहारिक दर्शन् को भली भांति रेखांकित किया जा सकता है। इसमें कर्तव्य पालन पर बल दिया गया है, वर्णाश्रम व्यवस्था को ईश्वर प्राप्ति का केन्द्र बिन्दु माना गया है, जिससे परार्थवाद या परोपकार की प्रासंगिकता सिद्ध होती है। इस प्रकार गीतासार ईश्वर साक्षात्कार का दर्शन् है।
गीता का दार्शनिक तत्वविवेचन की दृष्टि से महत्व
गीता की ज्ञान मीमांसा में ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता ये तीनों विषय महत्वपूर्ण है क्योंकि यही तीनों कर्म प्रवृत्ति हेतु है और इन तीनों के अभाव में कर्म सम्पन्न नहीं हो सकता है। जब मनुष्य को जीवन मुक्ति की अवस्था प्राप्ति होती है, तब यह त्रिपुटी एक हो जाती है तब मनुष्य में कर्म प्रवृत्ति का उदय नहीं होता है। इस प्रकार गीता का महत्व तत्त्व मीमांसीय दृष्टि से हो या ज्ञान मीमांसीय दृष्टि से या आचार मीमांसा की दृष्टि से देखा जाय तो तीनों ही दृष्टि से गीता का वर्ण्य विषय महत्वपूर्ण हो जाता है। गीता के महत्व के अन्तर्गत निम्नलिखित दार्शनिक तत्व सिद्धान्त मुख्य है उन मुख्य बिन्दुओं पर हम प्रकाश डालेगें- जो इस ईकाई की विषयवस्तु होगी। 1- त्रिविधयोग- एवं 2 निष्कामकर्मयोग। 3- स्थितप्रज्ञ 4-आत्मा 5-ब्रह्म या परमेश्वर 6-जीव 7- वर्ण, धर्म या स्वधर्म 8- दैवासुर-सम्पद 9- मोक्ष
त्रिविधयोग
वास्तविक अर्थ में श्रीमद्भगवदगीता को ‘योगशास्त्र‘ की संज्ञा दी गई है इसके प्रत्येक अध्याय की पुश्पिका में ‘‘ब्रह्म विद्यायां योगशास्त्रे’’ ऐसा कहा गया है। अत: गीता का ‘योग’ सम्बन्धी विचार बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। ‘योग’ शब्द वस्तुत: सम्बन्धवाचक है अर्थात आत्मा का परमात्मा के साथ समन्वित सम्बन्ध को जो द्योतित करता है वह ‘योग’ है। ‘योग’ शब्द के अर्थ को तीन रूपों में देख सकते है-
- ‘युजिर् योगे’ घातु से बना ‘योग’ शब्द जिसका अर्थ है समरूप परमात्मा के साथ नित्य सम्बन्ध जैसे-’समत्वंयोगउच्यते’ (2/48) आदि। यही अर्थ गीता में मुख्यत: से आया है।
- ‘‘युज् समाधौ’’ धातु से योग शब्द निश्पन्न है जिसका अर्थ है- समाधि में स्थित चित्त की स्थिरिता ।
- ‘युज् संयमने’- धातु से बना ‘योग’ शब्द जिसका अर्थ है संयमन, सामथ्र्य और प्रभाव जैसे-’पष्य मे योगमैष्वरम् (9/5) आदि। गीता में जहां भी योग शब्द आया है उसमें तीनों अर्थों में से एक अर्थ की मुख्यता और शेष दो अर्थों की गौणता है। जैसे ‘युजिरयोगे’ वाले ‘योगशब्द’ में समता (सम्बन्ध) की मुख्यता है परमात्मा आने पर स्थिरता और सामथ्र्य भी स्वत: आ जाती है।
पातंजल्ययोग दर्शन् में चित्त वृत्तियों के निरोध को ‘योग’ नाम से कहा गया है- ‘‘योगष्चित्तवृत्ति निरोध:’’ (1/12) और उस योग का परिणाम बताया है- ‘द्रष्टा की स्वरूप में स्थित हो जाना- ‘तदा दृश्टु: स्वरूपेSवस्थानम्’ (1/3) इस प्रकार पातंजल्ययोग दर्शन में जो ‘योग’ का परिणाम बतलाया गया है उसी को गीता में ‘योग’ के नाम से अभिहित किया गया है। ‘‘योगशब्दस्य गीतायामर्थस्तु त्रिविधो मत:। सामथ्र्ये चैव सम्बन्धे समाधौ हरिणा स्वयम्।।’’ आत्मा का परमात्मा के साथ नित्य सम्बन्ध स्थापित करने के लिये तीन योग मार्ग बतलाये गये है- जिन्हें 1- कर्मयोग, 2- ज्ञान योग और 3- भक्तियोग से जाना जाता है। इन्हीं तीन योगों की त्रिपुटी गीता है। यद्यपि ‘योग’ की प्राप्ति के लिये भगवान ने मुख्य रूप दो निष्ठाएं बतायी गयी हैं- कर्मयोग और सांख्य योग। जैसा कि गीता में वर्णित है-
लोकेSस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ।। (3/3)
अर्थात असत् से सम्बन्ध विच्छेद करना ही कर्मयोग है और सत् के साथ योग होना सांख्य योग है परन्तु ये दोनों निष्ठाएं साधकों की अपनी है- भक्तियोग साधक की अपनी निष्ठा नहीं है अपितु यह भगवद् निष्ठा है। जो भक्त भगवान के लिए स्वयं को समर्पित कर दे उसे ‘भक्ति योग’ कहते है। इन तीनों योगों को सिद्ध करने के लिये या मनुष्य को अपना उद्धार करने के लिए ईश्वर से तीन शक्तियों प्राप्त है- 1- कर्म करने की शक्ति (कर्म),2- जानने की शक्ति (ज्ञान),3- मानने की शिक्ता (विश्वास) करने की शक्ति नि:स्वार्थ भाव से संसार की सेवा करने के लिए है जो ‘कर्म योग’ है। जानने की शक्ति से तात्पर्य है अपने स्वरूप को वास्तविक रूप में जानना और मानने की शक्ति से तात्पर्य है अपने को भगवान के लिए समर्पित कर देना भक्ति योग है। ये तीनों ही मार्ग परमात्मा प्राप्ति के स्वतंत्र साधन है और अन्य साधन इन तीनों के ही अन्तर्गत आ जाते है। इन तीनों का पृथक-पृथक वर्णन तो अन्य शास्त्रों में भी प्राप्त होता है किन्तु तीनों के समन्वय का गौरव गीता को ही प्राप्त है। इन तीनों योगों से कर्मों (पापों) का नाश सम्भव है-
कर्मज्ञान भक्तियोगा: सर्वेSपि कर्मनाशका: ।
तस्मात् केनापि युक्त: स्यान्निष्कर्मा मनुजो भवेत्।।
कर्मयोग-
‘कर्मयोग’ वह योग है जिसमें कर्म की ही प्रधानता होती है। इसको मुख्य रूप से मानने वाले लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जी भी जो अपने ग्रन्थ ‘गीता रहस्य’ में गीता का मुख्य विषय कर्मयोग मानते है। ज्ञातव्य है कि सकाम और निष्काम के भेद से कर्म दो प्रकार के होते है। इनमें सकाम कर्म ही बंधन का कारण है जबकि निष्काम कर्म मोक्ष का कारण है। जो साधक केवल कर्तव्य कर्म यज्ञ की परम्परा को सुरक्षित रखने के लिए, लोक संग्रह के लिए सृष्टि चक्र की परम्परा चलाने के लिए ही कर्तव्य कर्म का पालन करता है, अर्थात कर्मों के लिए केवल दूसरों के लिए ही करता है अपने लिए नहीं वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है-
‘‘यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्तेसर्वकिल्विशै:।’’ (3/13)
ज्ञान योग-
‘ज्ञान योग’ को गीता का मुख्य प्रतिपाद्य विषय मानने वाले सर्वप्रमुख विद्वान आचार्य शंकर है। इनके अनुसार संसार को असार मानना तथा आत्मा को परमात्मा के रूप में समझना ही ‘ज्ञानयोग’ है। ज्ञानी के लिए जो कुछ भी दृश्य पदार्थ है वह मृग तृष्णा या रज्जू में सर्प की प्रतीति की भांति मिथ्या है। क्योंकि आचार्य शंकर का प्रमुख सिद्वान्त है-
‘‘ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या जीवोब्रह्मैव नाSपर:’।
अर्थात ब्रह्म ही सत्य है और जगत मिथ्या है। जीव तथा ब्रह्म एक ही है। सबकुछ ब्रह्म ही है। यह ब्रह्म एक, अद्वैत तथा शुद्ध ज्ञान स्वरूप है। ब्रह्म ही आत्मा है और आत्मा ही ब्रह्म है। यही एकत्व की प्रतीति ही ‘‘ज्ञानयोग’’ है। गीता में कहा गया है कि-
‘‘सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगमुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन:’’ ।। (गीता 6/29)
अर्थात समाधि योग में अवस्थित पुरूष सर्वत्र ब्रह्म का दर्शन कर अविद्या से उत्पन्न शरीरादि की सीमा रहित आत्मा को सब प्राणियों में अवस्थित और सब प्राणियों को अभिन्न रूप में आत्मा में कल्पित देखते है। इसी विषय को और स्पष्ट करते हुये आगे कहा गया है कि-
‘यो मां पष्यति सर्वत्र सर्व च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणष्यामि स च मे न प्रणष्यति’’।। (गीता 6/30)
अर्थात जो पुरूष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्म रूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक रूप से देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत देखता है उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता है। गीता में ज्ञानयोगी को समदष्र्ाी बताया गया है। ज्ञान रूपी सूर्य के उदय होने पर अज्ञान रूपी अन्धकार नष्ट हो जाता है। वैसी स्थिति ज्ञानयोगी की होती है। ज्ञानयोगी समस्त प्राणियों को समान भाव से देखता है-
‘‘विद्या-विनय-सम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन:’’ ।। (गीता 5/18)
अर्थात ज्ञानी लोग विद्या और विनय युक्त ब्राह्मण में तथा गौ, हाथी और कुत्ते तथा चाण्डाल में भी समदश्री ही होते है। तात्पर्य यह है कि ज्ञान योगी का विषयभाव सर्वथा नष्ट हो जाता है। उसकी दृष्टि में एक मात्र सच्चिदानन्द परमात्मा की सत्ता है। अत: उसकी दृष्टि सर्वत्र समभाव वाली हो जाती है तथा परमात्मा में ही सम्पूर्ण भूतों का विस्तार जब देखता है तभी उसी क्षण वह सच्चिदानन्द ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है-
‘यदा भूत पृथग्भावमेक्स्थमनुपष्यति।
तत् एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा’’।। (गीता 13/30)
क्योंकि जैसे प्रज्वल्लित अग्नि ईधनों को जलाकर भस्म कर देती है वैसे ही ज्ञान रूपी अग्नि समस्त कर्मों का भस्म कर देती है-
‘‘ यथैधांसि समिद्धोSग्रिर्भस्मसात् कुरूतेSर्जुन।
ज्ञानाग्नि: सर्वकमाणि भस्मसात्कुरुते तथा’’ ।। (गीता 4/37)
इसीलिए गीता में जोर देकर ज्ञान की महत्ता को प्रतिपादित किया गया है और कहा गया है कि इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला नि:संदेह कुछ भी नहीं है- ‘‘नहि ज्ञानेन सदृषं पवित्रमिह विद्यते’’ । इसी बात को उपनिशदों में भी कहा गया है कि ‘‘ज्ञानात् ऋते न मुक्ति:’’ अर्थात बिना ज्ञान के मुक्ति सम्भव नहीं है। गीता के 10/10 में कहा गया है कि जो भक्त सदा मेरी चिन्ता करते हुए श्रद्धा से मेरी अराधना करते है उन्हें मैं अपने सम्बन्ध का सम्यक ज्ञान प्रदान करता हू जिससे वो मुझकों प्राप्त कर सके- ‘‘ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते’’। आगे 4/33) जो पुरुश जितेन्द्रिय, साधन परायण और श्रद्धावान होते है वह ज्ञान को शीघ्र ही प्राप्त कर लेते है तथा ज्ञान प्राप्ति के बाद भगवत् प्राप्ति रूप परम आनन्द को प्राप्त हो जाता है- ‘‘श्रद्धावॉंल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:। ज्ञानं लब्ध्वा परा शांतिमचिरेणधि गच्छति’’।। (5/39) भक्तों में ज्ञानी भक्त को भगवान से श्रेष्ठ कहा है। (7/17) गीता के ज्ञानयोगी को ‘स्थितप्रज्ञ’ भी कहा गया है। क्योंकि स्थितप्रज्ञ व्यक्ति केवल एक मात्र परमात्मा को ही सत्य मानता है और जागतिक पदार्थों को जो ब्रह्म से अतिरिक्त है, को मिथ्या मानता है। गीता की ज्ञानयोग की सबसे बड़ी विशेषता: यह है कि संसार का त्याग न करके संसार के प्रति आसक्ति कर त्याग करने की बात कहते है। 3- भक्ति योग:-भक्ति शब्द ‘भज्’ धातु से निष्पन्न है जो सेवा करने के अर्थ में प्रयुक्त होती है अपने उपस्य देव की श्रध्दापूर्वक सेवा करना ही ‘भक्ति’ है। जो संसार से विमुख होकर केवल भगवान की शरण में शरणागत हो जाता है , उसे भगवान सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर देते हैं। क्योंकि भगवान अर्जुन से कहते हैं कि तूँ सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर एक मेरी शरण हो जा ,मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूगाँ । तू चिन्ता मत कर –
सर्व धर्मान् परित्यज मामेकं शरणं ब्रज ।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिश्यामि मा शुच:।। (गीता 18/66)
भक्तियोग को सर्वश्रेष्ठ साधन मानने श्री रामानुजाचार्य ने गीता में भक्तियोग का प्रतिपादन किया है भक्ति का तात्पर्य ध्यान, भजन, कीर्तन, मनन, उपासना आदि से है । परमात्मा के अतिरिक्त किसी अन्य का भाव मन में न लाना ही अनन्य भाव कहा जाता है । यही अनन्यभाव ही भक्ति योग है –
अनन्याष्चिन्तयतो मां ये जना: पर्युपासते ।
तेशां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।।(गीता 9/22)
अनन्य भक्ति को ही गीता में ‘अनन्यचित्त’ भी कहा गया है । इस अनन्यचित्त वाले व्यक्ति को ईश्वर की प्राप्ति दुर्लभ नही होती । जैसा की भगवान श्री कृष्ण कहते हैं –
अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यष:।
तस्यां सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:।। (गीता 8/14)
अर्थात् जो व्यक्ति मुझमें अनन्यचित्त होकर सदा ही निरन्तर मुझ पुरूषोत्तम को स्मरण करता है। उस योगी के लिए मैं सर्वथा सुलभ हूँ अर्थात् उसे मैं सहजता से प्राप्त हो जाता हूँ आगे 18/65 में भगवान कहते हैं कि-
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरू।
मामेवैश्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोSसि में।। (गीता 18/65)
अर्थात्-तुम मुझमें हृदय अर्पण करो, मेरे भक्त हो जाओ, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो, मै सत्य प्रतिज्ञा करके कहता हूँ, इससे मेरे प्रसाद लब्ध ज्ञान के द्वारा तुम मुझे ही पाओगे, क्योंकि तुम मेरे अति प्रिय हो इस प्रकार भक्ति द्वारा ही भक्त सभी सांसारिक अज्ञान जनित बन्धनों को तोडकर भगवान को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार ईश्वर का सर्व श्रेष्ठ साधन भक्ति है ईश्वर के प्रति निष्काम भाव से अनन्य अनुराग को भक्ति कहा गया है। गीता मैं भगवान ने बारम्बार इस प्रकार आश्वासन दिये है- मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता है-
‘‘न मैं भक्त: प्रणष्यति’’ (गीता 9/31)
ज्ञान कर्म तथा भक्तियोग का समन्वय- समस्त शास्त्रों के मन्थन से अमृत मयी गीता का आविर्भाव हुआ है। इस लिये गीता को ‘सर्व शास्त्रमयी’ कहा गया है। इसमें सभी मतों, दृष्टियों, सिद्धान्तों और विचारों का जो युक्ति युक्त समन्वय देखने को मिलता है। वह अन्यत्र दुर्लभ है। ज्ञान, कर्म और भक्ति ये तीनों मोक्ष के ही साधन बताये गये हैं। इनमें से किसी एक का आश्रय लेकर साधक आसानी से अपने साध्यों (मोक्ष) को प्राप्त कर सकता है। जैसे वामदेव, शुकदेव, आदि ज्ञानियों ने ज्ञान रूपी साधन से ईश्वर रूपी साध्य को प्राप्त किया जनक आदि महा पुरूषों ने अपने निष्काम कर्म के द्वारा ईश्वर को प्राप्त किया तथा भक्त प्रह्लाद ने आदि ने भक्ति के द्वारा ईश्वर को प्राप्त किया अत: तीनों मार्ग समयक और उचित है। तीनों में से कोई किसी मार्ग को अपना सकता है। मार्ग भले ही अलग-अलग हैं लेकिन तीनों का मन्तव्य एक ही है- ईश्वर प्राप्ति। किसी भी मार्ग का किसी के साथ कोई विरोध नहीं है। इन तीनों का समन्वय गीता के 9/34 में करते हुये भगवान कहतें है-
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरू।
मामेवैश्यसि युक्त्वै वमात्मानं मत्पराणय।। (गीता 9/34)
अर्थात् मुझमें मन लगाने वाला होओ, मेरा भक्त बनो- (भक्तियोग), मेरा पूजन कर, तथा मुझे प्रणाम कर (कर्मयोग) इस प्रकार आत्मा को मुझमें निश्चय करके (ज्ञानयोग) मेरे परायण होकर तुम मुझको ही प्राप्त होगा। अर्थात् कहने का तात्पर्य है कि भगवान के नामरूप, गुण आदि का श्रवण कीर्तन आदि भक्ति है, निष्काम भाव से यज्ञ आदि का अनुश्ठान करना निष्काम कर्म है और ईश्वर के विषय में यह जान लेना कि ईश्वर ही कर्ता, धर्ता विधाता है और एक मात्र यही सत्य है, सर्वव्यापी है, सर्वज्ञ है, परम पुरूष पुरूषोत्तम है, यही ज्ञान है, इस प्रकार गीता में तीनों मार्गों का समन्वित प्रतिपादन देखने को मिलता है।
निष्काम कर्म योग
कर्म योग वह है जिसमें कर्म की प्रधानता होती है। सकाम और निष्काम के भेद से कर्म दो प्रकार के होते है- सकाम कर्म बन्धन के हेतु होते है तो निष्काम कर्म मोक्ष के हेतु होते है। गीता को मुख्य प्रतिपाद्य विषय निष्काम कर्म है। यह वह कर्म है जिसमें कामनाओं का सर्वथा अभाव रहता है क्योंकि इसका उपदेश कर्म से पलायित अर्जुन को कर्मरत् करने के लिए उस समय दिया गया है। जब कुरूक्षेत्र में सगे सम्बन्धियों को देखकर अर्जुन मोह ग्रस्त हो जाते हैं और किं कर्तव्य विमूढ़ की अवस्था को प्राप्त हो जाते है। इस प्रकार अर्जुन युद्ध नहीं करने का निश्चय करते है। ऐसे समय में गीता का उपदेश श्री कृष्ण के द्वारा दिया गया है। कर्मयोगी कर्म फल के प्रति अनासक्त होता है क्योंकि आसक्त कर्म जीव को बन्धन में डालतें है जिससे मनुष्य विभिन्न योनियों में भटकता हुआ अधोगति को प्राप्त होता है निष्काम कर्म योगी अनासक्त भाव के कारण सुख, दु:ख, लाभ-हानि, जय-पराजय सबमें समभाव रहता है यथा-
सुख-दु:खे समेकृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैव पापं वाप्स्यसि।। (गीता 2/38)
अर्थात् अर्जुन को जय-पराजय, लाभ-हानि आदि से ऊपर उठकर क्षत्रिय धर्म रूपी स्वकर्तव्य पालन का उपदेश देते है। आसक्ति के कारण ही अर्जुन के मन भया रूढ़ वैराग्य उत्पन्न हुआ। ऎसा वैराग्य स्वभाविक न होकर बन्धन का हेतु बन रहें थ। इसी लिये श्री कृष्ण ने निष्काम कर्म करने का उपदेश दिया है। क्योंकि इस प्रकार के कर्मों का कोई शुभा-शुभ फल नहीं होता है। अत: व्यक्ति ऎसे कर्मों की माध्यम से जन्म और मृत्यु के चक्र को तोडकर सदा के लिये अपने को परमेश्वर में विलीन कर लेता है यही निष्काम कर्म ही ‘कर्मयोग’ है। गीता के द्वितीय अध्याय के 47 श्लोक में निष्काम कर्म की व्याख्या करते हुये भगवान श्री कृष्ण ने कहा है-
कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेशु कदाचन।
मा कर्म फलहेतुभ्रूमा ते संगोSस्त्वकर्मणि।।
अर्थात ‘‘ तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलो में कभी नहीं इसलिये तुम कर्मों के फल का हेतु मत बन तथा कर्म न करने में भी तेरी आसक्ति न होवे’’ यहां निष्काम कर्म के बन्धन में एक स्वाभाविक प्रश्न मन में उठता है कि कोई भी मुर्ख व्यक्ति भी किसी प्रयोजन के बिना कार्य में प्रवृत्त नहीं होते है- ‘‘ प्रयोजनमनूदिष्य मन्दों•पि न प्रवर्तते’’ इस न्याय के अनुसार निष्काम कर्म तो असम्भव है। क्योंकि यदि कोई कामना ही नहीं होगी तो हम कर्म क्यों करे ? क्योंकि कर्तापन और आसक्ति, निष्काम कर्म के दो अंग बताये गये है इन दोनों का अभाव असम्भव है अत: निष्काम कर्म भी असम्भव है। इस समस्या का समाधान करते हुये स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने कहा है-
प्रकृते क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:।
अहंकार विमूढ़ात्मा कर्ताSहमिति मन्यते।। (3/26)
अर्थात् कर्तापन का अभाव तभी सम्भव है, जब व्यक्ति यह भलि-भांति समझ ले कि इसका कर्ता मैं नहीं हूँ कर्म तो प्रकृति की गुणों द्वारा किये जाते हैं। अत: जो ज्ञानी व्यक्ति है वह यह जानता है कि सभी कर्म प्रकृति जनित गुणो द्वारा ही किया जाता है अर्थात् समस्त मनुष्य प्रकृत जनित गुणों द्वारा परवष होकर कर्म करने के लिये बाध्य होता है-
‘‘कार्यते ह्यवष: कर्म सर्व: प्रकृतिजैगुणै:’’ (गीता 3/5)।
इसलिये जो ज्ञानी मनुष्य होता है वह यह जानता है कि जो कर्ता कर्म का अभिमान वह केवल अज्ञानता के कारण है। इस प्रकार निष्काम कर्म ही वास्तविक कर्म योग है। गीता में निष्काम कर्म का उद्देश्य दो रूपों में बताया गया है- (1) आत्मशुद्धि और (2) ईश्वर के प्रयोजन को पूरा करना। पहला कर्म केवल योगी करता है। अपने समूह के लिये जिसका वह अंग होता है लेकिन दूसरे के अनुसार ईश्वर के लिए कर्म किया जाता है। और जिसका फल ईश्वर को अर्पित किया जाता है। परस्पर एक दूसरे के प्रति कर्तव्य का बोध है। और दूसरे में लोक की सेवा वह ईश्वर के लिए करता है परन्तु ध्यान देने की बात यह है कि कर्म चाहे कर्तव्य के लिये किया जाय या ईश्वर सेवा के लिए वह सम्पूर्ण अर्थों में निष्काम नहीं कहा जा सकता है। गीता में भी निष्काम का अर्थ लक्ष्यविहीनता न होकर कर्म फल के प्रति आसक्ति से विरत होने में है। गीता अपने सामाजिक और आध्यात्मिक दोनों अर्थों में लक्ष्य विहीन न होकर निष्काम कर्म योग का अनुपालन करती है। इस लिये श्री कृष्ण अर्जुन को अपने दायित्व निर्वाह करने का तथा सामाजिक दायित्व के रूप में स्वधर्म पालन करने का तथा निष्काम कर्म योगी बनने का उपदेश देते हैं। निष्काम कर्मयोगी के विषय में गीता में कहा गया है कि जो कर्म योगी अपने स्वधर्म का पालन निष्काम या अनासक्त भाव से करता है वह सांसारिक भव बन्धन से मुक्त हो जाता हैं। इस प्रकार गीता के ‘ब्राह्मी’ स्थिति को प्राप्त हो जाता है। गीता के निष्काम कर्म का उपदेश कर्तव्य के लिये कर्तव्य करने जैसा है। (Duty for Duty) व्यक्ति की श्रेष्ठता फल प्राप्ति में नहीं है बल्कि फल त्याग में है, कर्म करने की क्ुशलता भी योग है- ‘योग: कर्मसु कौशलम्’ वर्ण व्यवस्था के किसी भी वर्ण का शूद्र व्यक्ति क्यों न हों यदि वह स्वधर्म का पालन कर्तव्य निश्ठ भाव से करता है तो वही स्थिति वह भी प्राप्त करेगा। जिस स्थिति को ब्राह्मण प्राप्त करता है। क्योंकि वर्ण व्यवस्था का निर्धारण व्यक्ति के गुण और कर्म के अनुसार ही है- ‘‘चार्तुवर्णयं मया सृश्टम गुण: कर्म विभागश:’’ इस प्रकार निष्काम रूप में कह सकते है कि गीता कर्मयोग नैशकम्र्य या कर्म निशेध नहीं है किन्तु कामना का त्याग है, अर्थात् कामना के त्याग से तात्पर्य कर्म फल के त्याग से है। गीता 18/2 में कहा गया है ‘‘काम्यानाम कर्मणा न्यासं सन्यासं कवयो विदु:’’ इस प्रकार निष्काम कर्म अकर्मण्यता की शिक्षा नहीं देता है अपितु कर्म फल के त्याग की शिक्षा देता है, तथा सिद्धि असिद्धि समस्त स्थितियों में कर्तापन के अभिमान से रहित समत्व बुद्धि को उत्पन्न करता है-
‘‘सिद्ध्यसिद्भ्यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते’’। (गीता 2/48)
इस प्रकार कह सकते है कि निष्काम कर्म ईश्वरार्थ कर्म है और ईश्वरार्थ कर्म ही अनासक्त कर्म है। जो बन्धन का बाधक तथा मोक्ष का साधक है गीता में वर्णित है-
‘‘ ब्रह्मण्यधाय कर्माणि संगं त्यक्त्वा करोतिय:।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।’’ (गीता 5/10)
स्थित प्रज्ञ
जिसकी प्रज्ञा या बुद्धि आत्मा या ईश्वर में प्रतिष्ठित है वह स्थिति प्रज्ञ’ है। भगवान कहते है कि जब निष्काम कर्म योगि की बुद्धि मोह या अज्ञान रूपी पाप को छोड देगी तब सुनने योग्य और सुने हुये विषयों तुम्हें वैराग्य प्राप्त होगा अर्थात् वे विषय तुम्हारे सामने निरर्थक प्रतीत होंगें। इसके पश्चात् तुम्हारी बुद्धि समाधि में स्थित हो जायेगी और इसके बाद भी समबुद्धि की योगावस्था को प्राप्त हो जाओगें। अर्थात् बुद्धि तत्व ज्ञान में प्रतिष्ठित हो जायेगी इस प्रकार जिसे कुछ भारतीय दर्शनों में ‘‘जीवनमुक्त’’ नाम से जाना जाता है। वही गीता में ‘‘स्थित प्रज्ञ’’ है। इस प्रकार स्थित प्रज्ञ गीता में समत्व योगी को या समाधि में पहुंचे साधक के लिए प्रयुक्त हुआ है। ‘‘स्थित प्रज्ञ’’ की अवस्था निष्काम कर्म योगी की चरमावस्था का समन्वित रूप होता है यह कर्म का अपितु कर्म फल का त्याग करता है। वह संसार का नहीं अपितु संसार के प्रति अपनी आसक्ति का त्याग कर देता है। ‘‘स्थित प्रज्ञ’’ प्राप्त व्यक्ति सब प्राणियों में ईश्वर को और ईश्वर में सब प्राणियों को देखता हुआ सर्वेष्वरवादि हो जाता है। िस्थ्त प्रज्ञ रूपी समाधि में पहुंचना ब्रह्म ज्ञानी के ही वश की बात है।
‘स्थिर बुद्धि’ और स्थित प्रज्ञ दोनो को कुह लोभ भ्रम से एक मान बैठतें है किन्तु दोनों में सूक्ष्म अन्तर है गीता में भेद करते हुये स्पष्ट रूप से कहा गया है- कि स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण तो नहीं करता है अर्थात् इन्द्रियों को उनके विषयों से विमुख कर लेता है। किन्तु उन विषयों से रागात्मक निवृत्ति नहीं मिल पाती है। जबकि स्थित प्रज्ञ व्यक्ति का राग परमात्मा का साक्षातकर करके निवृत्त हो जाता है-
‘‘विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन:।
रसवर्जं रसोSप्यस्य परं दृश्टता निर्वतते।। (गीता 2/59)
इस प्रकार विषयों से इन्द्रियों का हटा लेना ही केवल स्थित प्रज्ञ का लक्षण नहीं हो सकता है। बल्कि रागात्मक विकारों से मुक्त होकर शुद्ध बुद्धि रूप आत्म प्रकाश में प्रतिष्ठित होना ही प्रज्ञा कहलाती है। ऎसी प्रज्ञा से युक्त व्यक्ति मन की अपनी चंचलता को वश में करके ‘स्थित प्रज्ञ’ हो जाता है।
स्थित प्रज्ञ की अवस्था ध्यान जन्य समाधि की अवस्था से भिन्न है क्योंकि स्थित प्रज्ञ की अवस्था जग्रता अवस्था की सहज समाधि की अवस्था है। जबकि ध्यान जन्य समाधि की अवस्था में एकाग्रता की स्थिति सप्रयास प्राप्त की जाती है और इस अवस्था में मन की वृत्तियों में भी परिवर्तन होता रहता है जबकि स्थित प्रज्ञ की अवस्था जाग्रत अवस्था होते हुये भी ईश्वर ने समाधिस्थ होने के कारण स्थिर होती है गीता के द्वितीय अध्याय में अर्जुन के द्वारा ‘स्थित प्रज्ञ’ का लक्षण जानने की जिज्ञासा (उत्सुकता) बढ़ जाती है और वह भगवान से पूंछते है कि-
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधी: किं प्रभाशेत किमासीत व्रजेत किम्।।