अध्याय-8 : ईश्वर में अनुराग

दक्षिण भारत में भक्ति संत –

  • सातवीं से नौवीं शताब्दीयों के बीच कुछ नए धार्मिक आंदोलनों का नेतृत्व नयनारों ( शैव संतों ) और आलवारों ( वैष्णव संतो ) ने किया।
  • ये संत सभी जातियों के थे, जिनमे पुलैया और पनार जैसी ‘ अस्पृश्य ‘ समझी जाने वाली जातियों के थे।
  • वे बौद्धों और जैनों के कटु आलोचक थे।
  • इन्होने संगम साहित्य ( तमिल ) की शिक्षाओं को अपने मूल्यों में समावेशित किया।
  • नयनार और अलवार घुमक्कड़ साधु संत थे, वे स्थानीय देवी-देवताओं की प्रशंसा में सुन्दर कविताएं रचकर उन्हें संगीतबद्ध कर दिया करते थे।
  • नयनार संत संख्या में 63 थे उनमे सर्वाधिक प्रसिद्ध थे-अप्पार , सबंदर और मणिककावसागार। उनके गीतों के दो संकलन है -तेवरम और तिरुवाचकम।
  • अलवार संत संख्या में 12 थे उनमे सर्वाधिक प्रसिद्ध थे -पेरियअलवार , उनकी पुत्री अंडाल , तोंडरडिप्पोडी अलवार और वाममालवार।
    • उनके गीत दिव्य प्रबंधम में संकलित है।

दर्शन और भक्ति –

  1. शंकर दार्शनिक –
  • जन्म आठवीं शताब्दी में केरल में।
    • ये अद्वैतवाद के समर्थक थे इनके अनुसार जीवात्मक और परमात्मा दोनों एक है।
    • इनकी शिक्षा – संसार को मिथ्या बताया , ज्ञान के मार्ग को अपनाकर मोक्ष प्राप्त करने का उपदेश दिया।
  1. रामानुज ( विष्णु भक्त )-
  • जन्म ग्यारहवीं शताब्दी में तमिलनाडु में।
  • ये अलवार संतो से प्रभावित थे।
  • इन्होने विशिष्टताद्वैत सिद्धांत प्रतिपादित किया जिसके अनुसार आत्मा, परमात्मा से जुड़ने के बाद भी अपनी अलग सत्ता बनाए रखती है। इन्होने विष्णु के प्रति भक्ति को मोक्ष का मार्ग बताया।

वीरशैव आंदोलन-

  • इसका प्रारम्भ बसवन्ना , अल्लामाप्रभु और अक्कमहादेवी के द्वारा।
  • यह आंदोलन बारहवीं शताब्दी के मध्य में कर्नाटक में प्रारम्भ हुआ।
  • ये सभी प्रकार के कर्मकांडों और मूर्तिपूजा के विरोधी थे।

महाराष्ट्र के संत –

  • तेरहवीं से सत्रहवीं शताब्दी में ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ और तुकाराम तथा सखुबाई ( स्त्री ) चोखाबाई ( अस्पृश्य परिवार से ) आदि महत्वपूर्ण हुए।
  • भक्ति की यह क्षेत्रीय परंपरा पंढरपुर में विठ्ठल ( विष्णु का एक रूप ) और व्यक्तिगत देव सम्बंधित विचारों पर केंद्रित थी।
  • इन संत कवियों ने सभी प्रकार के कर्मकांडों, पवित्रा के ढोंगो और जन्म पर आधारित सामाजिक अन्तरो का विरोध किया।
  • इन्होने सन्यास के विचार को ठुकराकर , परिवार के साथ रहकर, जरुरत मंदो की सेवा करते हुए जीवन विताने को अधिक पसंद किया।
  • नोट – सुप्रसिद्ध गुजराती संत नरसी मेहता ने कहा था-” वैष्णव तो तेने कहिए पीर पराई जाने रे। “

नाथपंथी , सिद्ध और योगी –

  • ये समूह ‘नीची ‘ कही जाने वाली जातियों में बहुत लोकप्रिय हुई।
  • इन्होने संसार परित्याग करने का समर्थन, योगासन,प्राणायाम, चिंतन , मनन पर बल दिया।
  • इनके अनुसार शिक्षा- निराकार परम सत्य का चिंतन ही मोक्ष का मार्ग है।

इस्लाम और सूफी संत –

  • सूफीसंत रहस्यवादी थे।
  • इस्लाम में एकेश्वरवाद यानी एक अल्लाह के प्रति पूर्ण समर्पण का दृढ़ता से प्रचार किया।
  • इन्होने मूर्ति पूजा को अस्वीकार कर दिया और उपासना पद्धति को सामूहिक प्रार्थना नमाज दे कर उन्हें काफी सरल बना दिया।
  • मुस्लिम विद्वानों ( उलेमा ) ने सरियत नाम से एक धार्मिक कानून बनाया।
  • मध्य एशिया के महान सूफी संतो में गज्जाली , रूमी और सादी प्रमुख थे।
  • इन्होने औलिया या पीर की देख रेख में जिक्र ( नाम का जाप ) , चिंतन , सभा ( गाना ) रक्स ( नृत्य ) निति चर्चा , साँस पर नियंत्रण आदि रीतियों का विकास किया।
  • चिस्ती सिलसिला इन सभी सिलसिलो में सबसे अधिक प्रभावशाली था , जिसमे अजमेर के ख्वाजा मुइनुद्दीन चिस्ती , दिल्ली के कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, पंजाब के बाबा फरीद, दिल्ली के ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया और गुलबर्ग के बंदानवाज गिरसुंदराज थे।
    • खान कहाँ – सूफी संतो का विशेष बैठकों का स्थल।

उत्तर भारत में धार्मिक बदलाव –

  • तेरहवीं सदी के उत्तर भारत में भक्ति अंडोला लहर को इस्लाम, ब्राम्हणवादी हिन्दू धर्म, सूफीमत , भक्ति की विभिन्न धाराओं ( तथपंथियों,सिद्धो तथा योगियों ) ने प्रभावित किया।
  • रामचरित्र मानस – तुलसीदास द्वारा अवधि में रचित ( ईश्वर को राम के रूप में दर्शाया।
  • सूरदास- ये श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे उनकी रचनाए सूरसागर, सूरसारावली और साहित्य लहरी है।
  • असम के शंकर देव – ये परवर्ती पंद्रहवी सदी के थे ( विष्णु की भक्ति पर बल)।
    • असमियाँ भाषा में कवियाए तथा नाटक के लिए इन्होने ही ‘नामघर ‘ ( कविता पाठ और प्रार्थना गृह ) स्थापित करने की पद्धति चलाई।
    • नामघर परम्परा में दादू दलाल, रविदास और मीराबाई जैसे संत भी शामिल थे।
  • मीराबाई- इनका विवाह सोलहवीं सदी में मेवाड़ के राजसी घराने में हुआ। मीराबाई रविदास जो ‘अस्पृश्य ‘ जाति के माने जाते थे , की अनुयायी बन गई और वे कृष्ण के प्रति समर्पित थी।
  • नोट-चैतन्यदेव-सोलहवीं शताब्दी बंगाल के एक भक्ति संत। इन्होने कृष्ण-राधा के प्रति निष्काम भक्ति-भाव का उपदेश दिया।

कबीर- ये पंद्रहवीं से सोलहवीं सदी में हुए।

  1. इनका पालन पोषण वनारस के पास जोलाहा परिवार में हुआ।
  2. इनके कुछ भजन गुरु ग्रन्थ साहब , पंचवाणी और बीजक में संग्रहित एवं सुरक्षित है।
  3. ये निराकार परमेश्वर में विश्वास रखते थे।
  4. हिन्दू तथा मुसलमान दोनों लोग इनके अनुयायी हो गए।

बाबा गुरुनानक- ( 1469-1539 )

  • जन्म- तलवंडी ( पाक में ननकाना साहब)।
  • करतारपुर ( रावी नदी के तट पर डेरा बाबा नामक ) में एक केंद्र स्थापित किया।
  • उनके अनुयायी धर्म, जाति अथवा भेद को नजरन्दाज करके साँझी रसोई में इकट्ठे खाते-पीते थे इसे लंगर कहा जाता था।
  • गुरुनानक ने उपासना और धार्मिक कार्यो के लिए जो जगह नियुक्त की थी उसे ‘ धर्मसाल ‘ कहा गया। आज इसे गुरुद्वारा कहते है।
  • मृत्यु ( 1539 ) से पूर्व बाबा गुरुनानक ने लेहणा ( गुरु अंगद ) को उत्तराधिकारी चुना।
  • गुरु अंगद ने बाबा गुरु नानक की रचनाओं का संग्रह गुरुमुखी में किया और उस संग्रह में अपनी कृतियाँ भी जोड़ दी।
    • गुरुमुखी- के प्रतिपादक गुरु अंगद।
    • गुरु अंगद के तीन उत्तराधिकारियों ने अपनी रचनाएँ नानक के नाम से की और इन सभी का संग्रह गुरु अर्जुन ने 1604 में किया।
  • इसमें शेख फरीद, संत कबीर, भगत नामदेव और गुरुतेगबहादुर जैसे सूफियों, संतो और गुरुओ की वाणी जोड़ी गई।
    • 1706 में इस संग्रह को गुरुतेगबहादुर के उत्तराधिकिरी गुरु गोविन्द सिंह ने प्रामाणिक किया जिसे आज गुर ग्रन्थ साहिब के नाम से जाना जाता है।
  • सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ से गुरुद्वारा हरमंदर साहब ( स्वर्ण मंदिर ) के आस-पास रामदासपुर शहर ( अमृतसर ) विकसित होने लगा।
  • 1606 में जहाँगीर ने गुरु अर्जुन देव को मृत्युदंड देने का आदेश दिया।
  • 1699 में खालसापन्थ की स्थापना गुरु गोविन्द सिंह दे द्वारा हुआ।
  • गुरु नानक ने अपने उपदेश के सार को व्यक्त करने के लिए तीन शब्द का प्रयोग किया

नाम-सही उपासना

  • दान- दुसरो का भला करना
  • स्नान – विचार की पवित्रता

अन्यत्र-मार्टिन लूथर किंग -( 1483-1546 )

  • लूथर ने लैटिन भाषा के बजाए आमलोगों की भाषा को प्रोत्साहन किया।
  • बाइबिल जर्मन भाषा में अनुमोदन किया।
  • वे दण्डमोचन प्रथा के घोर विरोधी थे।

दण्डमोचन प्रथा –

  • पाप कर्मो को क्षमा कराने के लिए चर्च को दान।

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