मौलिक अधिकार

जब संविधान का प्रवर्तन किया गया, उस समय मूल अधिकारों की संख्या 7 थी। लेकिन 44वें संविधान संशोधन, 1978 के द्वारा सम्पत्ति के मूल अधिकार  समाप्त करके इस अधिकार को विधिक अधिकार बना दिया गया।

समानता का अधिकार

समानता का अधिकार : भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 से 18  समानता के अधिकार के बारे में हैं। जो संक्षेप में निम्नलिखित हैं:-

अनुच्छेद 14 : विधि के समक्ष समता और विधियों​ का समान संरक्षण।

अनुच्छेद 15 : धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध।

अनुच्छेद 16 : लोक नियोजन में अवसर की समानता।

अनुच्छेद 17: छुआछूत का निषेध।

अनुच्छेद 18 : उपाधियों का अंत।

विधि के समक्ष समता और विधियों का समान संरक्षण

संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुसार  “राज्य भारत के राज्यक्षेत्र में किसी भी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।”

यहां पर दो बातें कही गई है; पहली, कानून के सामने सभी बराबर हैं और दूसरी बात, सभी लोगों को कानूनों का समान संरक्षण दिया जाएगा। यह अधिकार भारत भूमि में सभी व्यक्तियों को प्राप्त है अर्थात् देशवासियों के साथ-साथ भारत में विदेशियों को भी कानून के सामने बराबरी का हक दिया गया है।

विधि के समक्ष समता का यह भी अर्थ है कि जन्म या विचार या संप्रदाय के आधार पर किसी भी व्यक्ति का कोई विशेषाधिकार नहीं होगा तथा देश का सामान्य कानून सभी वर्ग पर समान रूप से लगाया जाएगा। कोई भी व्यक्ति देश के कानून से ऊपर नहीं है और सभी लोग देश के साधारण न्यायालयों की अधिकार सीमा में हैं। हरेक व्यक्ति चाहे वह प्रधानमंत्री हो या सामान्य मजदूर हो या विदेशी हो यदि उसने देश के राज्यक्षेत्र के भीतर किसी प्रचलित कानून का उल्लंघन किया है तो वह उस कार्य के लिए समान रूप से जवाबदार होगा। इसी तरह आम नागरिक और पदाधिकारियों में भी भेद नहीं किया जाएगा। केवल राष्ट्रपति और राज्यपाल को कुछ छूट दी गई है। राष्ट्रपति और राज्यपाल अपने पद के किसी कार्य के लिए न्यायालय में जवाबदार नहीं होंगे। इसी तरह इनकी पदावधि के दौरान इन पर किसी भी न्यायालय में कोई भी फौजदारी मामला चालू किया या रखा नहीं जा सकता है। राष्ट्रपति या राज्यपाल का पद ग्रहण करने से पहले इनके द्वारा व्यक्तिगत हैसियत से किए गए किसी कार्य के लिए किसी भी न्यायालय में कोई दीवानी मामला 60 दिनों से पहले की लिखित पूर्व सूचना के बाद ही चलाया जा सकता है अन्यथा नहीं। लेकिन सरकार के किसी कार्य के खिलाफ न्यायालय में वाद लाया जा सकता है चाहे वह कार्य राज्यपाल या राष्ट्रपति के नाम से ही क्यों न किया गया हो।

लेकिन विधि के समक्ष समानता की धारणा में निरपेक्ष समानता की बात शामिल नहीं है क्योंकि व्यवहारिक दृष्टिकोण​ से नि:शर्त समानता हो ही नहीं सकती। इसके विपरीत अगर समानता के सिद्धान्त को बिना शर्तों के लागू कर दिया जाए तो वास्तविकता में और असमानता बढ़ेगी।  इसलिए संसद और विधानसभाओं को यह अधिकार है कि वह किसी वर्ग विशेष के उत्थान या कल्याण के लिए विशेष कानून बना सके। दरअसल समानता के अधिकार का यह मतलब है कि समान लोगों में समान व्यवहार किया जाएगा और असमान लोगों में असमान व्यवहार किया जा सकता है। इस प्रकार कुछ वर्ग विशेष के कल्याण के लिए विभेदकारी व्यवहार किया जा सकता है लेकिन यह विभेद मनमाना नहीं होकर युक्तिसंगत वर्गीकरण पर आधारित होना चाहिए तथा उस कानून के उद्देश्य के संगत भी होने चाहिए। युक्तियुक्त कारणों से नागरिकों के किसी खास समूह को लाभ पहुंचाने या संरक्षण देने या अधिकार प्रदान करने से अनुच्छेद 14 नहीं रोकता। अनुच्छेद 14 एक जैसे व्यवहार की गारंटी देता है, न कि समरूप व्यवहार की। इस प्रकार भारतीय संविधान संरक्षणात्मक भेदभाव की अनुमति प्रदान करता है।

विधि के समान संरक्षण का यह मतलब है कि एक समान लोगों के लिए समान कानून होगा अर्थात् समान लोगों से समान व्यवहार किया जाएगा लेकिन असमान लोगों से भिन्नभिन्न व्यवहार किया जा सकता है। इसलिए पिछड़े और निम्न वर्गों के लोगों को अतिरिक्त सुविधाएं और अवसर दिया जाना समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं​ है बल्कि इससे विभिन्न वर्गों में व्याप्त सामाजिक-आर्थिक असमानता को कम किया जा सकता है। समानता की अवधारणा में ही यह बात अंतर्निहित है कि जो लोग वास्तव में असमान परिस्थितियों में हैं उनके साथ समान व्यवहार नहीं किया जा सकता। असमान व्यक्तियों को एक साथ नहीं लाया जा सकता।

विधानमंडल अर्थात् संसद या विधानसभा कानून बनाते समय उस कानून के उद्देश्य के अनुसार व्यक्तियों का वर्गीकरण कर सकती है। यदि वर्गीकरण के लिए युक्तियुक्त आधार है तो विधानमंडल को यह अधिकार है कि विभेदकारी व्यवहार करे। यह विधानमंडल का काम है कि वह जनता के ऐसे वर्गों की पहचान करे जिन्हें विशेष संरक्षण देने की जरूरत है तथा उस आधार का भी जिस आधार पर संरक्षण दिया जाना है।

वर्गीकरण के लिए कौन सा आधार युक्तियुक्त है यह विधान के उद्देश्य पर निर्भर करता है। यह आधार भौगोलिक हो सकता है, ताकि अबूझमाड़ जैसे अति पिछड़े वनवासी क्षेत्रों के लिए विशेष प्रावधान किया जा सके; वर्गीकरण व्यवसाय की प्रकृति में अंतर के आधार पर हो सकता है ताकि कृषि आय को करों में छूट दी जा सके; वर्गीकरण का आधार सामाजिक भी हो सकता है ताकि निम्न वर्गों को संरक्षण दिया जा सके; आदि।

अनुच्छेद 14 का सार यह कि राज्य की यह जिम्मेदारी है कि वह भेदभाव और मनमानेपन के बारे में अपने नागरिकों के मन से भय दूर करे लेकिन अनुसूचित जातियों और जनजातियों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं, बच्चों आदि के लिए संरक्षणात्मक उपाय करे ताकि समान अवसर और प्रतिष्ठा वाली  सामाजिक व्यवस्था की स्थापना की दिशा में आगे बढ़ा जा सके।

धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15(1) के अनुसार राज्य, किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा। यहां केवल शब्द बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि यदि विभेदकारी व्यवहार के लिए इस अनुच्छेद में गिनाए गए आधार के अलावा अन्य आधार पर किया गया वर्गीकरण या विभेद संविधान विरुद्ध नहीं माना जाएगा। किंतु यदि किसी नागरिक के साथ राज्य द्वारा केवल इसलिए भेदभाव किया जाता है कि वह किसी विशेष धर्म, वंश, जाति का है या क्षेत्र अथवा स्थान विशेष में पैदा हुआ है तो वह न्यायालय के माध्यम से राज्य की कार्यवाही को शून्य घोषित करवा सकता है।

संविधान का अनुच्छेद 15(2) इस प्रकार है- किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश करने से नहीं रोका जा सकता । इसी तरह कुओं, तालाबों, स्नान घाटों, सड़कों और सार्वजनिक स्थानों के उपयोग से भी किसी नागरिक को वंचित या बाधित नहीं किया जा सकता यदि वे पूरी तरह या अंशत: सरकरी खर्चे से बने हुए हों या सरकारी खर्च से संचालित हों या फिर निजी होते हुए भी सार्वजनिक उपयोग के लिए समर्पित हों।

लेकिन अनुच्छेद 15 का खंड 3  राज्य को यह अधिकार देता है कि वह स्त्रियों और बालकों के कल्याण के लिए विशेष उपाय कर सकता है। इसी तरह खंड 4 के अनुसार राज्य सामाजिक या शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए या अनुसूचित जाति या जनजातियों के लिए विशेष उपाय कर सकता है। ठीक इसी तरह अनुच्छेद 15(1) में जाति के आधार पर भेदभाव का निषेध होते हुए भी अनुच्छेद 15 के खंड (5) के अनुसार राज्य उक्त वर्गों के लिए शिक्षण संस्थानों में प्रवेश हेतु आरक्षण तथा फीस में छूट आदि विशेष उपाय भी कर सकता है।

लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता

संविधान का अनुच्छेद 16 नागरिकों को शासकीय सेवा और पदों पर नियुक्ति के संबंध में अवसर की समानता की गारंटी देता है । लोक सेवाओं में नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में अवसर की समता  न केवल प्रारंभिक नियुक्ति से संबंधित है बल्कि पदोन्नति तथा सेवा की समाप्ति या सेवानिवृत्ति के बारे में भी है। अर्थात् किसी भी नागरिक से सरकारी सेवाओं में नियुक्ति, पदोन्नति, सेवानिवृत्ति या सेवा समाप्ति  के संबंध में केवल धर्म, मूलवंश, जाति ,लिंग, उद्भव, जन्मस्थान, निवास आदि में से किसी भी आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा। लेकिन यह अधिकार भी कुछ अपवादों के अधीन है जो निम्नलिखित हैं-

  1. संसद किसी पद पर नियोजन के लिए योग्यता की एक शर्त के रूप में क्षेत्र विशेष का निवासी होने का उपबंध कर सकती है (अनुच्छेद 16/3)।
  2. राज्य किसी पिछड़े वर्ग के लिए शासकीय सेवा में आरक्षण का प्रावधान कर सकता है। (यदि राज्य की राय में उस वर्ग का शासकीय सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं​ है)। (अनुच्छेद 16/4)।
  3. किसी धार्मिक या सांप्रदायिक संस्था से संबंधित कोई पद उसी धर्म या संप्रदाय के व्यक्तियों के लिए आरक्षित किया जा सकता है। (अनुच्छेद 16/5)।

यह भी ध्यान रखने की बात है कि लोक नियोजन में विभेद का निषेध केवल अनुच्छेद 16/2 में गिनाए गए आधार (केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव, जन्मस्थान, या निवास) पर किया गया है। निजी नियोक्ताओं की तरह शासन को भी अधिक योग्य अभ्यर्थियों को चयनित करने एवं नियुक्त करने से वंचित नहीं किया जा सकता।

अस्पृश्यता का अंत

संविधान का अनुच्छेद 17 इस प्रकार है-

अस्पृश्यता का अंत किया जाता है और उसका किसी भी रूप में आचरण निषिद्ध किया जाता है, अस्पृश्यता से उपजी किसी भी निर्योग्यता को लागू करना अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा।”

संसद ने 1955 में अस्पृश्यता अपराध अधिनियम पारित किया। इसका संशोधन और पुनः नामकरण हो कर 1976 से  यह नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम (1955) हो गया है।

अस्पृश्यता को आम भाषा में छुआछूत के रूप में जाना जाता है। अस्पृश्यता शब्द का प्रयोग उस सामाजिक कुरीति के लिए किया जाता है जिसमें कुछ दलित वर्गों के व्यक्तियों को जन्म के कारण ही हेय दृष्टि से देखा जाता है तथा उन्हें तथाकथित उच्च वर्गों या जातियों के लोगों से मेलजोल तथा खान-पान आदि के लिए निर्योग्य समझा जाता है।
नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम में कुछ कार्यों को जब वे अस्पृश्यता के आधार पर किया जाता है, अपराध माना गया है। जैसे:-

  1. किसी व्यक्ति को अस्पताल, शिक्षण संस्थानों आदि सामाजिक संस्थाओं में प्रवेश नहीं देना,
  2. किसी व्यक्ति को सार्वजनिक उपासना स्थलों, देवालयों आदि में पूजा, उपासना आदि करने से रोकना,
  3. किसी दुकान, रेस्टोरेंट, होटल या सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों पर पहुंचने से रोकना या किसी जल स्रोत, मार्ग, शमशान या किसी अन्य सार्वजनिक सेवा स्थलों पर पहुंच के बारे में निर्योग्यताएं अधिरोपित करना।
  4. अनुसूचित जाति के किसी सदस्य का जाति के आधार पर अपमान करना,
  5. प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से छुआछूत का समर्थन करना, या
  6. धर्म, दर्शन, परंपरा या इतिहास आदि के आधार पर छुआछूत को उचित ठहराना।

उक्त अपराधों में से किसी एक के सिद्ध होने पर एक से दो वर्ष का कारावास होगा तथा दोषी व्यक्ति विधानमंडलों के निर्वाचन के लिए अयोग्य माना जाएगा।

जब किसी व्यक्ति पर अस्पृश्यता से संबंधित अपराध करने का आरोप लगाया जाता है तो जब तक प्रतिकूल न साबित किया जाए न्यायालय यह धारणा बना कर चलती है कि ऐसा कार्य अस्पृश्यता के आधार पर किया गया।

उपाधियों का अंत

संविधान के अनुच्छेद 18 के द्वारा उपाधियों का अंत कर दिया गया है।

अंग्रेजों के समय में साम्राज्यवादी हितों के सहायकों को रायबहादुर, सर, लार्ड आदि उपाधि देकर सम्मानित किया जाता था। लेकिन भारतीय संविधान की प्रस्तावना में प्रतिष्ठा की समानता की भी घोषणा की गई है। चूंकि उपाधियां लोगों में पंक्ति भेद और गैर जरूरी श्रेणीकरण को बढ़ावा देती है इसलिए भी उपाधियों का अंत किया गया ताकि समानता के उद्देश्य को प्राप्त किया जा सके।

उपाधियों प्रदान करने का निषेध केवल राज्य के लिए है तथा सेना और शिक्षा से संबंधित उपाधियां और सम्मान देने से रोका नहीं गया है। लेकिन फिर भी राज्य सामाजिक सेवाओं के लिए सम्मान और पुरस्कार दे सकता है।

1954 में भारत सरकार ने भारत रत्न, पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्मश्री चार प्रकार के सम्मान प्रारंभ किए। इसका विरोध भी हुआ क्योंकि ये पुरस्कार प्रतिष्ठा की समता के वचन के विपरीत है। यद्यपि पद्म सम्मान इस धारणा के साथ प्रदान किए जाते हैं कि इनका नाम के आगे या पीछे उपाधियों की तरह प्रयोग नहीं किया जाएगा लेकिन इस बात पर भी रोक लगाने का कोई उपाय नहीं किया गया है। इन्ही कारणों से जनता सरकार के समय 1977 से पद्म पुरस्कार देना बंद कर दिया गया था लेकिन श्रीमती इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी के साथ ही 1980 से पद्म पुरस्कार दिया जाना फिर से शुरू किया गया।

 

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