हाल में भारतीय रेल ने 109 जोड़ी रूटों पर 151 निजी ट्रेनों को चलाने की घोषणा की है, जिसके बाद से इसके समर्थन और विरोध में मोर्चे खुल गए हैं। रेल मंत्री पीयूष गोयल और रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष विनोद यादव कह रहे हैं कि इस पहल से रेलवे में 30 हजार करोड़ का निवेश होगा। यह रेलवे का निजीकरण नहीं, बल्कि भागीदारी है। वर्ष 2023 तक जब ये ट्रेनें चलने लगेंगी तो नजारा बदला होगा। इन ट्रेनों के परिचालन से सभी यात्रियों को कंफर्म टिकट मिलने लगेगा और सुविधाओं का विस्तार होगा। प्रस्तावित निजी ट्रेनों के रखरखाव के साथ वित्तीय व्यवस्था व संचालन उनका ही जिम्मा होगा। भारतीय रेल के मानकों और दिशानिर्देशों का पालन भी उनको करना होगा। मौजूदा 2,800 मेल-एक्सप्रेस ट्रेनों की केवल पांच फीसद हिस्सेदारी निजी क्षेत्र के हवाले होगी।
इन ट्रेनों का लोको पायलट और गार्ड रेलवे का ही होगा और सेफ्टी क्लियरेंस आदि भी रेलवे के माध्यम से होगा। इनकी गति भी 160 किमी प्रति घंटा होगी। दावे बहुत से हो रहे हैं, लेकिन यह बात रेलवे के नीति निर्माताओं को भी पता है कि निजी ट्रेनों के चलने से अधिक सुविधा संपन्न लोगों के हिस्से में भले अधिक धन व्यय करके अच्छी सुविधा मिल जाए, पर आम मुसाफिरों की न तो दुनिया बदलने वाली है, ना ही रेलवे का कायाकल्प होने वाला है।
सवाल केवल रेलगाड़ी चलाने का ही नहीं है। वर्ष 2019-20 के बजट भाषण में वित्त मंत्री ने ट्रैक बनाने से लेकर, रोलिंग स्टॉक और यात्री व माल भाड़ा सेवा में पीपीपी का प्रस्ताव किया था। वर्ष 2020-21 के बजट में वे सारी बातें कही गई हैं जो अब हो रही हैं। 17 मार्च को राज्यसभा में सांसदों ने रेलवे के निजीकरण के प्रयासों का विरोध किया। रेल मंत्री पीयूष गोयल ने इस आधार पर निजी निवेश की वकालत की कि हम रेलवे को विश्व स्तरीय बनाना चाहते हैं। 12 वर्षो में पीपीपी के जरिये 50 लाख करोड़ का निवेश होगा, लेकिन रेलवे के निजीकरण का कोई प्रस्ताव नहीं है।
हकीकत यह है कि ये सारे कदम रेलवे को नीति आयोग के आगे विवश होकर उठाने पड़ रहे हैं। वह छह हवाई अड्डों के अनुभवों के आधार पर रेलवे के साथ प्रयोग को आगे बढ़ाना चाहता था। इसके लिए सचिवों की एक समिति भी बनी थी। इसके तहत ट्रेनों का संचालन ही नहीं, स्टेशनों का विकास भी प्राइवेट कंपनियों के हवाले किया जाना है। स्टेशन पुनíवकास कार्यक्रम के तहत निजी पार्टयिों को भूमि और इस पर बनी संरचनाओं के उपयोग के लिए एक निर्धारित अवधि के लिए लीज अधिकार मिलेंगे। लेकिन इधर ऑल इंडिया रेलवे मेन्स फैडरेशन ने निजी रेलगाड़ी चलाने पर आपत्ति जताई है और कहा है कि जब रेल कर्मचारी कोरोना और प्रतिकूल हालात में भी ट्रेनों का संचालन करने में सक्षम हैं तो प्राइवेट ऑपरेटरों को आमंत्रित करने का मतलब क्या है।
आज भारतीय रेल का नेटवर्क करीब 68 हजार किमी हो चुका है। लेकिन इसके 34 हजार किमी नेटवर्क पर सबसे अधिक दबाव है जो 96 फीसद यात्री और माल यातायात ढो रहा है। इसमें से भी 11 हजार किमी का नेटवर्क 60 फीसद यातायात संभाल रहा है। इनकी स्थिति में सुधार की संभावना दिसंबर 2021 तक होगी जब डेडीकेटेड फ्रेट कॉरिडोर बन जाएगा। अभी तो माल और यात्री गाड़ियां एक ही ट्रैक पर चल रही हैं। फ्रेट कॉरिडोर से सबसे अधिक दबाव वाले बड़े हिस्से की तस्वीर बदल जाएगी। ऐसा होने पर सबसे बोझ वाला नेटवर्क मार्च 2025 तक 160 किमी की गति वाली गाड़ियां संभालने में सक्षम हो जाएगा। रेलवे ने बेशक इनको सबसे प्राथमिकता वाली सूची में शामिल किया है, लेकिन सारा दारोमदार संसाधनों की उपलब्धता पर है।
उदारीकरण के बाद निजी निवेश के रेलवे के प्रयासों में कभी यात्री ट्रेनों का संचालन शामिल नहीं रहा। वर्ष 1992 में ओन योर वैगन स्कीम शुरू की गई जिससे सालाना 500 करोड़ रुपये निवेश की उम्मीद थी, लेकिन 40 करोड़ से कम निवेश हुआ। कई दूसरे मॉडल से जो धन आया वह रेलवे जैसे संगठन के लिए ऊंट के मुह में जीरा से अधिक नहीं था। उदारीकरण के बाद बहुत कुछ बदला, लेकिन रेल और डाक क्षेत्र में सरकारी एकाधिकार कायम रहा, क्योंकि निजी क्षेत्र के मामले में जो नीति बंदरगाहों, दूरसंचार, विद्युत, सड़क और हवाई अड्डों के मामलों में सफल रही, वह रेलवे के मामले में विफल साबित हुई।
फिर भी पहले योजना आयोग और बाद में नीति आयोग पीपीपी के लिए दबाव बनाता रहा। भारतीय रेल ने चर्चगेट-विरार मुंबई उपनगरीय रेल कॉरिडोर, मुंबई अहमदाबाद हाई स्पीड कॉरिडोर, स्टेशनों का पुनíवकास, लॉजिस्टिक पार्क और निजी माल टíमनल, बंदरगाह कनेक्टिविटी और डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर का सोननगर-दानकुनी खंड के साथ इंजन और रेल कोच कारखाने तक आगे किए गए, लेकिन निवेश कितना आ सका? जो निजी क्षेत्र जहाज उड़ाने के साथ सड़क भी बना रहा है, वह रेल लाइन क्यों नहीं बिछा सका? इस नाते कि उसमें वह वैसी वसूली नहीं कर सकता जो टोल पर या ट्रेन में टिकट के मामले में कर सकता है। उसने रेलवे की खानपान सेवाओं पर मजबूती से कब्जा जमाया, लेकिन रेल इतिहास में पहली बार सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में यहां तक टिप्पणी कर दी कि रेलगाड़ियों में परोसा जाने वाला खाना इंसानों के खाने लायक नहीं। हालांकि तेजस जैसी ट्रेन अभी आइआरसीटीसी यानी रेलवे के ही नियंत्रण में है, इस नाते उसकी गुणवत्ता बरकरार है।
दूसरी प्रमुख बात गति की भी है। अगर स्वदेशी प्रयासों से भारतीय रेल सेमी हाई स्पीड ट्रेन वंदे भारत बना व चला सकता है, तो बाकी गतिशील गाड़ियां क्यों नहीं? भारतीय रेल ने हाल के वर्षो में स्वदेशी प्रयासों से कई बड़ी उपलब्धियां हासिल की हैं। फिर अपनी विशेषज्ञता वाले क्षेत्र को किसी और के हवाले क्यों करें? रेलवे के कायाकल्प का यह एकमात्र रास्ता नहीं है।
भारतीय रेल आम आदमी के लिए सबसे सस्ता, सुरक्षित और भरोसेमंद परिवहन साधन है। अब तक इसे कारोबार के बदले सामाजिक दायित्वबोध के तहत चलाया जाता रहा है। भले इसका नाम यात्री व्यवसाय है, पर नीति निर्माताओं ने इसे इसी रूप में लिया है। भारतीय रेल के 95 फीसद यात्री साधारण सवारी गाड़ी तथा मेल-एक्सप्रेस गाड़ी के अनारक्षित और गैर वातानुकूलित श्रेणी में सफर करते हैं। उनकी सेवाओं का स्तर गिर रहा है। जरूरत इस बात की है कि उन सेवाओं को बेहतर बनाया जाए जिस पर सबसे अधिक लोग चलते हैं
भारतीय रेलवे कुछ चुनिंदा रूटों पर प्राइवेट ट्रेन चलाने की तैयारी में है। इसके लिए रेल मंत्रलय ने 151 आधुनिक ट्रेनों के माध्यम से 109 जोड़ी रेलमार्गो पर निजी कंपनियों द्वारा यात्री रेलगाड़ी चलाने की अनुमति देने के लिए पात्रता आवेदन मांगे हैं। भारत में इन रेलगाड़ियों का संचालन सार्वजनिक-निजी भागीदारी यानी पीपीपी मॉडल के अंतर्गत किया जाएगा। इसमें 30,000 करोड़ रुपये तक का निजी निवेश होने की संभावना है। इन आधुनिक ट्रेनों में से अधिकांश को मेक इन इंडिया के तहत भारत में ही बनाया जाएगा। इससे बड़ी मात्र में रोजगार सृजन होगा। हालांकि इस प्रोजेक्ट को क्रियान्वित करते समय रेलवे के सामने बड़ी चुनौती यह सुनिश्चित करने की होगी कि निजी और सार्वजनिक हितधारकों के बीच विवादों का समुचित समाधान कैसे किया जाए।
इस बात पर बहस तेज हो गई है कि क्या सरकार रेलवे के पूर्ण निजीकरण की राह पर चल पड़ी है? दरअसल बंदरगाहों, हवाई अड्डों और सड़कों जैसे परिवहन क्षेत्रों की तुलना में अब तक भारत में निजी क्षेत्र की रेलवे में भागीदारी बहुत कम रही है यानी परिवहन के दूसरे साधनों पर निजी क्षेत्र का वर्चस्व एक हकीकत है। वहीं रेल सेवाओं पर भारत सरकार का एकाधिकार है और रेलवे का संपूर्ण इंफ्रास्ट्रक्चर रेलवे बोर्ड द्वारा प्रबंधित है। लेकिन चिंता की बात यह है कि भारतीय रेलवे कुछ ऐसे सरकारी स्वामित्व वाले उद्यमों में से एक है, जो निरंतर घाटे में चल रहा है। वर्षो से किसी भी राजनीतिक दल ने इसे सही करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं दिखाई है। नतीजन यह बोङिाल व अक्षम संगठन बना हुआ है और भारतीय रेलवे घरेलू एयरलाइंस और राजमार्गो से कड़ी प्रतिस्पर्धा का भी सामना कर रहा है।
रेलवे के अधिकांश ट्रेनों में लोगों को सबसे अधिक शिकायत यह रहती है कि प्रदान की गई सेवाओं की गुणवत्ता यात्रियों द्वारा किए गए भुगतान से मेल नहीं खाती है। उम्मीद की जा रही है कि रेलवे में निजीकरण के बाद उपरोक्त समस्या का समाधान किया जा सकता है। निजीकरण से रेलवे कोच, सुरक्षा और यात्र के अनुभव में नवीनतम तकनीक को समायोजित करने में मदद मिलेगी, जिससे भारतीय रेलवे को विश्व स्तरीय नेटवर्क बनने में मदद मिल सकती है। भारत में ट्रेनों की लेटलतीफी के मामले जगजाहिर हैं। ट्रेनों का समय पर परिचालन एक बड़ी चुनौती की तरह है। अच्छी बात यह है कि जिन निजी कंपनियों को 151 ट्रेनों को संचालित करना है, उन्हें समय-सारणी के हिसाब से परिचालन में 95 प्रतिशत समयबद्धता का पालन सुनिश्चित करना होगा।
इस बीच ट्रेड यूनियन भारतीय रेलवे में निजी पूंजी को शामिल करने का विरोध कर रहे हैं। उनकी सबसे बड़ी चिंता रेल कर्मचारियों की छंटनी से जुड़ी हुई है। हालांकि निजी ट्रेनों के परिचालन से नौकरी खोने का तर्क आधारहीन है, क्योंकि रेलवे द्वारा वर्तमान में उपलब्ध ट्रेनों के अलावा नवीन प्राइवेट ट्रेनें चलाई जाएंगी। आज रेल नेटवर्क पर भारी दबाव है और लंबित परियोजनाओं के लिए बड़ी मात्र में निवेश की जरूरत है। यही वजह है कि केंद्र सरकार निजीकरण की दिशा में आगे बढ़ रही है।
पिछली सदी के आखिरी दशक से ही रेलवे को सरकारी नियंत्रण से निकालकर निजी कंपनियों को देने का काम दुनिया के अधिकांश देशों में हो रहा है। भारत ने भी इस ओर कदम बढ़ा दिए हैं, लेकिन इस प्रयोग की आलोचना भी हो रही है। ऐसी आशंका जताई जा रही है कि निजी ट्रेनों के परिचालन से रेल यात्र महंगी होगी। वैसे प्राइवेट ट्रेनों के किराये की प्रतिस्पर्धा उन्हीं मार्गो पर चलने वाली बस सेवा और हवाई सेवा से होगी। इसलिए निजी ट्रेनों को संचालित करने वाले ऑपरेटरों के लिए बहुत अधिक किराया वसूलना व्यवहार्य नहीं होगा।