अध्याय-3: ग्रामीण क्षेत्र पर शासन चलना

कंपनी दिवान के रूप में

  • 17 अगस्त 1765 को मुग़ल बादशाह ने कंपनी को बंगाल का दिवान तैनात किया।
  • नोट- 1770 में पड़े अकाल में बंगाल की एक तिहाई आबादी ( करीब एक करोड़ ) आबादी समाप्त हो गई।

स्थाई बंदोबस्त -( 1793 )

  • राजाओं और तालुकदारो को जमींदार के रूप में मान्यता दी गई। उन्हें किसानों से लगन वसूलने और कंपनी को राजस्व चुकाने का जिम्मा सौंपा गया।
  • इसे व्यवस्था के अंतर्गत राजस्व हमेशा के लिए निश्चित कर दिया गया था।

स्थाई बंदोबस्त के विफल होने के कारण –

  • जमीदारों ने भूमिसुधार में खर्च नहीं किया।
  • राजस्व अधिक होने से जमींदार इसे चूका नहीं पाते थे तो उनकी जमींदारी छीन ली जाती थी।
  • राजस्व हमेशा के लिए तय होना।

महलवाड़ी बंदोबस्त ( 1822 )

  • बंगाल प्रेसिडेंसी के लिए उत्तर-पश्चिम प्रांतों के लिए होल्ट मैकेंजी द्वारा तैयार की गई।
  • इसमें गाँव के प्रत्येक अनुमानित राजस्व को जोड़कर हर गाँव या ग्राम समूह ( महाल ) होने वाले राजस्व का हिसाब लगाया जाता था।
  • इस राजस्व को स्थाई रूप से तय नहीं किया गया था। बल्कि उसमे समय-समय पर संशोधनो की गुंजाइस रखी गयी।
  • राजस्व इकट्ठा करने और उसे कंपनी को अदा करने का जिम्मा जमींदार के बजाए गाँव के मुखिया को सौंप दिया गया।

मुनरो व्यवस्था या रैयतवाड़ी व्यवस्था-

  • दक्षिण भारतयीय इलाकों में लागू थी।
  • कैप्टन एलेक्जेंडर रीड ने टीपू सुल्तान से युद्ध के बाद हड़पे गए इलाकों में सबसे पहले इस व्यवस्था को अपनाया था।
  • टॉमस मुनरो ने यह व्यवस्था स्थाई कर पुरे भारत में लागू की।
  • इसमें राजस्व का ऑकलन करने से पहले खेतों का सर्वेक्षण किया जाता था फिर सीधा किसानों ( रैयतों ) से राजस्व बंदोबस्त किया गया।
  • मुनरो का यह मानना था कि अंग्रेजो को पिता की तरह किसानों की रक्षा करनी चाहिए।

यूरोप के लिए फसलें –

  • अठारहवीं शताब्दी के आखिर तक कंपनी ने अफीम और नील की खेती पर पूरा जोर लगा दिया था।
  • लगभग 150 साल तक अंग्रेज देश के विभिन्न भागों में किसी न किसी फसल के लिए किसानों को मजबूर करते रहे।
  • जैसे -बंगाल में पटसन, असम में चाय , संयुक्त प्रान्त ( वर्त्तमान में उत्तर प्रदेश ) में गन्ना , पंजाब में गेंहूँ , महाराष्ट्र व पंजाब में कपास , मद्रास में चावल।

भारतीय नील की माँग क्यों थी?

  • नील का पौधा मुख्य रूप से उष्णकटिबंधीय ( गर्म ) इलाकों में ही उगते थे।
  • तेरहवीं शताब्दी तक इटली , फ़्रांस और ब्रिटेन के कपड़ा उत्पाद कपडे की रंगाई के लिए भारतीय नील का इस्तेमाल कर तहे थे।
  • यूरोपीय उत्पादक बैगनी और नीला रंग बनाने के लिए बोड ( शीतोष्ण ) नामक पौधे का इस्तेमाल करते थे परन्तु वह फीका था उत्तरी इटली , दक्षिणी फ़्रांस व जर्मनी और ब्रिटेन के कई हिस्सों में यह पौधा उगता था।
  • कैरिबियाई द्वीप समूह स्थित सेंत डोमिंगयू में फ्रांसीसी , ब्राजील में पुर्तगाली, जमैका में ब्रिटिश और वेनेजुएला में स्पैनिश लोग नील की खेती करने लगे।
  • उत्तरी अमेरिका में भी नील की खेती का प्रारम्भ हुआ।
  • ब्रिटेन में औधोगिकीकरण होने से उसके कपास उत्पादन में वृद्धि हुई परन्तु इसी दौरान वेस्ट इंडीज और अमेरिका से नील का आयात बंद हो गया।
  • 1783 से 1789 के बीच दुनिया में नील का उत्पादन आधा रह गया। जिसके कारण भारतीय नील की मांग बढ़ी।
  • ब्रिटेन द्वारा भारत से नील आयात 1788 में 30 प्रतिशत जबकि 1810 में यह 95 प्रतिशत हो गया।
  • नील की खेती के दोमुख्य तरीके थे -निज और रैयती
  • निज खेती–इस व्यवस्था में बागान मालिक खुद अपनी जमीन पर नील का उत्पादन करते थे। या तो वह जमीन खरीद लेते थे या दूसरे जमींदारों से जमीन भाड़े पर ले लेते थे और मजदूरों को काम पर लगाकर नील की खेती करवाते थे।
  • समस्याà बड़े भूखंड उपलब्ध न होना , किसानों से टकराव तथा तनाव , मजदूरों का इंतजाम मुश्किल , हल बैलो का आभाव।
  • निज व्यवस्था के अंतर्गत नील की पैदावार सिर्फ 25 प्रतिशत ( उससे भी कम ) थी। नील की खेती होने के बाद उसमे कोई फसल नहीं होती थी। जमीन बंजर हो जाती थी।
  • रैयती खेती àइसमें बागान मालिक रैयतों से एक अनुबंध करते थे।
  • मुखिया रैयतों की तरफ से अनुबंध के लिए बाध्य किया जाता था। तथा अनुबंध के बाद कम व्याज पर कर्ज दिया जाता था एवं कम से कम 25 प्रतिशत जमीन पर नील की खेती करनी होती थी।

नील विद्रोह

  • मार्च 1859 में बंगाल के हजारों रैयतों ने मिलकर नील खेती करने से इनकार कर दिया।
  • रैयतों ने बागान मालिकों को लगान चुकाने से भी इनकार कर दिया।
  • रैयतों को जमींदारों और मुखियाओं का समर्थन मिला और ये बगावत धीरे-धीरे विद्रोह के रूप में फ़ैल गई।
  • 1859 में मजिस्ट्रेट ऐशले ईडन ने घोषणा की रैयतों को नील अनुबंध के लिए बाध्य नहीं किया जायेगा।
  • बाद में एक नील आयोग का गठन हुआ। जिसने कहा था कि तात्कालिक अनुबंधों को पूरा करने के बाद रैयत आगे अनुबंध न करने के लिए स्वतन्त्र होंगे।

1917 में महात्मा गाँधी द्वारा नील बागान मालिकों के खिलाफ चम्पारण सत्याग्रह किया गया।

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