संक्षेप में सामाजिक आन्दोलनों को निम्नलिखित प्रमुख वर्गों में बांटा जा सकता है:

(1) सामान्य सामाजिक आन्दोलन:

सामाजिक आन्दोलनों के इस वर्ग में वे आन्दोलन आते है जो कि कुछ नवीन मूल्यों को जनसमुदाय में स्थापित करना चाहते हैं जैसे श्रमिक आन्दोलन, युवक आन्दोलन, महिला आन्दोलन, शान्ति आन्दोलन इत्यादि । ये आन्दोलन कुछ विशेष मूल्यों को लेकर सांस्कृतिक परिवर्तन करते है ।

सामान्य सामाजिक आन्दोलन असंगीक होते हैं । इनमें सदस्यता के नियम भी स्पष्ट नहीं होते । इनमें निर्देशन और नियन्त्रण का लगभग अभाव होता है । ये प्रासंगिक होते हैं और इनकी प्रगति बहुत असमान होती है । कभी-कभी तो इनके नेता अज्ञात ही रहते हैं । इनमें साहित्य पाया जाता है । ये अनौपचारिक, अस्पष्ट और एक छोटे से भौगोलिक क्षेत्र में सीमित होते हैं । इनमें जन-व्यवहार की कार्य प्रणाली दिखायी पड़ती है ।

(2) विशेष सामाजिक आन्दोलन:

विशेष सामाजिक आन्दोलन, उन आन्दोलनों को कहा जाता है जिनका कोई विशेष उद्देश्य या लक्ष्य होता है । इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये इनमें एक औपचारिक संगठन, एक स्वीकृत नेतृत्व, सदस्यता के नियम, हम भावना तथा एक जीवन दर्शन, मूल्य, परम्परायें और नियम पाये जाते हैं ।

प्रारम्भ में विशेष सामाजिक आन्दोलन किसी असन्तोष से उत्पन्न होते हैं । क्रमश: यह असन्तोष जन उत्तेजना का रूप ग्रहण कर लेता है और तब सामाजिक आन्दोलन का विशिष्ट संगठन निर्माण होता है । इस संगठन में विशिष्ट कार्य प्रणाली होती है और विशिष्ट लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है ।

विशिष्ट सामाजिक आन्दोलनों को निम्नलिखित दो वर्गों में बांटा गया है:

(अ) समाज सुधार आन्दोलन:

सामाजिक आन्दोलनों के स्वरूप को स्पष्ट करते हुये डेविस ने लिखा है, “प्रत्येक सामाजिक आन्दोलन में परिवर्तन की एक प्रक्रिया होती है । इसमें सबसे पहले एक स्पष्ट आवश्यकता उत्पन्न होती है । कोई व्यक्ति अथवा समूह सार्वजनिक रूप से इस आवश्यकता का समर्थन करता है । दूसरे, इसके परिणामस्वरूप प्रचार बढ़ता है और उत्तेजना बढ़ती है तीसरे, तब एक छोटे अथवा बड़े समूह में इस आवश्यकता के प्रति चेतना बढ़ने लगती है । चौथे, वह अपना एक संगठन बना लेते हैं । पांचवें इसके परिणामस्वरूप एक संगठित व्यवहार की रूपरेखा बन जाती है, एक दृढ़ नेतृत्व का विकास होता है और नये व्यक्ति भर्ती किये जाते है । छठे, आन्दोलन के सफल हो जाने पर उसका संस्थाकरण हो जाता है अर्थात् वह अधिकांश व्यक्तियों के लिये व्यवहार का एक स्वीकृत प्रतिमान बन जाता है और उसमें सामूहिक नियन्त्रण के साधन विकसित हो जाते है । सातवें आखिर में इसमें नौकरशाही, गतिहीनता तथा प्रतिक्रियावाद जैसे प्रमुख तत्व विकसित हो जाते हैं ।” सुधार आन्दोलन के उदाहरण भारतवर्ष में अठारहवीं शताब्दी के अन्त में दिखलायी पड़ने वाले समाज सुधार आन्दोलन हैं ।

(ब) क्रान्तिकारी आन्दोलन:

क्रान्तिकारी आन्दोलन सदैव सरकार के विरुद्ध होते हैं । इनका उद्देश्य व्यापक होता है और वे वर्तमान अवस्था को पूरी तरह उखाड़कर उसकी जगह पर कोई नई व्यवस्था स्थापित करना चाहते हैं । क्रान्तिकारी आन्दोलन साधनों के विषय में हिंसा, आतंक और बल प्रदर्शन को अपनाने पर जोर देता है यह प्रगतिशील आन्दोलन होता है और इसमें समाज के शोषित और पीड़ित वर्गों की सहायता ली जाती है ।

नारेबाजी, जनआन्दोलन, जनसंचार के साधनों का प्रयोग आदि क्रान्तिकारी आन्दोलन के लक्षण हैं किन्तु इसमें हिंसा का प्रयोग अनिवार्य नहीं है । जहाँ एक ओर अधिकतर क्रान्तिकारी आन्दोलन हिंसक रहे हैं वहां दूसरों ओर अहिंसक क्रान्तिकारी आन्दोलनों के भी उदाहरण मिलते है ।

गैरो के अनुसार क्रान्तिकारी आन्दोलन 8 अवस्थाओं से गुजरते हैं- अशान्ति बुद्धिजीवियों का अलग हो जाना, किसी आर्थिक लाभ अथवा सामाजिक मिथ्या विचार का प्रादुर्भाव, विस्फोट, मध्यमार्गियों का शासन, उग्रवादियों का उदय, आतंक छा जाना और अन्त में सामान्य स्थिति का लौटना और उसकी प्रतिक्रिया होना । कभी-कभी क्रान्तिकारी आन्दोलनों के दौरान भयंकर रक्तपात भी होता है ।

सुधारवादी और क्रान्तिकारी आन्दोलनों की विशेषताओं की उपरोक्त व्याख्या से उनके निम्नलिखित अन्तर स्पष्ट होते हैं:

(i) उद्देश्यों में अन्तर:

जबकि सुधारवादी आन्दोलन का उद्देश्य सामाजिक व्यवस्था के किसी विशेष पहलू या सीमित क्षेत्र में परिवर्तन लाना होता है, क्रान्तिकारी आन्दोलन सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था को ही बदलना चाहता है । इस प्रकार क्रान्तिकारी आन्दोलन का उद्देश्य सुधारवादी आन्दोलन से कहीं अधिक व्यापक होता है ।

(ii) वर्तमान रूढ़ियों की ओर प्रतिक्रिया में अन्तर:

सुधारवादी आन्दोलन वर्तमान सामाजिक रूढियों की तीव्र आलोचना नहीं करता है । वह उनमें से कुछ को स्वीकार कर लेता है और कुछ अन्य की आलोचना करता है । दूसरी ओर क्रान्तिकारी आन्दोलन वर्तमान रूढ़ियों का पूर्ण रूप से और तीव्र विरोध करता है ।

(iii) सामाजिक स्वीकृति:

इस कारण सुधारवादी आन्दोलन शीघ्र ही सामाजिक स्वीकृति प्राप्त कर लेता है क्योंकि वह वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को उलटना नहीं चाहता, उसमें कुछ सुधार मात्र चाहता है । दूसरी ओर क्रान्तिकारी आन्दोलन को इतने शीघ्र सामाजिक स्वीकृति नहीं मिलती क्योंकि वह सामाजिक संरचना को पूर्णतया उलटना चाहता है । कभी-कभी क्रान्तिकारी आन्दोलन करने वालों को छिपकर काम करना पड़ता है क्योंकि उन्हें जनता का समर्थन प्राप्त नहीं होता ।

(iv) कार्य विधि:

सुधारवादी आन्दोलन शिक्षा, विवाद, चर्चा आदि के उद्देश्यों के अनुकूल जनमत विकसित करने का प्रयास करता है । दूसरी ओर क्रान्तिकारी आन्दोलन हिंसा, आतंक, बल प्रदर्शन आदि साधनों के द्वारा जनमत का समर्थन प्राप्त किये बिना ही अपने उद्देश्यों को पूर्ण करने का प्रयास करता है ।

(v) क्रियाशील समूहों के प्रकार:

सुधारवादी और क्रान्तिकारी आन्दोलन में क्रियाशील समूह भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं । सुधारवादी आन्दोलन पीड़ित और शोषित वर्गों की सहानुभूति प्रान्त करना चाहता है किन्तु वह उन्हें सक्रिय करने का कोई प्रयास नहीं करता । बहुधा वह मध्यम वर्ग द्वारा चलाया जाता है । दूसरी ओर क्रान्तिकारी आन्दोलन शोषित और पीड़ित वर्गों के सक्रिय सहयोग से चलाया जाता है ।

(vi) कार्यों में अन्तर:

सुधारवादी आन्दोलन कुछ विशेष आदर्शों और मूल्यों में विश्वास उत्पन्न करना चाहता है । दूसरी ओर क्रान्तिकारी आन्दोलन समस्त सामाजिक संरचना को परिवर्तित करने का प्रयास करता है ।

(vii) प्रकृति में अन्तर:

आन्दोलन की प्रकृति की दृष्टि से सुधारवादी आन्दोलन बहुत कुछ रूढ़िवादी आन्दोलन होता है जबकि क्रान्तिकारी आन्दोलन हर प्रकार से प्रगतिशील आन्दोलन होता है ।

(स) सूचक सामाजिक आन्दोलन:

जब कभी किसी समाज में सामान्य सामाजिक व्यवस्था अथवा संस्थाओं के स्वरूप कालान्तर में परिवर्तित नहीं होते तो उनकी अभिव्यक्ति धार्मिक आन्दोलन अथवा फैशन आन्दोलन जैसे सूचक आन्दोलनों के रूप में होती है । धार्मिक आन्दोलन, जैसा कि इनके नाम से स्पष्ट है, किसी विशेष सम्प्रदाय अथवा पथ के रूप में आरम्भ होते है ।

ये विशेषतया भावनात्मक होते है । इनमें व्यक्ति स्वतन्त्रता अनुभव करते हैं और आध्यात्मिक शक्ति अनुभव करते हैं । इनमें सामूहिक भावना होती है । इनमें सदस्यता के लिये सामाजिक स्थिति, पद, धन, शिक्षा आदि के अन्तर का विशेष महत्व नहीं होता । ये पन्थ के प्रत्येक आदेश का पालन करते हैं और उसके नेता को ईश्वर का अवतार मान लेते हैं ।

ये अपनी आलोचनाओं का प्रत्युत्तर देते हैं और एक विशिष्ट धर्मशास्त्र बना लेते हैं तथा अन्य लोगों को अपने विचारों के अनुकूल बनाना अपना धार्मिक कर्त्तव्य मानते है । इनका उद्देश्य विशेष प्रकार के धार्मिक सिद्धान्तों का प्रचार करना और समाज सुधार होता है ।

दूसरी ओर फैशन आन्दोलन, कला, साहित्य, दर्शन तथा आचार व्यवहार के क्षेत्र में दिखायी पड़ता है । वास्तव में फैशन सम्बन्धी परिवर्तन सामाजिक जीवन के किसी भी पहलू में देखा जा सकता है । फैशन विभेदीकरण और प्रतिस्पर्धा पर आधारित होता है ।

उच्च वर्ग विशेष फैशन के माध्यम से अपने को निम्न वर्ग से अलग रखने का प्रयास करता है और निम्न वर्ग उसका अनुकरण करके उस जैसा बनने का प्रयास करता है । जब यह प्रयास सफल हो जाता है तो उच्च वर्ग फिर नये प्रतीक और चिह्न गृहण कर लेता है और इस प्रकार फैशन का यह चक्र चलता ही रहता है वास्तव में फैशन की यह प्रक्रिया चेतन और सामूहिक रूप में न होने के कारण इसको आन्दोलन नहीं कहा जाना चाहिये । इसमें न कोई विचारधारा होती है, न संगठन होता है, न चेतन उद्देश्य होते हैं, न नेता होते हैं और न कोई विशिष्ट कार्यविधि होती है ।

अस्तु फैशन आन्दोलन अन्य प्रकार के सामाजिक आन्दोलनों से भिन्न है । फिर भी यह सूचक आन्दोलन का सच्चा प्रतिरूप है क्योंकि यह विशेष प्रकार की मनोवैज्ञानिक दशा की अभिव्यक्ति है । यह समाज के सभी व्यक्तियों को कुछ न कुछ प्रभावित करता रहता है और नई रूचियों तथा प्रवृतियों की ओर ले जाता है ।

(3) पुनरुत्थान और राष्ट्रवादी आन्दोलन:

सामाजिक आन्दोलनों के इस वर्ग में वे आन्दोलन आते है जो कि किसी विचारधारा अथवा मूल्य को फिर से स्थापित करने के लिये जन्म लेते हैं । यह विचारधारा और मूल्य राष्ट्रवादी होता है । इस प्रकार पुनरूत्थान आन्दोलन राष्ट्र के विगत वैभव और गौरव को फिर से स्थापित करने के लक्ष्य से कार्य करते हैं । ये आन्दोलन तब उत्पन्न होते है जबकि राष्ट्रीय गौरव को आघात पहुँचता है अथवा राष्ट्र का किसी प्रकार से अपमान होता है ।

ऐसी स्थिति में कुछ लोगों में तीव्र प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है और क्रमशः यह प्रतिक्रिया बड़े क्षेत्र में फैल जाती है । संसार के सभी राष्ट्रों में गुलामी की स्थिति में इस प्रकार के आन्दोलन देखे जा सकते हैं । इन आन्दोलनों के परिणामस्वरूप ही देश को आजादी प्राप्त होती है और राष्ट्रवादी गौरव की फिर से स्थापना होती है ।

भारतवर्ष में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के आन्दोलन को राष्ट्रवादी आन्दोलन कहा जा सकता है । कांग्रेस के अतिरिक्त भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन कांग्रेस से बाहर क्रान्तिकारियों के आन्दोलन में भी दिखायी पड़ता है किन्तु सबसे अधिक सफलता कांग्रेस के आन्दोलन को ही मिली है ।

इस राष्ट्रीय आन्दोलन के अतिरिक्त भारतवर्ष के निकट भूतकाल में समाज सुधार और धर्म सुधार आन्दोलन विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । राजा राम मोहन राय ने ब्रह्म समाज, स्वामी दयानन्द ने आर्य समाज, स्वामी विवेकानन्द ने रामकृष्ण मिशन और श्रीमती ऐनीबेसेन्ट ने थियोसोफिकल सोसाइटी के नाम से धार्मिक और सामाजिक सुधार आन्दोलन आरम्भ किये ।

बंगाल में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने विधवाओं की दशा में सुधार के लिये आन्दोलन किया । रानाडे द्वारा स्थापित इण्डियन नेशनल सोशल रिफार्म कांग्रेस और गोपाल कृष्ण गोखले द्वारा स्थापित सर्वेन्ट ऑफ इंडिया सोसायटी ने समाज सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया ।

इन सार्वदेशिक आन्दोलनों के अतिरिक्त विभिन्न राज्यों में स्थानीय आन्दोलन भी दिखलायी पड़ते है जिन्हें संकीर्ण सामाजिक आन्दोलन कहा जा सकता है जैसे सिख सूबा आन्दोलन, भाषा आन्दोलन, विशाल हरियाणा आन्दोलन, तेलनघना आन्दोलन तथा मुल्की आन्दोलन इत्यादि ।

 

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