फ्रांस की क्रांति: उदय की परिस्थितियां और परिणाम

French Revolution: Circumstances and Consequences of Rise.

 

फ्रांस की राज्य क्रांति 18 वीं शताब्दी के उन अत्यंत महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक थी, जिसने यूरोपीय जन जीवन, राजनीतिक व्यवस्था व समाजार्थिक व्यवस्था में नाटकीय परिवर्तन ला दिया.

इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बात यह थी कि 18 वीं शताब्दी का फ्रांस यूरोप के सर्वाधिक सम्पन्न देशों में से एक था जिसकी आबादी इंग्लैण्ड एवं स्पेन की आबादी से बहुत ज्यादा थी, आर्थिक विकास बढ़िया था एवं सेना व्यवस्थित एवं अनुशासित थी. सभ्यता, संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान के मामले में भी फ्रांस एक अग्रणी राष्ट्र था. यूरोप के अन्य देशों के मुकाबले फ्रांस के कृषकों की आर्थिक अवस्था कहीं बेहतर थी.

फ्रांस की राज्यक्रांति भी 1789 ई. में तब हुई जब फ्रांस की आर्थिक विकास दर बेहतर हो रही थी. ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि प्रकट रूप से क्रांति के महत्वपूर्ण कारक उपस्थित नहीं होने के बावजूद फ्रांस में ऐसी व्यापक क्रांति कैसे हो गई जिसने न सिर्फ राजशाही को उखाड़ फेंका बल्कि एक व्यवस्था के रूप में सामन्तवाद का भी सफाया कर दिया.

इसके लिए तत्कालीन फ्रांस की सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक व्यवस्था में निहित उन सूक्ष्म कमियों व अंतर्विरोधों का अध्ययन जरूरी है जिन्होंने फ्रांसीसी क्रांति की आधार भूमि तैयार की. साथ ही, क्रांति में बौद्धिक वर्ग की भूमिका का सम्यक विश्लेषण भी आवश्यक है. इन्हें निम्नलिखित उपशीर्षकों के अंतर्गत समझा जा सकता है

फ्रांस की क्रांति का कारण.  The reason for the French Revolution in hindi.

फ्रांस की क्रांति की शुरुआत किन परिस्थितियों में हुई.

क) फ्रांसीसी समाज के अंतर्विरोधी तत्व

1.) इस समय फ्रांसीसी समाज तीन प्रमुख वर्गों में विभक्त था- पादरी वर्ग, सामंत वर्ग एवं सामान्य वर्ग। प्रथम दो वर्ग विभिन्न विशेषाधिकारों के अधिकारी थे एवं करारोपण से भी मुक्त थे। दूसरी ओर सामान्य वर्ग में मध्य वर्ग के व्यापारी, पूंजीपति, बुद्धिजीवी एवं विभिन्न पेशेवर समूह के लोगों के साथ-साथ निम्न वर्ग के लोग यानी कृषक, दस्तकार, श्रमिक आदि शामिल थे। इस सामान्य वर्ग के पास न तो विशेषाधिकार थे, न सामाजिक प्रतिष्ठा बल्कि करारोपण का सारा बोझ इसी वर्ग पर था।

2.) इस संदर्भ में महत्वपूर्ण बात यह थी कि फ्रांस के मध्य वर्ग की आर्थिक हैसियत यूरोप के अन्य देशों के मध्य वर्ग से बेहतर भी परन्तु इस बेहतर आर्थिक हैसियत के बावजूद उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा नाममात्र की थी। बेहतर आर्थिक स्थिति के कारण उनकी उच्चतर सामाजिक प्रतिष्ठा पाने की महत्वाकांक्षा बढ़ने लगी थी और साथ ही कुलीनों एवं पादरियों के बढ़ते विशेषाधिकारों के प्रति विरोध चेतना भी पनपने लगी थी।

३.) कृषकों व श्रमिकों की हालत तुलनात्मक दृष्टि से शोचनीय थी क्योंकि विभिन्न प्रकार के करों के अलावा उन्हें नजराना व टोल टैक्स भी देना पड़ता था। करों की दरें भिन्न-2 जगहों पर भिन्न-भिन्न होने के कारण राजकीय कर्मचारियों को उनके शोषण का भी बराबर मौका मिलता रहता था।

दूसरी ओर, फ्रांस की कुलीन वर्ग दूरवासी जमींदारों की तरह था, जो कृषि एवं कृषकों की उन्नति के लिए ठोस प्रयास करने के लिए अनिच्छुक था। इस स्थिति के लंबे समय तक जारी रहने पर विरोध उठना लाजमी था।

किसी भी समय कृषि क्षेत्र में अवनति उत्पन्न होने पर कृषकों की दशा और शोचनीय हो सकती थी| उनके द्वारा विद्रोह किए जाने की संभावना पनप सकती थी। 1780 के दशक के उत्तरार्द्ध में ऐसी ही स्थिति आई, जब 1785 में सूखे एवं 1788 ई. में अतिवृष्टि के कारण फसलें चौपट हो गई।

एक विशेष बात यह भी थी कि कुलीन वर्ग यद्यपि सम्पन्न एवं विशेषाधिकार प्राप्त था पर फ्रांस के शासक लुई चौदहवें के समय राजा की शक्ति में व्यापक वृद्धि होने एवं अपने विशेषाधिकार कम होने से अप्रसन्न था। यद्यपि लुई पंद्रहवे के शासनकाल में उनके कुछ विशेषाधिकार वापस मिल गए थे। परन्तु राजतंत्र के विरुद्ध उनके मन में भी असंतोष व्याप्त हो गया था।

ख) आर्थिक व्यवस्था के विरोधाभास

स्थूल रूप से 18 वीं सदी का फ्रांस आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न था, परन्तु इस सम्पन्नता के भीतर कई कमियां विद्यमान थी। फ्रांस का पादरी एवं सामंत वर्ग तो अमीर था परन्तु फ़्रांस की सरकार कंगाली की स्थिति में थी.

सप्तवर्षीय युद्ध, पूर्ववर्ती शासक लूई 14वें के समय के खर्चीले युद्धों व अमेरिकी स्वतंत्रता संघर्ष में फ़्रांस के हस्तक्षेप के कारण हुए युद्धों पर व्यय के कारण सरकारी खजाना खाली हो चूका था.

2.) बढ़ते व्यय की पूर्ति के लिए अतिरिक्त कराधान आवश्यक था, पर फ्रांस की क्रांति की पूर्व संध्या पर शासन कर रहे लुई सोलहवें द्वारा इस दिशा में किए गए प्रयास निष्फल रहे. मूल बात तो यह थी कि पादरी व सामंत वर्ग, जिनके पास पर्याप्त दौलत थी, कोई कर अदा करने के लिए तैयार ही नहीं थे जबकि कृषक व श्रमिक जो फ्रांस की आबादी का बहुलांश थे, पहले से ही करों के बोझ से इतने दबे थे कि कोई और अतिरिक्त कर अदा करने की उनमें क्षमता ही नहीं था।

३.) फ्रांस की सरकार का वित्तीय प्रशासन भी एकदम लचर था एवं बढ़ते हुए व्यय को ऋण लेकर पूरा करने की प्रवृत्ति ने आर्थिक स्थिति को जर्जर बना दिया था।

4.) 1770 एवं 1780 का दशक फ्रांस में आर्थिक मंदी का काल था जब औद्योगिक मंदी के कारण उत्पादन कम होने लगा एवं बेरोजगारी बढ़ने लगी। फिर कृषि क्षेत्र भी मंदी की चपेट में आ गया एवं प्राकृतिक आपदाओं क कारण असर पड़ा। एक लंबे समय तक आर्थिक उन्नति का लाभ उठा रहे फ्रांसवासियो के लिए इन मुसीबतों का सामना करना मुश्किल था.

राजतंत्र द्वारा इस स्थिति में सुधार करने के प्रयासों की निष्फलता से जनता का राष चरम पर पहुँच गया.

(ग) निरंकुश राजतंत्र की भूमिका

1.) अन्य शासकों की तरह लुई सोलहवां भी निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी शासक था। यद्यपि वह ईमानदार व उत्साही था परन्तु अपने जिद्दी एवं षड्यंत्रकारी स्वभाव के कारण वह फ्रांस में एक दक्ष प्रशासन की स्थापना नहीं कर पाया। उसे और उसके चाटुकार मंत्रियों को आमोद-प्रमोद एवं शिकार में ज्यादा दिलचस्पी रहती थी।

2.) लुई सोलहवें की एक बड़ी समस्या उसकी रानी मेरी एन्तोएनेत भी थी जो फिजुलखर्च व बदमिजाज थी। उसने अपने अनावश्यक हस्तक्षेपों से राजतंत्र एवं प्रशासन दोनों पर अनुचित प्रभाव छोड़ा एवं जनता में राजशाही के लिए गुस्से को और भड़का दिया।

३.) लुई सोलहवें की एक अन्य समस्या उसमें दृढ इच्छाशक्ति का अभाव भी थी। उसने तुर्गो एवं नैकर जैसे योग्य मंत्रियों का नियुक्ति इस उद्देश्य से की थी कि वे फ्रांसीसी कुलीन वर्ग एवं पादरी वर्ग को कर अदा करने के उपाय निकाले गए परन्तु जब इन मंत्रियों ने ऐसी संस्तुतियां की तो कुलीन वर्ग के दबाव में आकर उसने इन मंत्रियों को पद मुक्त कर दिया। इससे सामान्य जनता को यह विश्वास हो गया कि राजशाही कुलीन वर्ग के हाथों की कठपुतली एवं आम जनता के हितों की विरोधी है।

(घ) दार्शनिकों की भूमिका

फ्रांस की क्रांति में दार्शनिकों की भूमिका को लेकर इतिहासकारों में मतैक्य का अभाव है। कुछ विद्वानों का मत है कि फ्रांस की क्रांति फ्रांस की राजव्यवस्था, समाज व अर्थव्यवस्था में व्यस्त विरोधाभासों के कारण हुई, वहीं दूसरी ओर कई अन्य विद्वान यह दावा करते हैं कि क्रांति ज्ञानोदय प्रबोधन के विचारों से ओतप्रोत दार्शनिकों के द्वारा लाई गई. क्योंकि पुरानी फ्रांसीसी व्यवस्था को तो सुधारों के द्वारा भी ठीक किया जा सकता था, उसके लिए इतनी व्यापक क्रांति की क्या आवश्यकता थी?

वास्तव में फ्रांस की क्रांति होने के पहले ही मांटेस्क्यू, लॉक, वाल्टेयर, रूसो जैसे विद्वानों ने फ्रांस के बौद्धिक वातावरण में हलचल मचा दी थी। इन्होंने शक्ति की निरंकुशता पर प्रभावी नियंत्रण, सीमित राजतंत्र, व्यक्ति के अधिकारों व मनष्यों की समानता जैसे सिद्धांतों का प्रचार किया।

एडम स्मिथ की मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था के सिद्धांतों एवं अन्य विचारों द्वारा फ्रांस की सामंतवादी व्यवस्था में व्याप्त सामंतवादी विशेषाधिकारों एवं प्रतिबन्धों की आलोचना का भी जनता पर व्यापक असर न विचारकों की रचनाओं से जनता में क्रांतिकारी चेतना का प्रसार हुआ एवं विद्यमान व्यवस्था की कमियों की जानकारी पाकर उनमें इस व्यवस्था से असंतोष प्रबल होने लगा।

परन्तु यह कहना समीचीन नहीं कि दार्शनिकों के विचार फ्रांसीसी क्रांति के कारण थे। वास्तव में इन दार्शनिकों के कभी क्रांति की बात नहीं की वरन वे स्थूलतः मध्यवर्गीय चिंतक थे जो प्रधानतः शांतिपूर्ण तरीकों से व्यवस्था सुधारों के पक्षधर थे।

उन्होंने तो उन्ही कमियों को उजागर किया जो फ्रांस की व्यवस्था में पहले से विद्यमान थी और जिनके विरुद्ध जनता में असंतोष पैदा होना स्वाभाविक था. दार्शनिकों एवं बुद्धिजीवियों ने इस असंतोष को बढ़ाने में भूमिका जरूर निभाई. जब एक बार क्रांति पैदा शुरू हो गयी तो क्रांति के नेताओं ने जनता को लामबंद व उत्तेजित करने के लिए इन बुद्धिजीवियों के विचारों व वक्तव्यों का जोर शोर से उपयोग करना शुरू कर दिया।

उक्त कारणों के अतिरिक्त अमेरिकी क्रांति में लफायते के नेतृत्व में लड़ने वाली फ्रांसीसी सेना भी अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम की जन सहभागिता एवं जनता की सर्वोच्चता के आदर्शों से प्रभावित होकर लौटी थी एवं फ्रांस की विद्यमान असमानताओं से क्षुब्ध थी। इन सैनिकों ने भी राष्ट्रवादी भावनाओं के प्रसार में अपना योगदान दिया।

फ्रांस की क्रांति का प्रारंभ. France ki kranti ki shuruaat. Start of the french revolution in hindi.

उपर्युक्त पृष्ठभूमि में फ्रांस में क्रांति के लिए माहौल तैयार हो चुका था। जब वित्तीय संकट से निकलने के लिए लुई सोलहवें के सारे प्रयास निष्फल हो गए तो उसे मजबूरन संसद की मदद लेनी पड़ी। परन्तु संसद ने यह निर्णय दिया कि उसे नए कर लगाने का अधिकार नहीं है और ऐसा ‘स्टेट्स जनरल’ नामक निकाय ही कर सकता है जिसकी बैठक पिछले 175 वर्षों से नहीं हुई थी।

मजबूरन, लुई सोलहवें को स्टेटस जनरल की बैठक बुलानी पड़ी। इस स्टेट्स जनरल के तीन भाग थे जिसमें प्रथम एवं द्वितीय स्टेट पादरी वर्ग एवं कुलीन वर्ग के थे जबकि तीसरा स्टेट सामान्य वर्ग का था जिसमें मध्य व निम्न वर्ग के प्रतिनिधि शामिल थे।

जब स्टेट जनरल की बैठक हुई तो प्रथम एवं द्वितीय स्टेट ने अपनी अलग-अलग बैठकें की। तीसरे स्टेट ने इसके विपरीत संयुक्त बैठक की मांग की और साथ ही इस बात की थी मांग की कि तीसरे स्टेट की सदस्यों की संख्या पहले एवं दूसरे स्टेट के सदस्या का संख्या से दुगनी हो।

इस बात पर भंयकर मतभेद व गतिरोध उत्पन्न हो गया। जब राजा ने मई 1789 ई. में स्टेट्स जनरल का बैठक दोबारा बुलाई तो तीसरे स्टेट ने विद्रोही स्वरूप अख्यिार कर लिया एवं स्वयं को फ्रांस की राष्ट्रीय असेम्बली घोषित कर दिया।

उनके नेताओं ने 20 जन, 1789 को सभा भवन बंद रहने पर पास के टेनिस कोर्ट में शपथ ली कि जब तक वे फ्रांस के नए सावधान का प्रारूप तैयार नहीं कर लेगें, अलग नहीं होंगे।

सम्राट ने इसी दौरान लोकप्रिय मंत्री नैकर को अपदस्थ कर दिया व पेरिस-वसीय की मोर्चाबंदी के लिए 20 हजार सैनिक नियुक्त कर दिए। विरोध में जनता ने पेरिस के निकट बास्तील के किले पर हमला कर शस्त्रास्त्र लूट लिए।

इसी दिन (14 जुलाई, 789 ई.) को फ्रांस के मुक्ति दिवस के रूप में मनाया गया। इसे क्रांति की विधिवत शुरुआत माना गया।

मजबूर होकर सम्राट को नेशनल असेम्बली को मान्यता देनी पड़ी। पेरिस में भी सत्ता क्रांतिकारियों के हाथों में आ गई व सम्राट को बाध्य होकर लफायते को नेशनल गार्ड का प्रधान नियुक्त करना पड़ा।

इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि फ्रांस की राज्यक्रांति कई चरणों में सम्पन्न हुई एवं उक्त घटना प्रथम चरण का भाग थी। प्रवृत्तियों व घटनाओं के अनुसार फ्रांस की क्रांति को प्रायः निम्नलिखित चरणों में बांटा गया

  • संवैधानिक राजतंत्र का चरण- 1789-1792
  • उग्र गणतंत्रवाद का काल- 1792-94
  • उदार गणतंत्रवाद का काल
  • थर्मोडोरियन गणतंत्रवाद का काल – 1794-1799

तथापि फ्रांस की राज्य क्रांति व उसके निहितार्थों को अच्छी तरह समझने के लिए नेपोलियन के उत्कर्ष व पराभव के दरम्यान फ्रांस की स्थिति को परखना भी आवश्यक समझा जाता है. जब प्रजातंत्र की ओट में नेपोलियन ने अपनी तानाशाही स्थापित की व क्रांति के आदर्शों को ही उलटने का प्रयास किया।

संवैधानिक राजतंत्र का चरण (1789-1792)

बास्तीन के पतन के साथ ही क्रांति के पहले चरण की शुरुआत हो गई थी। इसके साथ ही तीव्र संस्थागत परिवर्तनों का दौर शुरू हुआ। 27 अगस्त, 1789 ई. को संविधान सभा ने मानव एवं नागरिक अधिकारों की घोषणा की।

इसके अनुसार, यह घोषित किया गया कि सभी मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुए हैं व उनके अधिकार भी समान होते हैं। सामाजिक विभेदों का आधार केवल सामान्य उपयोगिता हो सकती है। सभी नागरिकों को कानून के समक्ष समान माना गया व सरकार का यह दायित्व घोषित किया गया कि वह मनुष्य के प्राकृतिक अधिकारों स्वतंत्रता, सम्पत्ति, जान माल की सुरक्षा करेगी।

अत्याचार के प्रतिरोध को भी प्राकृतिक अधिकारों में शामिल किया गया था। इससे पहले 4 अगस्त, 1789 ई. में नेशनल असेंबली द्वारा सामन्तवाद के खात्मे की भी घोषणा कर दी थी। हालांकि सामंतों को अपने कई अधिकार छोड़ने के लिए कुछ मुआवजा भी दिया गया एवं सम्पत्ति का अधिकार प्राप्त कर उन्होनें अपनी स्थिति को सुरक्षित भी कर किया पर एक व्यवस्था के रूप में सामंतवाद फ्रांस से समाप्त हो गया।

यद्यपि कार्यकारिणी के स्तर पर नेशनल असेम्बली अपने कार्यों में सक्रिय थी वहीं जुलाई- अगस्त, 1789 ई. में फ्रांस के सीमावर्ती क्षेत्रों में कृषकों के अनेक छोटे विद्रोह हुए क्योंकि उन्हें महसूस हो रहा था कि फ्रांस की क्रांति में मध्य वर्ग एवं कुलीन वर्ग का गठजोड़ हो गया है। और अंततः उन्हीं के हितों की पूर्ति होगी।

इसके बाद फ्रांस में बड़ी संख्या में महिलाओं ने भी अन्न की बढ़ती कीमत व राजशाही की निष्क्रियता के विरोध में एक बड़ा आंदोलन किया। कृषक विद्रोहों का परिणाम यह हुआ था कि नेशनल असेम्बली ने सामंतवाद व सामंती विशेषाधिकारों की समाप्ति की घोषणा कर दी थी। स्त्रियों ने तो 1789-1795 तक विभिन्न तरीकों से क्रांति में अपनी भागीदारी की पर तत्कालीन पुरुष प्रधान समाज में उनकी बातों पर कोई खास तवज्जो नहीं दी गई।

बहरहाल, इसके बाद नवंबर 1789 ई. में नेशनल असेम्बली ने पादरी वर्ग को भी अपने नियंत्रण में लाने का द्वारा उनकी नियुक्ति, उन्हें स्थानीय शासन का कार्यभार सौंपने व उन्हें वेतन भोगी बनाने के नियम बनाए गए। इसमें भी जहाँ मध्य वर्ग के हित सधे, वहीं निम्न वर्ग के कृषकों व श्रमिकों के हितों की अनदेखी की गई. इससे उनमें असंतोष बढ़ने लगा.

1791 ई. में नेशनल असेम्बली ने नए संविधान का निर्माण कर लिया। इसमें भी मध्य वर्ग का हित साधन किया गया. इसके तहत सीमित राजतंत्र का प्रावधान किया गया।

यद्यपि मानव व नागरिक अधिकारों की घोषणा में सभी नागरिकों को समान माना गया था परन्तु मतदान का अधिकार केवल धनराशि के रूप में कर अदा करने वालों को ही दिया गया।

नेशनल असेम्बली को ही राष्ट्रीय विधान सभा बना दिया गया व उसे युद्ध व संधि करने के अधिकार सौंपे गए। चर्च की शक्ति को और भी सीमित कर दिया गया। लुई सोलहवें को ही फ्रांस का सम्राट बने रहने दिया गया।

उग्र गणतंत्रवाद का चरण (1792-1794)

संवैधानिक राजतंत्र के चरण से ही फ्रांस एवं शेष यूरोप में फ्रांसीसी क्रांति की प्रतिक्रिया विभिन्न रूपों में सामने आ थी। राजशाही की शक्ति के न्यूनतम करण व पादरी वर्ग की शक्तियों पर प्रभावी अंकुश लगाने के कारण फ्रांस के कैथोलिक धर्मावलंबियों, राजतंत्र समर्थकों एवं फ्रांसीसी प्रवासियों की क्रांति विरोधी शक्तियों को एकजुट कर दिया|

इसने आस्टिया व प्रशा जैसे देशों को भी फ्रांसीसी क्रांति के विरुद्ध कर दिया, क्योंकि फ्रांसीसी क्रांति के प्रभाव के कारण यूरोप के असर म भी विद्रोह पनपने लगे थे। ऐसी स्थिति में प्रशा व आस्ट्रिया ने फिर से फ्रांस में सशक्त राजतंत्र की स्थापना का संकल्प लिया|

इसके जवाब में फ्रांस की नेशनल असेम्बली ने उसके अत्यंत प्रभावी रैडिकल समूह जिरोंदिस्तों के प्रभाव में इन दोनों देशों के विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया।

जिरोंदिस्तों ने फ्रांस के जनमानस को युद्ध के लिए आंदोलित किया व सितंबर, 1792 ई. को फ्रांस को गणतंत्र घोषित कर दिया| सारी शक्तियां एक नवगठित कार्यकारी निकाय ‘कम्यून’ को सौंप दी गई। सितंबर, 1792 ई. में हजारों लोगों व नेताओं को क्रांति विरोधी होने का आरोप लगाकर कत्ल कर दिया गया।

लुई सोलहवें ने अपनी शक्ति दुबारा हासिल करने के लिए जब फ्रांस से पलायन करने का प्रयास किया तो उसे पकड़ लिया गया एवं मुकदमा चलाकर जनवरी, 1793 ई. में मौत की सजा दी गई।

इस बीच जिरोदिस्तों को जैकोबिन नामक एक राजनीतिक समूह जो नेशनल कन्वेंशन का एक महत्वपूर्ण घटक था, की बढ़ती शक्ति से खतरा महसूस होने लगा था।

नेशनल कन्वेंशन की स्थापना बदली परिस्थितियों में एक नए संविधान के निर्माण के लिए की गई थी। जिरोंदिस्तों एवं जैकोबिनों के बीच हुए गृहयुद्ध में जैकोबिनों की जीत हुई जिन्होंने 20000 लोगों की समर्थक भीड के साथ मिलकर राष्ट्रीय विधानसभा से जिरोदिस्त नेताओं को बाहर निकाल कर मार डाला।

इसके बाद जैकोबिनों का आतंक राज्य शुरू हुआ। जैकोबिन्स ने स्वतंत्रता एवं गणतंत्र के शत्रु होने का आरोप लगाकर अपने हजारों विरोधियों को मार डाला। जैकोबिनों ने अपने नेता राब्सपियर के नेतृत्व में सार्वजनिक सुरक्षा समिति का गठन किया था जिसने यह आतंक राज कायम किया था।

दूसरी ओर जन कल्याण समिति व ऐसी कुछ अन्य समितियों के माध्यम से जैकोबिन ने प्रत्यक्ष गणतंत्र की स्थापना की व मजदूरों की मांग पर खाद्यान्नों, इंधन, वस्त्र सहित तमाम वस्तुओं की कीमतों को नियंत्रित करना शुरू कर दिया।

परन्तु जैकोबिनों की इस उग्र गणतंत्रवादी सरकार का भी शीघ्र ही जनता से सम्पर्क टूट गया व उसमें तानाशाही प्रवृत्ति विकसित हो गई। अन्ततः जुलाई, 1794 ई0 में जैकोबिनों के नेता राब्सपियर की हत्या कर दी गई व जैकोबिनो के आतंक राज की समाप्ति हुई।

उदार गणतंत्रवाद/ थर्मोडरेन गणतंत्रवाद का दौर (1795-1799)

राब्सपियर के पतन के पश्चात् फ्रांस की क्रांति पुनः उदारवादियों के हाथों में आ गई। रॉब्सपियर कथित तौर पर तो जनसाधारण का नेता था पर यह बात द्रष्टव्य है कि जैकोबिन के शासनकाल में जिन लोगों को मौत की सजा दी गई थी। उनमें अधिकांश निम्न वर्ग के लोग थे।

रॉब्सपियर के पतन की घटना को थर्मोडरेन प्रतिक्रिया भी कहा जाता है। क्योंकि यह घटना फ्रांस के ब्रौवे थर्मोडोरियन (फ्रांस का कैलेंडर) की तिथि को घटित हुई थी।

उदार गणतंत्रवादियों के काल में मध्यम वर्ग के हित पुनः प्रमुख हो गए। जैकोबिनों का दमन किया गया तथा नेशनल कन्वेशन ने 1795 ई० में एक नए संविधान का निर्माण किया। इसके द्वारा कार्यपालिका शक्ति एक पांच सदस्यीय डायरेक्टरी को सौप दी गई।

इसके सदस्यों का निर्माण एक विधायी परिषद द्वारा होना था, जो एक निश्चित संपत्ति के धारको द्वारा निर्वाचित होती थी। इस नई व्यवस्था में एक संवैधानिक ज्यूरी का भी प्रावधान था जो प्रशासनिक विनिमयों व कानूनों का संवैधानिकता की जांच करती।

इस प्रकार एक प्रभावी न्यायक्षेत्र का प्रावधान किया गया। परन्तु इस व्यवस्था में निम्न वर्ग के लिए भी पर्याप्त अधिकार सुनिश्चित नहीं किए गए। राजनीति पर धनवानों व मध्य वर्ग का वर्चस्व हो गया एवं इस वर्चस्व को पुलिस, सेना व नौकरशाही की सहायता से बरकरार रखा गया।

वास्तव में, उदार गणनतंत्रवादियों की इस सरकार में प्रधानता जिस धानक एवं मध्य वर्ग की थी, वह अपनी संपत्ति बढ़ाने में ज्यादा इच्छुक थे न कि क्रांति के महान आदर्शों को आगे बढ़ाने में।

1797 ई. में नई सरकार का चुनाव हुआ। पर नई डायरेक्टरी प्रभावी प्रशासन देने में सफल नहीं हुई। नए संविधान के तहत द्विसदनात्मक संसद का भी प्रावधान किया गया था परन्तु यह व्यवस्था भी प्रभावी नहीं हो पायी। अलबत्ता, उदार गणतंत्रवादी शासन की एक प्रमुख उपलब्धि यह रही कि 1795 ई. तक उन्होने आस्ट्रिया, प्रशा, रूस आदि देशों की संयुक्त सेनाओं को परास्त कर दिया. हालैंड पर कब्जा कर वहां एक गणराज्य की स्थापना कर दी।

प्रशा एवं स्पेन ने फ्रांस से संधि कर ली, परन्तु डायरेक्टरी को बचे खुचे जैकोबिनों व राजतन्त्र समर्थकों के विरोध का सामना करना पड़ा। इस विरोध का दमन करने के लिए बारम्बार सेना की मदद लेनी पड़ी।

बाह्य युद्धों में विजय एवं आंतरिक विद्रोहों के मन में सेना की बढ़ती भूमिका के कारण सेनापति नेपोलियन बोनापार्ट की शक्ति बढ़ती गई और अन्तत: वह फ्रांस की सत्ता पर कब्जा जमाने में सफल हो गया।

फ्रांसीसी क्रांति के परिणाम एवं प्रभाव. France ki kranti ke parinam. What are the causes and results of French Revolution in hindi.

फ्रांस की राज्य क्रांति यद्यपि फ्रांस में एक स्थायी राजनीतिक व्यवस्था स्थापित नहीं कर पाई और नेपोलियन के सम्राट बनने एवं उसके बाद लुई 18 वें के सम्राट बनने के साथ ही वापस राजशाही का दौर शुरू हो गया। परंतु राजनीति, समाज, अर्थव्यवस्था, धर्म, शिक्षा संस्कृति एवं विचारधारा- इन तमाम क्षेत्रों को इस क्रांति ने गहराई से प्रभावित किया एवं फ्रांस सहित विश्व के अनेक देशों में इन क्षेत्रों में नूतन परिवर्तन परिलक्षित हुए।

फ्रांसीसी क्रांति के कुछ प्रमुख प्रभावों/ परिणामों को निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत समझा जा सकता है

1.) फ्रांस की राज्य क्रांति के तीन महत्वपूर्ण आदर्श स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व को धीरे-धीरे पूरी दुनिया में राजनीतिक आदर्श के रूप में स्वीकार कर लिया गया और यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र संघ की मानवाधिकार घोषणा पत्र का रहे थे।

2.) यद्यपि यूरोप के अन्य भागों में सामन्तवाद का पतन 15 वीं सदी से ही होने लगा था, फ्रांस में सामन्तवाद के पतन में फ़्रांस की राज्य क्रांति की ही निर्णायक भूमिका रही. जब राष्ट्रीय असेम्बली ने कुलीन वर्ग के विशेषाधिकारों को समाप्त कर दिया।

3.) फ्रांस को राज्य क्रांति के द्वारा जनता को मताधिकार की प्राप्ति हुई। यहां तक कि नेपोलियन ने भी अपना शासन को जनमत संग्रह के द्वारा स्थापित कराया। नेपोलियन के विधि सम्बन्धी सुधारों से न्याय आम जनता के लिए सुलभ हो गया व सभी व्यक्ति विधि के समक्ष सैद्धान्तिक रूप से समान हो गए।

नेपोलियन के काल में भी योग्यता ही मुख्य रूप से किसी पद पर नियुक्ति या प्रोन्नति का आधार थी। फ्रांस की वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था तो मुख्यतः नेपोलियन की प्रशासनिक व्यवस्था के आधार पर विकसित हुई।

4.) फ्रांस की राज्य क्रांति ने राजा के दैवी अधिकारों के सिद्धांत को समाप्त कर लोकतंत्र के विकास का मार्ग प्रशस्त किया।

5.) फ्रांस की राज्य क्रांति ने राष्ट्रों की स्वतंत्रता व आत्मनिर्णय के अधिकार का प्रतिपादन किया जिसका प्रभाव यूरोप के अन्य देशों पर भी पड़ा. इसी भावना के कारण यूरोप के तमाम देशों ने नेपोलियन की तानाशाही का भी विरोध किया व अन्ततः उसके विरुद्ध संघ बनाकर उसे परास्त करने में सफल रहे।

6.) फ्रांस की क्रांति ने सामंतवादी अर्थव्यवस्था को समाप्त कर फ्रांस में आर्थिक क्षेत्र में अहस्तक्षेप की नीति अपनाकर पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली को विकसित किया। इससे शीघ्र ही फ्रांस ने आर्थिक क्षेत्र में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की।

  1. नेपोलियन ने भी आर्थिक सुधारों की दिशा में विशेष प्रयास किया। बैंक ऑफ फ्रांस की स्थापना, प्रतिभूति (सिक्योरिटी) की जगह ऋण लेना, कागजी मुद्रा की जगह सिक्कों का प्रचलन करके, अपव्यय व भ्रष्टाचार पर अंकुश रखकर व कृषि की दशा सुधार कर नेपोलियन ने फ्रांस की आर्थिक अवस्था को दुरुस्त किया एवं क्रांति के प्रारंभिक चरणों में उत्पन्न आर्थिक अव्यवस्था को दूर किया।

8.) फ्रांस की राज्य क्रांति ने शिक्षा एवं संस्कृति के क्षेत्र पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव डाला। शिक्षा को चर्च के राष्ट्रीय स्तर पर विकसित किया गया एवं उसका स्वरूप धर्मनिरपेक्ष रखा गया। आधुनिक शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत रूढ़ियाँ, अंधविश्वास व कुप्रथाओं को समाप्त करने पर बल दिया गया एवं सभी लोगों में राष्ट्रीयता की भावना भरने का प्रयास किया गया।

विज्ञान, गणित, उच्च शिक्षा एवं शोध कार्यो पर बल देने से शिक्षा व्यवस्था आधुनिक जरूरतों के अनुरूप विकसित हुई एवं आधिकाधिक जनसंख्या के शिक्षित होने के कारण फ्रांस में आधुनिक सभ्यता व संस्कृति के विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ.

 

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